राजयोग पर द्वितीय पाठ – स्वामी विवेकानंद
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Rajyog Par Dwitiya Paath: Swami Vivekananda
इस योग का नाम अष्टांग योग है, क्योंकि इसको प्रधानतः आठ भागों में विभक्त किया गया है। वे हैं:
प्रथम – यम। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और सारा जीवन इसके द्वारा शासित होना चाहिए। इसके पाँच विभाग है :
- मन, वचन, कर्म से हिंसा न करना।
- मन, वचन, कर्म से लोभ न करना।
- मन, वचन और कर्म की पवित्रता।
- मन, वचन और कर्म द्वारा पूर्ण सत्यनिष्ठ होना।
- अपरिग्रह (किसी से कोई दान न लेना)।
द्वितीय – नियम। शरीर की देखभाल, नित्य स्नान, परिमित आहार इत्यादि।
तृतीय – आसन। मेरुदण्ड के ऊपर जोर न देकर कमर, गर्दन और सिर सीधा रखना।
चतुर्थ – प्राणायाम। प्राणवायु अथवा जीवनशक्ति को वशीभूत करने के लिए श्वास-प्रश्वास का संयम।
पंचम – प्रत्याहार। मन को अन्तर्मुख करना तथा उसे बहिर्मुखी होने से रोकना, जड़-तत्त्व को समझने के लिए उस पर बार बार विचार करना।
षष्ठ – धारणा। किसी एक विषय पर मन केन्द्रित करना।
सप्तम – ध्यान।
अष्टम – समाधि। ज्ञानालोक की प्राप्ति – हमारी समस्त साधना का लक्ष्य।
हमें यम-नियम का अभ्यास जीवनभर करना चाहिए। जहाँ तक दूसरे अभ्यासों का सम्बन्ध है, हमें ठीक वैसा ही करना है, जैसा कि जोंक बिना दूसरे तिनके को दृढ़तापूर्वक पकड़े पहलेवाले को नहीं छोड़ती है। दूसरे शब्दों में, हमें अपने पहले कदम को भलीभाँति समझकर उसका पूर्ण अभ्यास कर लेना है और तब दूसरा उठाना है।
इस पाठ का विषय प्राणायाम अर्थात् प्राण का नियमन है। राजयोग में प्राणवायु चित्तभूमि में प्रविष्ट होकर हमें आध्यात्मिक राज्य में ले जाती है। यह प्राणवायु समस्त देहयन्त्र का मूल चक्र है। प्राण प्रथम फुफ्फुस पर क्रिया करता है, फिर फुफ्फुस हृदय पर, हृदय रक्त-प्रवाह पर, रक्त्त-प्रवाह मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क मन पर क्रिया करता है। जिस प्रकार इच्छा-शक्ति बाह्य संवेदन उत्पन्न कर सकती है, उसी प्रकार बाह्य संवेदन इच्छा-शक्ति को जागृत कर सकता है। हमारी इच्छा-शक्ति दुर्बल है, हम जड़त्व के इतने बन्धन में हैं कि हम उसकी सामर्थ्य को नहीं जान पाते। हमारी अधिकांश क्रियाएँ बाहर से भीतर की ओर होती हैं। बाह्य प्रकृती हमारे आन्तरिक साम्य को नष्ट कर देती है, किन्तु जैसा कि हमें चाहिए, हम उसके साम्य को नष्ट नहीं कर पाते। किन्तु यह सब भूल है। वास्तव में बाह्य शक्ति की अपेक्षा हमारे भीतर की शक्ति अधिक प्रबल है।
