राजयोग पर तृतीय पाठ – स्वामी विवेकानंद
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Rajyog Par Tritiya Paath: Swami Vivekananda
कुण्डलिनी : आत्मा का अनुभव जड़ के रूप में न करो, बल्कि उसके यथार्थ स्वरूप को जानो। हम लोग आत्मा को देह समझते हैं, किन्तु हमारे लिए इसको इन्द्रिय और बुद्धि से अलग करके सोचना आवश्यक है। तभी हमें इस बात का ज्ञान होगा कि हम अमृतस्वरूप हैं। परिवर्तन से आशय है कार्य और कारण का द्वैत; और जो कुछ भी परिवर्तित होता है, उसका नश्वर होना अवश्यम्भावी है। इससे यह सिद्ध होता है कि न तो शरीर और न मन अविनाशी हो सकते हैं, क्योंकि दोनों में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। केवल जो अपरिवर्तनशील है, वही अविनाशी हो सकता है; क्योंकि उसे कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता।
हम सत्यस्वरूप हो नहीं जाते, बल्कि हम सत्यस्वरूप है; किन्तु हमें सत्य को आवृत करनेवाले अज्ञान के पर्दे को हटाना होगा। देह विचार का ही रूप है – विषयीकृत विचार। ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ शक्ति-प्रवाह शरीर के सभी अंगों में शक्ति-संचार करते हैं। अवशिष्ट अतिरिक्त शक्ति सुषुम्ना के अन्तर्गत विभिन्न चक्रों में संचित रहती है। जिन्हे सामान्यतया स्नायुकेन्द्र कहा जाता है।
ये शक्ति-प्रवाह मृतदेह में दृष्टिगोचर नहीं होते; केवल स्वस्थ शरीर में ही ये देखे जा सकते हैं।
योगी को एक विशेष सुविधा रहती है, क्योंकि वह केवल इनका अनुभव ही नहीं करता, अपितु इन्हें प्रत्यक्ष देखता भी है। वे उसके जीवन में ज्योतिर्मय हो उठते हैं। इसी प्रकार उसके स्नायु-केन्द्र भी ज्योतिर्मय हो जाते हैं।
कार्य ज्ञात तथा अज्ञात दोनों दशाओं में होते हैं। योगियों की एक और दशा भी होती है, वह है ज्ञानातीत या अतिचेतन अवस्था, जो सभी देशों और सभी युगों में समस्त धार्मिक ज्ञान का उद्गम रही है। ज्ञानातीत दशा में कभी भूल नहीं होती। सहजात-प्रवृत्ति के द्वारा होनेवाला कार्य पूर्णरूपेण यन्त्रवत् होता है। उसमें ज्ञान नहीं रहता; किन्तु यह ज्ञानातीत दशा ज्ञान के परे की स्थिति होती है। इसे अन्तःप्रेरणा कहते हैं। योगी कहते हैं, “यह शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है और अन्ततोगत्वा सभी लोग इसका अनुभव प्राप्त करेंगे।”
हमें ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ की गतियों को एक नयी दिशा में परिचालित करना होगा और इसके लिए सुषुम्ना का मुख खोलकर उन्हें एक नया रास्ता दिखा देना होगा। जब हम इस सुषुम्ना से होकर शक्ति-प्रवाह को मस्तिष्क तक ले जाने में सफल हो जाते हैं, तब उतने समय के लिए हम शरीर से बिलकुल अलग हो जाते हैं।
मेरुदण्ड के तले त्रिकास्थि अथवा त्रिकोणाकृति हड्डी (sacrum) के निकट स्थित मूलाधार चक्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह स्थल प्रजनन-शक्ति के बीज – वीर्य – का निवासस्थान है। योगी इसको एक त्रिकोण के भीतर कुण्डली लगाकर बैठे छोटेसे सर्प के प्रतीक के द्वारा व्यक्त करते हैं। इस निद्रित सर्प को कुण्डलिनी कहते हैं। इस कुण्डलिनी को जागृत करना ही राजयोग का प्रमुख उद्देश्य है।
