प्रार्थना – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“प्रार्थना” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्ति योग का प्रथम अध्याय है। इसमें श्वेताश्वतर उपनिषद के दो मंत्र हैं, जो ईश्वर की महिमा का वर्णन करते हैं और उसकी शरण में जाने की बात कहते हैं–यहीं से भक्ति का आरंभ होता है। प्रत्येक भक्त के हृदय में यही प्रार्थना नित्य गूंजती रहती है। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – स्वामी विवेकानंद कृत भक्तियोग हिंदी में।
स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो ज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुः विद्यते ईशनाय॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवम् आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥
“वह विश्व की आत्मा है, अमरणधर्मा और ईश्वररूप से स्थित है, वह सर्वज्ञ, सर्वगत और इस भुवन का रक्षक है, जो सर्वदा इस जगत् का शासन करता है; क्योंकि इसका शासन करने के लिए और कोई समर्थ नहीं है।”
“जिसने सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न किया और जिसने उसके लिए वेदों को प्रवृत्त किया, आत्मबुद्धि को प्रकाशित करनेवाले उस देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।”
श्वेताश्वतर उपनिषद्, ६।१७-१८
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