वे ही महान् सन्त और आचार्य हैं, जिन्होंने अपने भीतर के विचारराज्य को जीता है। और इसी कारण उनकी वाणी में शक्ति थी। एक ऊँची मीनार पर बन्दी किये गये एक मन्त्री की कहानी है1 जो अपनी पत्नी द्वारा भृंग, मधु, रेशमी सूत, सुतली और रस्सी की सहायता से मुक्त हुआ। इस रूपक में स्पष्ट दर्शाया गया है कि किस प्रकार प्रथम रेशमी धागे की भाँति प्रथम प्राणवायु का नियमन करते हुए मनोराज्य को जीता जा सकता है। इसी प्राणवायु के नियमन से एक के बाद एक विभिन्न शक्तियों को वशीभूत करके अन्त में हम एकाग्रतारूपी रस्सी पकड़ सकेंगे, जिसके सहारे हम देहरूपी कारागार से उद्धार पाकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे। मुक्ति प्राप्त कर लेने पर उसके लिए प्रयुक्त साधनों का हम परित्याग कर सकते हैं।
प्राणायाम के तीन अंग हैं :
1.पूरक – श्वास लेना।
2.कुम्भक – श्वास रोकना।
3.रेचक – श्वास छोड़ना।
मस्तिष्क में से होकर मेरुदण्ड के दोनों ओर बहनेवाले दो शक्ति-प्रवाह हैं, जो मूलाधार में एक दूसरे का अतिक्रमण करके फिर मस्तिष्क में लौट आते हैं। इन दोनों में एक का नाम ‘सूर्य’ (पिंगला) है, जो मस्तिष्क के वाम गोलार्ध से प्रारम्भ होकर मसिष्क के ठीक नीचे दूसरे प्रवाह को लाँघते हुए मेरुदण्ड के दक्षिण पार्श्व में से नीचे आता है तथा पुनः मूलाधार पर दूसरे का अतिक्रमण करता है। यह गति अंग्रेजी के आठ (8) अंक के अर्ध भाग के आकार के समान है।
दूसरे शक्ति-प्रवाह का नाम ‘चन्द्र’ (इड़ा) है, जिसकी गति पहले शक्ति-प्रवाह से ठीक विपरीत है और जो इस आठ (8) अंक को पूर्ण बनाता है। यद्यपि यह आकार आठ (8) की तरह है, परन्तु उसका निम्न भाग ऊपरी भाग से बहुत अधिक लम्बा है। ये शक्ति-प्रवाह दिन-रात गतिशील रहते हैं और विभिन्न केन्द्रों में, जिन्हें हम ‘चक्र’ कहते हैं, महत्त्वपूर्ण जीवन-शक्तियों का संचय किया करते हैं। पर शायद ही हम इन शक्ति-प्रवाहों का अनुभव कर पाते हैं। एकाग्रता द्वारा हम उनका अनुभव कर सकते हैं और शरीर के विभिन्न अंगों में चलनेवाली उनकी क्रिया को समझ सकते हैं। इस ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ के शक्ति-प्रवाह श्वास-क्रिया के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं और श्वास-क्रिया के नियमन द्वारा हम समस्त शरीर को वश में कर सकते हैं।
कठोपनिषद्2 में देह को रथ, मन को लगाम, इन्द्रियों को घोड़े, विषय को पत और बुद्धि को सारथि कहा गया है। इस रथ में बैठी हुई आत्मा को रथी या रथस्वामी कहा गया है। यदि रथी समझदार नहीं है और सारथि से घोड़ो को नियन्त्रित नहीं करा सकता तो, वह कभी भी अपने ध्येय तक नहीं पहुँच सकता। अपितु, दुष्ट अश्वों के समान इन्द्रियाँ उसे जहाँ चाहेंगी, खींच ले जाएँगी; यहाँ तक कि वे उसकी जान भी ले सकती हैं। ये दो शक्ति-प्रवाह मानो सारथि के हाथों में अश्वों के नियन्त्रण के लिए लगाम हैं और अश्वों को अपने वश में करने के लिए उसे इनके ऊपर नियन्त्रण करना आवश्यक है। नीतिपरायण होने की शक्ति हमें प्राप्त करनी ही होगी। जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते, हम अपने कर्मों को नियन्त्रित नहीं कर सकते। नीति की शिक्षाओं को कार्यरूप में परिणत करने की शक्ति हमें केवल योग से ही प्राप्त हो सकती है। नीतिपरायण होना योग का उद्देश्य है। जगत् के सभी बड़े बड़े आचार्य योगी थे और उन्होंने प्रत्येक शक्ति-प्रवाह को वश में कर रखा था। योगी इन दोनों प्रवाहों को मेरुदण्ड के तले में रोकते हुए उनको मेरुदण्ड के मध्य से होकर परिचालित करते हैं। तब ये प्रवाह ज्ञान के प्रवाह बन जाते हैं। यह स्थिति केवल योगी ही के लिए सम्भव है।
