राजयोग पंचम अध्याय – अध्यात्म प्राण का संयम
Fifth Chapter of Swami Vivekananda’s Raja Yoga in Hindi: Adhyatma Pran Ka Samyam
राजयोग के इससे पिछले दो अध्यायों–प्राण और प्राण का आध्यात्मिक रूप–में स्वामी विवेकानंद ने क्रमशः प्राण के वास्तविक स्वरूप और उसकी मानव-शरीरस्थ प्रक्रिया को समझाया है। इस अध्याय में स्वामी विवेकानन्द बता रहे हैं कि किस तरह इस प्राण को वशीभूत किया जाए और उससे क्या लाभ प्राप्त होगा।
अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे। हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला अंग फेफड़े की गति को अपने अधीन करना है। हमारा उद्देश्य है–शरीर के भीतर जो सूक्ष्म गतियाँ हो रहीं हैं, उनका अनुभव प्राप्त करना। हमारा मन बिल्कुल बाहर आ पड़ा है, वह भीतर की सूक्ष्म गतियों को बिल्कुल नहीं पकड़ सकता। हम जब उनका अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होंगे, तो उन पर विजय पा लेंगे। ये स्नायविक शक्तिप्रवाह शरीर में सर्वत्र चल रहे हैं, वे प्रत्येक पेशी में जाकर उसको जीवन-शक्ति दे रहे हैं, किन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते। योगियों का कहना है कि प्रयत्न करने पर हम उनका अनुभव प्राप्त करना सीख जायेंगे। पहले फेफड़े की गति पर विजय पाने की चेष्टा करनी होगी। कुछ काल तक यह कर सकने पर हम सूक्ष्मतर गतियों को भी वश में ला सकेंगे।
अब प्राणायाम की क्रियाओं की चर्चा की जाय। पहले तो, सीधे होकर बैठना होगा। देह को ठीक सीधा रखना होगा। यद्यपि मेरुमज्जा मेरुदण्ड से संलग्न नहीं है, फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर अवस्थित है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त-व्यस्त हो जाती है। अतएव देखना होगा कि वह स्वछंद भाव से रहे। टेढ़े बैठकर ध्यान करने की चेष्टा करने से अपनी ही हानि होती है। शरीर के तीनों भाग–वक्ष, ग्रीवा और मस्तक–सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे। देखोगे, बहुत थोड़े अभ्यास से वह श्वास-प्रश्वास की नाई सहज हो जायगा। इसके बाद स्नायुओं को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा। हमने पहले ही देखा है कि जो स्नायु-केन्द्र श्वास-प्रश्वास-यंत्र के कार्य को नियमित करता है, वह दूसरे स्नायुओं पर भी कुछ प्रभाव डालता है। इसीलिए साँस लेना और साँस छोड़ना ताल-बद्ध (नियमित) रूप से करना आवश्यक है। हम साधारणतः जिस प्रकार साँस लेते और छोड़ते हैं, वह श्वास-प्रश्वास नाम के ही योग्य नहीं। वह बहुत अनियमित है। फिर स्त्री-पुरुष के श्वास-प्रश्वासों में कुछ स्वाभाविक भेद भी हैं।
प्राणायाम-साधना की पहली क्रिया यह है–भीतर निर्दिष्ट परिमाण में साँस लो और बाहर निर्दिष्ट परिमाण में साँस छोड़ो। इस प्रकार करने पर देह-यंत्र का असामंजस्य भाव दूर हो जायगा। कुछ दिन तक यह अभ्यास करने के बाद, साँस खींचने और छोड़ने के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का मन-ही-मन उच्चारण करने से अच्छा होगा। भारत में, प्राणायाम करते समय हम लोग श्वास के ग्रहण और त्याग की संख्या ठहराने के लिए एक, दो, तीन, चार, इस क्रम से न गिनते हुए कुछ सांकेतिक शब्दों का व्यवहार करते हैं। इसीलिए मैं तुम लोगों से प्राणायाम के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का व्यवहार करने के लिए कह रहा हूँ। चिंतन करना कि वह शब्द श्वास के साथ तालबद्ध रूप से बाहर जा रहा है और भीतर आ रहा है। ऐसा करने पर देखोगे कि सारा शरीर क्रमशः मानो साम्यभाव धारण करता जा रहा है। तभी समझोगे, यथार्थ विश्राम क्या है? उसकी तुलना में निद्रा तो विश्राम ही नहीं। एक बार यह विश्राम की अवस्था आने पर अतिशय थके हुए स्नायु भी शांत हो जायेंगे और तब जानोगे कि पहले तुमने कभी यथार्थ विश्राम का सुख नहीं पाया।