महती काम-शक्ति को पशुसुलभ क्रिया से परावृत्त करके ऊर्ध्व दिशा में मनुष्य-शरीर के महान् विद्युत्-आधार-स्वरूप मस्तिष्क में परिचालित करते हुए वहाँ संचित करने पर वह ओज अथवा आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हो जाती है। प्रत्येक सत्-विचार, प्रत्येक प्रार्थना उस पशुसुलभ शक्ति के कुछ अंश को ओज में परिणत करने में सहायता करती है। और इस प्रकार हमें आध्यात्मिक बल प्रदान करती है। यह ओज ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इसका संचय सम्भव है। जिस व्यक्ति की समस्त पशुसुलभ काम-शक्ति ओज में परिणत हो गयी है, वह देवता है। उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन जगत् को पुनरुज्जीवित करते हैं।
योगी मन ही मन कल्पना करता है कि यह कुण्डलिनी सुषुम्ना-पथ से धीरे धीरे ऊपर उठ रही है तथा एक के बाद एक विविध स्तरों को भेदती हुई सर्वोच्च स्तर अर्थात् मस्तिष्क में स्थित सहस्रार में पहुँच रही है। काम-शक्ति मनुष्य की सर्वोच्च शक्ति है; और जब तक मनुष्य (स्त्री या पुरुष) इस काम-शक्ति को ओज में परिणत नहीं कर लेता, वास्तविक रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता।
कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती, उसे केवल योग्य दिशा में परिचालित किया जा सकता है। अतः हमें चाहिए कि हम अपने अंदर पहले से ही विद्यमान अद्भुत शक्तियों को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति द्वारा, उन्हें पशुवत् स्थिति में न रखते हुए आध्यात्मिक बना दें। अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता या ब्रह्मचर्य ही समस्त धर्म तथा नीति की आधारशिला है। विशेषतः राजयोग में मन, वचन तथा कर्म की पूर्ण पवित्रता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। विवाहित तथा अविवाहित, सभी के लिए एक ही नियम है। देह की इन अत्यन्त सामर्थ्यशाली शक्तियों को वृथा नष्ट कर देने पर आध्यात्मिक बनना सम्भव नहीं है।
सारा इतिहास बताता है कि सभी युगों में बड़े बड़े द्रष्टा महापुरुष या तो संन्यासी और तपस्वी थे अथवा विवाहित जीवन का परित्याग कर देनेवाले थे। जिनका जीवन शुद्ध हो केवल वे ही भगवत्साक्षात्कार कर सकते हैं।
प्राणायाम प्रारम्भ करने से पूर्व इस त्रिकोणमण्डल को सामने लाने का प्रयत्न करो। आँखे बन्द करके मन ही मन कल्पना द्वारा इसका स्पष्ट चित्र सामने लाओ। सोचो कि यह चारों ओर से ज्वालाओं से घिरा है और उसके बीच में कुण्डलिनी सोयी पड़ी है। जब तुम्हें कुण्डलिनी स्पष्ट रूप से दिखने लगे तो अपनी कल्पना में इसे मेरुदण्ड के नीचे मूलाधार चक्र में स्थित करो और उसे जगाने के लिए कुम्भक से श्वास को अवरुद्ध करके उसके द्वारा उसके मस्तक पर आघात करो। तुम्हारी कल्पना जितनी ही शक्तिशाली होगी, उतनी शीघ्रता से तुम्हें यथार्थ फल की प्राप्ति होगी और कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी। जब तक वह जागृत नहीं होती, तब तक यही सोचो की वह जागृत हो गयी है। तथा शक्ति-प्रवाहों को अनुभव करने की चेष्टा करो और उन्हें सुषुम्ना-पथ में परिचालित करने का प्रयास करो। इससे उनकी क्रिया में शीघ्रता होती है।