प्राणायाम की द्वितीय शिक्षा : कोई एक ही प्रणाली सभी के लिए उपयुक्त नहीं है। प्राणायाम लयपूर्ण क्रमबद्धता के साथ होना चाहिए। और इसका सब से सहज उपाय है गिनना। चूँकि यह गिनना पूर्णरूपेण यन्त्रवत् हो जाता है, हम इसके बजाय एक निश्चित संख्या में पवित्र मन्त्र ‘ॐ’ का जप करते हैं।
प्राणायाम की विधि इस प्रकार है : दायें नथुने को अँगुठे से दबाकर चार बार ॐ का जप करते हुए धीरे धीरे बायें नथुने से श्वास भीतर लो।
तत्पश्चात् बायें नथुने पर तर्जनी रखकर दोनों नथुनों को कसकर बंद कर दो और ॐ का मन ही मन आठ बार जप करते हुए श्वास को भीतर रोके रहो।
तत्पश्चात्, अँगूठे को दाहिने नथुने से हटाकर चार बार ॐ का जप करते हुए उसके द्वारा धीरे धीरे श्वास को बाहर निकालो।
श्वास बाहर निकालते समय फुफ्फुस से समस्त वायु को निकालने के लिए पेट को संकुचित करो। फिर बायें नथुने को बंद करके चार बार ॐ का जप करते हुए दाहिने नथुने से श्वास भीतर लो। इसके बाद दाहिने नथुने को अँगूठे से बंद करो और आठ बार ॐ का जप करते हुए श्वास को भीतर रोको। फिर बायें नथुने को खोलकर चार बार ॐ का जप करते हुए पहले की भाँति पेट को संकुचित करके धीरे धीरे श्वास को बाहर निकालो। इस सारी क्रिया को प्रत्येक बैठक में दो बार दुहराओ अर्थात् प्रत्येक नथुने के लिए दो के हिसाब से चार प्राणायाम करो। प्राणायाम के लिए बैठने के पूर्व सारी क्रिया प्रार्थना से प्रारम्भ करना अच्छा होगा।
एक सप्ताह तक इस अभ्यास को करने की आवश्यकता है। फिर धीरे धीरे श्वास-प्रश्वास की अवधि को बढ़ाओ, किन्तु अनुपात वही रहे। अर्थात् यदि तुम श्वास भीतर ले जाते समय छह बार ॐ का जप करते हो, तो उतना ही श्वास बाहर निकालते समय भी करो और कुम्भक के समय बारह बार करो। इन अभ्यासों के द्वारा हम अधिक पवित्र, शुद्ध और आध्यात्मिक होते जाएँगे। किसी विपथ में मत जाओ अथवा कोई शक्ति (सिद्धि) की चाह मत करो। प्रेम ही एक ऐसी शक्ति है, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है और उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। राजयोग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सबल होना आवश्यक है। अपना प्रत्येक कदम इन बातों को ध्यान में रखकर ही बढ़ाओ।
लाखों में कोई बिरला ही कह सकता है, “मैं इस संसार के परे जाकर ईश्वर का साक्षात्कार करूँगा।” शायद ही कोई सत्य सामने खड़ा हो सके। किन्तु अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें मरने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा।
- उपर्युक्त कहानी विस्तार से यहाँ पढ़ें – साधना के प्राथमिक सोपान
- कठोपनिषद् 1|3|3-5