पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक हैं – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक हैं” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद कृत भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी पराविद्या और पराभक्ति में ऐक्य दर्शा रहे हैं और बता रहे हैं कि दोनों वस्तुतः एक ही हैं। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ देखें – भक्तियोग स्वामी विवेकानन्द कृत।
उपनिषदों में परा और अपरा विद्या में भेद बतलाया गया है। भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही हैं। मुण्डक उपनिषद् में कहा है, “ब्रह्मज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा, ये दो प्रकार की विद्याएँ जानने योग्य हैं। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा (उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञपद्धति), व्याकरण, निरुक्त (वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ बतानेवाला शास्त्र), छन्द और ज्योतिष आदि हैं; तथा परा विद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है।”1 इस प्रकार परा विद्या स्पष्टतः ब्रह्मविद्या है। देवीभागवत में पराभक्ति की निम्नलिखित व्याख्या है – “एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छन्न धारा में गिरता है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत चिन्तन में लग जाता है, तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है।”2 भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है। अन्य सब प्रकार की भक्ति इस पराभक्ति अर्थात् रागानुगा भक्ति की प्राप्ति के लिए केवल सोपानस्वरूप हैं। जब इस प्रकार का अपार अनुराग मनुष्य के हृदय में उत्पन्न हो जाता है, तो उसका मन निरन्तर भगवान के स्मरण में ही लगा रहता है, उसे और किसी का ध्यान ही नहीं आता। भगवान के अतिरिक्त वह अपने मन में अन्य विचारों को स्थान तक नहीं देता और फलस्वरूप उसकी आत्मा पवित्रता के अभेद्य कवच से रक्षित हो जाती है तथा मानसिक एवं भौतिक समस्त बन्धनों को तोड़कर शान्त और मुक्त भाव धारण कर लेती है। ऐसा ही व्यक्ति अपने हृदय में भगवान की उपासना कर सकता है। उसके लिए अनुष्ठान-पद्धति, प्रतिमा, शास्त्र और मत-मतान्तर आदि अनावश्यक हो जाते हैं; उनके द्वारा उसे और कोई लाभ नहीं होता। भगवान की इस प्रकार उपासना करना सहज नहीं है। साधारणतया मानवी प्रेम वहीं लहलहाते देखा जाता है, जहाँ उसे दूसरी ओर से बदले में प्रेम मिलता है; और जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ उदासीनता आकर अपना अधिकार जमा लेती है। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जहाँ बदले में प्रेम न मिलते हुए भी प्रेम का प्रकाश होता हो। उदाहरणार्थ हम दीपक के प्रति पतिंगे के प्रेम को ले सकते हैं। पतिंगा दीपक से प्रेम करता है और उसमें गिरकर अपने प्राण दे देता है। असल में इस प्रकार प्रेम करना उसका स्वभाव ही है। केवल प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्सन्देह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और यही पूर्ण निःस्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वही हमें पराभक्ति में ले जाता है।
- द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदः वदन्ति परा च एव अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदः, यजुर्वेद, सामवेदः, अथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पः, व्याकरणम्, निरुक्तम्, छन्दः, ज्योतिषम् इति। अथ परा यया तत् अक्षरम् अधिगम्यते।
मुण्डक उपनिषद्, १।१।४-५ - चेतसः वर्तनं चैव तैलधारासमं सदा।
देवीभागवत ७।३७।११
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