बसंत – ब्रज भाषा की कविता
“बसंत” स्व श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित बसंत ऋतु का वर्णन करती कविता है। आनन्द लीजिए–
गात देखि फूली सरसों के गात पीरे परे,
बौरी भई कोकिल सुराग सरसाने में।
पाँव धरि देत जहाँ राधे तहँ गुलाब झरैं,
समता न पावैं फूल रंग दरसाने में।
रतनारी सारी नीली कंचुकी पै हारि गए,
लालहू पलास अलसी हू हरसाने में।
गोरिनि की गारिन के रंग में रँगे हैं लोग,
आइकें बसंत सकुचान्यौ बरसाने में।
देखि हँसी फूल हँसे कोयल ने सीखे गान,
कूकि-कूकि के लगी सुराग सरसाने में।
तिरछी चितौनि कलियान हू लही हैं सीखि,
राधै सौं निकाई चतुराई दरसाने में।
गात सौं सुगंध, मंद-मंद-सी गयंद-गति,
सीखि पौन लाग्यौ कुंज-कुंज हरषाने में।
कहै कोऊ बेशक बसंत सुखसाज लायौ,
मेरे जानें भीख लैन आयौ बरसाने में।
मेघ हीन अम्बर में नीलम सुहास भरें,
हरे-हरे पातनि की फूली डाल डाल है।
मंद-मंद मंथर बतास पुलकात गात,
जात इठलात जैसे गोरी लेति ताल है।
उड़ति सुगंध भौंर भीर, भई अंध फिरै,
पपीहा की तान किएँ देति हियें साल है।
उड़त पराग कौ अबीर द्वार-द्वार फिरै,
आयौ है बसंत फीकौ बिना नंदलाल है।
बंदन होते धमारनि के स्वर, नेह में देह पगंत से होते,
छूत-अछूत रँगे रँग एक ही, प्रेम सने पुलकंत से होते।
नारि न होती सलज्ज कोऊ, नर कोऊ नहीं कुलबंत से होते,
देवर जेठ में भेद न होते जो बारह मास बसंत के होते
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।