इस साधना का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है। मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ दूर हो जायेंगी। मन की शान्ति मुख से फूटकर बाहर निकलेगी। दूसरे, तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जायगा। मैंने ऐसा एक भी योगी नहीं देखा, जिनके गले का स्वर कर्कश हो। कुछ महीने के अभ्यास के बाद ही ये चिह्न प्रकट होने लगेंगे। इस पहले प्राणायाम का कुछ दिन अभ्यास करने के बाद प्राणायाम की एक दूसरी ऊँची साधना ग्रहण करनी होगी। वह यह है–इड़ा अर्थात् बाँई नासिका द्वारा फेफड़े को धीरे-धीरे वायु से पूरा करो। उसके साथ स्नायु-प्रवाह में मन का संयम करो, सोचो कि तुम मानो स्नायु-प्रवाह को मेरुमज्जा के नीचे भेजकर कुण्डलिनी-शक्ति के आधारभूत, मूलाधारस्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर बड़े ज़ोर से आघात कर रहे हो। इसके बाद इस स्नायु-प्रवाह को कुछ क्षण के लिए उसी जगह धारण किए रहो। तत्पश्चात् कल्पना करो कि उस स्नायविक प्रवाह को श्वास के साथ दूसरी ओर से अर्थात् पिंगली द्वारा ऊपर खींच रहे हो। फिर दाहिनी नासिका से वायु धीरे-धीरे बाहर फेंको। इसका अभ्यास तुम्हारे लिए कुछ कठिन ज्ञात होगा। सहज उपाय है अँगूठे से दाहिनी नाक बंद करके बाँईं नाक से धीरे-धीरे वायु भरो। फिर अँगूठे और तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लो और सोचो, मानो तुम स्नायु-प्रवाह को नीचे भेज रहे हो और सुषुम्ना के मूल देश में आघात कर रहे हो। इसके बाद अँगूठा हटाकर दाहिनी नाक दारा वायु बाहर निकालो। फिर, बाँईं नासिका तर्जनी से बंद करके दाहिनी नाक से धीरे-धीरे वायु-पूरण करो और फिर पहले की तरह दोनों नासिका छिद्रों को बंद कर लो।
हिन्दुओं के समान प्राणायाम का अभ्यास करना इस देश (अमेरिका) के लिए कठिन होगा, क्योंकि हिन्दू बाल्यकाल से ही इसका अभ्यास करते हैं। उनके फेफड़े इसके अभ्यस्त हैं। यहाँ चार सेकेण्ड से आरम्भ करके धीरे-धीरे बढ़ाने पर अच्छा होगा। चार सेकेंड तक वायु-पूरण करो, सोलह सेकेण्ड बंद करो और फिर आठ सेकेंड में वायु का रेचन करो। इससे एक प्राणायाम होगा। पर, उस समय मूलाधारस्थ त्रिकोणाकार पद्म पर मन स्थिर करना भूल न जाना। इस प्रकार की कल्पना से तुमको साधना में बड़ी सहायता मिलेगी। एक तीसरे प्रकार का प्राणायाम यह है–धीरे-धीरे भीतर श्वास खींचो, फिर तनिक भी देर किए बिना धीरे-धीरे वायु रेचन करके बाहर ही श्वास कुछ देर के लिए रुद्ध कर रखो, संख्या पहले की प्राणायाम की तरह है। पूर्वोक्त प्राणायाम और इसमें भेद इतना ही है कि पहले के प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है और यहाँ बाहर। यह प्राणायाम पहले से सीधा है। जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है, उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं। उसका सबेरे चार बार और शाम को चार बार अभ्यास करो। बाद में धीरे-धीरे समय और संख्या बढ़ा सकते हो। तुम क्रमशः देखोगे कि तुम बहुत सहज ही यह कर सक रहे हो और इससे तुम्हें बहुत आनंद भी मिल रहा है। अतएव जब देखो कि तुम यह बहुत सहज ही कर सक रहे हो, तब बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ संख्या चार से छः बढ़ा सकते हो। अनियमित रूप से साधना करने पर तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है।
उपर्युक्त तीन प्रक्रियाओं में से पहली और अंतिम क्रियाएँ कठिन भी नहीं और उनमें किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका भी नहीं। पहली क्रिया का जितना अभ्यास करोगे, उतना ही तुम शांत होते जाओगे। उसके साथ ओंकार जोड़कर अभ्यास करो, देखोगे, जब तुम दूसरे कार्य में लगे हो, तब भी तुम उसका अभ्यास कर सक रहे हो। इस क्रिया के फल में, देखोगे, तुम अपने को सभी बातों में अच्छा ही महसूस कर रहे हो। इस तरह कठोर साधना करते-करते एक दिन तुम्हारी कुण्डलिनी जग जायगी। जो दिन में केवल एक या दो बार अभ्यास करेंगे, उनके शरीर और मन कुछ स्थिर भर हो जायेंगे और उनका स्वर मधुर हो जायगा। परन्तु जो कमर बाँधकर साधना के लिए आगे बढ़ेंगे, उनकी कुण्डलिनी जाग्रत् हो जायगी। उनके लिए सारी प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेगी, उनके लिए ज्ञान का द्वार खुल जायगा। तब फिर ग्रन्थों में तुम्हें ज्ञान की खोज न करनी होगी। तुम्हारा मन ही तुम्हारे निकट अनंत-ज्ञान-विशिष्ट पुस्तक का काम करेगा। मैंने मेरुदण्ड के दोनों ओर से प्रवाहित इडा और पिंगला नामक दो शक्तिप्रवाहों का पहले ही उल्लेख किया है, और मेरुमज्जा के बीच से जानेवाली सुषुम्ना की बात भी कही है। यह इडा, पिंगला और सुषुम्ना प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। जिनके मेरुदण्ड है, उन सभी के भीतर ये तीन प्रकार की भिन्न-भिन्न क्रिया-प्रणालियाँ मौजूद हैं। परन्तु योगी कहते हैं, साधारण जीव में यह सुषुम्ना बंद रहती है, उसके भीतर किसी तरह की क्रिया का अनुभव नहीं किया जा सकता, किन्तु इडा और पिंगला नाड़ियों का कार्य, अर्थात् शरीर के विभिन्न भागों में शक्तिवहन करना, सभी प्राणियों में होता रहता है।
