सार्वजनीन प्रेम – स्वामी विवेकानंद (भक्तियोग)
“सार्वजनीन प्रेम” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की विख्यात पुस्तक भक्ति योग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी सार्वजनीन प्रेम की व्याख्या करते हुए समझा रहे हैं कि ईश्वर के प्रति प्रेम का मतलब प्राणी मात्र से प्रेम करना है क्योंकि ईश्वर तो सर्वत्र समभाव से स्थित है। सार्वजनीन प्रेम की उपलब्धि के बिना भक्तिमार्ग में ईश्वरोपलब्धि भी असंभव ही है। इस किताब के दूसरे अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – भक्तियोग हिन्दी में पढ़ें।
समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से प्रेम कैसे कर सकते हैं? ईश्वर ही वह समष्टि है। सारे विश्व का यदि एक अखण्ड रूप से चिन्तन किया जाय, तो वही ईश्वर है, और उसे पृथक्-पृथक् रूप से देखने पर वही यह दृश्यमान संसार है – व्यष्टि है। समष्टि वह इकाई है, जिसमें लाखों छोटी छोटी इकाइयों का मेल है। इस समष्टि के माध्यम से ही सारे विश्व को प्रेम करना सम्भव है। भारतीय दार्शनिक व्यष्टि पर ही नहीं रुक जाते; वे तो व्यष्टि पर एक सरसरी दृष्टि डालकर तुरन्त एक ऐसे व्यापक या समष्टि भाव की खोज में लग जाते हैं, जिसमें सब व्यष्टियों या विशेष विशेष भावों का अन्तर्भाव हो। इस समष्टि की खोज ही भारतीय दर्शन और धर्म का लक्ष्य है। ज्ञानी पुरुष ऐसी एक समष्टि की, ऐसे एक निरपेक्ष और व्यापक तत्त्व की कामना करता है, जिसे जानने से वह सब कुछ जान सके। भक्त उन एक सर्वव्यापी पुरुषोत्तम की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिनसे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। योगी सब की मूलभूत उस शक्ति को अपने अधिकार में लाना चाहता हैं, जिसके नियमन से वह इस सम्पूर्ण विश्व का नियमन कर सके। यदि हम भारतीय विचारधारा के इतिहास का अध्ययन करें, तो देखेंगे कि भारतीय मन सदा से सब बातों में – भौतिक विज्ञान कहिये, मनोविज्ञान कहिये, भक्तितत्त्व, दर्शन आदि सभी में एक समष्टि या व्यापक तत्त्व की इस अपूर्व खोज में लगा रहा है। अतएव भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति से प्रेम करते चले जाओ, तो तुम अनन्त काल में भी संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता हैं कि समस्त प्रेम की समष्टि ही भगवान है, संसार के मुक्त, बद्ध या मुमुक्षु सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर हैं, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। भगवान ही समष्टि हैं और यह परिदृश्यमान जगत् उन्हीं का परिच्छिन्न भाव है – उन्हीं की अभिव्यक्ति हैं। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत् को प्यार करना और उसकी भलाई करना सहज हो जाता है। पर पहले भगवत्प्रेम के द्वारा हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी-खेल नहीं है। भक्त कहता है, “सब कुछ उन्हीं का है, वे मेरे प्रियतम हैं, मैं उनसे प्रेम करता हूँ।” इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि वह सब आखिर उन्हीं का तो है। सभी उनकी सन्तान हैं, उनके अंग-स्वरूप हैं। उनके रूप हैं। तब फिर हम किसी को कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? दूसरों को बिना प्यार किये हम कैसे रह सकते हैं? भगवान के प्रति प्रेम के साथ, ही, उसके निश्चित फलस्वरूप, सर्व भूतों के भी प्रति प्रेम अवश्य आयेगा। हम भगवान के जितने समीप आते-जाते हैं, उतने ही अधिक स्पष्ट रूप से देखते हैं कि सब कुछ उन्हीं में हैं। जब जीवात्मा इस परम प्रेमानन्द का सम्भोग करने में सफल होता है, तब वह ईश्वर को सर्व भूतों में देखने लगता है। इस प्रकार हमारा हृदय प्रेम का एक अनन्त स्रोत बन जाता है। और जब हम इस प्रेम की और भी उच्चतर अवस्थाओं में पदार्पण करते हैं, तब संसार की वस्तुओं में क्षुद्र भेद की भावनाएँ हमारे हृदय से सर्वथा लुप्त हो जाती हैं। तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता, वरन् साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है; पशु में पशुरूप नहीं दिखायी पड़ता, वरन् उसमें स्वयं भगवान् ही दीख पड़ते हैं; यहाँ तक कि ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ का भी बाघरूप लुप्त हो जाता है और उसमें स्वयं भगवान प्रकाशमान दीख पड़ते हैं। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते है। “हरि को सब भूतों में अवस्थित जानकर ज्ञानी को सब के प्रति अव्याभिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए।”1 इस प्रगाढ़, सर्वगाही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों ने इसी को ‘अप्रातिकूल्य’ कहा है। ऐसे प्रेमी जीव के सामने यदि दुःख भी आये, तो वह कहेगा, “दुःख! स्वागत है तुम्हारा।” यदि कष्ट आये, तो कहेगा, “आओ कष्ट! स्वागत है तुम्हारा।” तुम भी तो मेरे प्रियतम के पास से ही आये हो।” यदि सर्प आये, तो कहेगा, “विराजो, सर्प!” यहाँ तक कि यदि मृत्यु भी आये, तो वह अधरों पर मुसकान लिये उसका स्वागत करेगा। “धन्य हूँ मैं, जो ये सब मेरे पास आते हैं; इन सब का स्वागत है।” भगवान और जो कुछ भगवान का है, उस सब के प्रति प्रगाढ़ प्रेम से उत्पन्न होनेवाली इस पूर्ण निर्भरता की अवस्था में भक्त अपने में होनेवाले सुख और दुःख का भेद भूल जाता है। दुःख-कष्ट आने पर वह तनिक भी विचलित नहीं होता। और प्रेमस्वरूप भगवान की इच्छा पर यह जो स्थिर, खेदशून्य निर्भरता है, वह तो सचमुच महान् वीरतापूर्ण क्रियाकलापों से मिलनेवाले नाम-यश की अपेक्षा कहीं अधिक वांछनीय है।