केवल योगी में यह सुषुम्ना खुली रहती है। यह सुषुम्नाद्वार खुलने पर उसके भीतर से स्नायविक शक्तिप्रवाह जब ऊपर चढ़ता है, तब चित्त उच्च से उच्चतर भूमि पर उठता जाता है। और अन्त में हम अतीन्द्रिय राज्य में चले जाते हैं। हमारा मन तब अतीन्द्रिय, ज्ञानातीत, पूर्ण-चैतन्य इत्यादि नामों वाली अवस्था प्राप्त कर लेता है। तब हम बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं, वहाँ तर्क नहीं पहुँच सकता। इस सुषुम्ना को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। ऊपर में जिन शक्तिवहन-केन्द्रों का उल्लेख किया गया है, योगियों के मत में वे सुषुम्ना में ही अवस्थित हैं। रूपक की भाषा में उन्हीं को पद्म कहते हैं। सबसे नीचेवाला पद्म सुषुम्ना के सबसे नीचे भाग में अवस्थित है। उसका नाम है ‘मूलाधार’, इसके बाद दूसरा है ‘स्वाधिष्ठान’, तीसरा ‘मणिपुर’, फिर चौथा ‘अनाहत’, पाँचवाँ ‘विशुद्ध’, छठा ‘आज्ञा’, और सातवाँ हैं ‘सहस्रार’ या सहस्रदल पद्म। यह सहस्रार सबसे ऊपर, मस्तिष्क में स्थित है।
अभी इनमें से केवल दो केन्द्रों (चक्रों) की बात हम लेंगे–सबसे नीचेवाले मूलाधार की और सबसे ऊपरवाले सहस्रार की। सबसे नीचेवाले चक्र में ही समस्त शक्तियाँ अवस्थित हैं , और उस शक्ति को उस जगह से लेकर मस्तिष्कस्थ सर्वोच्च चक्र पर ले जाना होगा। योगी कहते हैं, मनुष्य-देह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ओज सबसे उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तक में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और आध्यात्मिक बल से बली होता है। एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। ऐसा क्यों? यह ओज-शक्ति ही शरीर से निकलकर ऐसा अद्भुत कार्य करती है। इस ओज-शक्ति से युक्त पुरुष जो कुछ कार्य करते हैं, उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति।
यह ओज थोड़ी-बहुत मात्रा में सभी मनुष्यों में विद्यमान है। शरीर में जितनी शक्तियाँ खेल कर रही हैं, उनका उच्चतम विकास यह ओज है। यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल परिवर्तन का है—एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है, वही क्रमशः आभ्यन्तरिक शक्ति में परिणत हो जायगी। आज जो शक्तियाँ पेशियों में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जायेंगी।
योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिंतन आदि रूप में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन करने पर वह सहज ही ओजधातु में परिणत हो जाती है। और हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं। वे सारी काम-शक्ति को लेकर ओजधातु में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं। कामजयी स्त्री-पुरुष ही इस ओजधातु को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिए सब देशों में ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। मनुष्य सहज ही अनुभव करता है कि काम को प्रश्रय देने पर सारा धर्मभाव, चरित्र-बल और मानसिक तेज जाता रहता है। इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन-जिन सम्प्रदायों में बड़े-बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष ज़ोर दिया है। इसीलिए विवाह-त्यागी संन्यासी-दल की उत्पत्ति हुई है। इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से तन-मन-वचन से पालन करना नितांत आवश्यक है। ब्रह्मचर्य बिना राजयोग की साधना बड़े ख़तरे की है, क्योंकि उससे अंत में मस्तिष्क का विषम विकार पैदा हो सकता है। यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवन यापन करे, तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है?
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