अधिकतर मनुष्यों के लिए देह ही सब कुछ है; देह ही उनकी सारी दुनिया है; दैहिक सुख-भोग ही उनका सर्वस्व है। देह और देह से सम्बन्धित वस्तुओं की उपासना करने का भूत हम सबों के सिर में घुस गया है। भले ही हम लम्बी-चौड़ी बातें करें, बड़ी ऊँची ऊँची ऊड़ाने लें, पर आखिर हैं हम गिद्धों के ही समान; हमारा मन सदा नीचे पड़े हुए सड़े-गले मांस के टुकड़े में ही पड़ा रहता है। हम शेर से अपने शरीर की रक्षा क्यों करें? हम उसे शेर को क्यों न दे दें? कम से कम उससे शेर की तो तृप्ति होगी, और यह कार्य आत्मत्याग और उपासना से कोई अधिक दूर न होगा। क्या तुम ऐसे एक भाव की उपलब्धि कर सकते हो, जिसमें स्वार्थ की तनिक भी गन्ध न हो? क्या तुम अपना अहं-भाव सम्पूर्ण रूप से नष्ट कर सकते हो? बस यही प्रेम-धर्म की सब से ऊँची चोटी है, और बहुत थोड़े लोग ही इस अवस्था में पहुँच सके हैं। पर जब तक मनुष्य इस प्रकार के आत्मत्याग के लिए सारे समय पूरे हृदय के साथ प्रस्तुत नहीं रहता, तब तक वह पूर्ण भक्त नहीं हो सकता। हम अपने इस पांचभौतिक शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक के लिए भले ही सुखपूर्वक रख लें, पर उससे क्या? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। वे धन्य हैं, जिनका शरीर दूसरों की सेवा में अर्पण हो जाता है। “एक साधु पुरुष केवल अपनी सम्पत्ति ही नहीं, वरन् अपने प्राण भी दूसरों की सेवा में उत्सर्ग कर देने के लिए सदैव उद्यत रहता है। इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर किसी नीच कार्य की अपेक्षा किसी उत्तम कार्य में ही अर्पित हो जाय।” हम भले ही अपने जीवन को पचास वर्ष, या बहुत हुआ तो सौ वर्ष तक खींच ले जायँ, पर उसके बाद? उसके बाद क्या होता है? जो कोई वस्तु मिश्रण से उत्पन्न होती है, वही फिर विश्लिष्ट होकर नष्ट हो जाती है। ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विश्लिष्ट होना ही पड़ता है। ईसा आज कहाँ रहे, बुद्ध और मुहम्मद आज कहाँ रहे? संसार के सारे महापुरुष और आचार्यगण आज इस धरती से उठ गये हैं। भक्त कहता है, “इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है, हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए।” और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग तो यह है कि वह सर्व भूतों की सेवा में लगा दिया जाय। हमारा सब से बड़ा भ्रम यह है कि हमारा यह शरीर ही हम हैं और जिस किसी प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। और यह भयानक देहात्म-बुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता की जड़ है। यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिलकुल पृथक् हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायगा, जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता के अतीत हो जाओगे। इसीलिए भक्त कहता है कि हमें ऐसा रहना चाहिए, मानो हम दुनिया की सारी चीजों के लिए मर-से गये हों। और वास्तव में यही यथार्थ आत्मसमर्पण है – यही सच्ची शरणागति है – ‘जो होने का है, हो’। यही “तेरी इच्छा पूर्ण हो” का तात्पर्य है। उसका तात्पर्य यह नहीं कि हम यत्र तत्र लड़ाई-झगड़ा करते फिरें और सारे समय यही सोचते रहें कि हमारी ये सारी कमजोरियाँ और सांसारिक आकांक्षाएँ भगवान की इच्छा से हो रही हैं। हो सकता है कि हमारे स्वार्थपूर्ण प्रयत्नों से भी कुछ भला हो जाय; पर वह भगवान देखेंगे, उसमें हमारा-तुम्हारा कोई हाथ नहीं। यथार्थ भक्त अपने लिए कभी कोई इच्छा या कार्य नहीं करता। उसके हृदय के अन्तरतम प्रवेश से तो बस यही प्रार्थना निकलती है, “प्रभो, लोग तुम्हारे नाम पर बड़े बड़े मन्दिर बनवाते हैं, बड़े बड़े दान देते हैं; पर मैं तो निर्धन हूँ; मेरे पास कुछ भी नहीं है। अतः मैं अपने इस शरीर को ही तुम्हारे श्रीचरणकमलों में समर्पित करता हूँ। मेरा परित्याग न करना, मेरे प्रभो!” जिसने एक बार इस अवस्था का आस्वादन कर लिया है, उसके लिए प्रेमास्पद भगवान के श्रीचरणों में यह चिर आत्मसमर्पण कुबेर के धन और इन्द्र के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है, नाम-यश और सुख-सम्पदा की महान् आकांक्षा से भी महत्तर है। भक्त के शान्त आत्मसमर्पण से हृदय में जो शान्ति आती है, उसकी तुलना नहीं हो सकती, वह तो बुद्धि के अगोचर है। इस अप्रातिकूल्य अवस्था की प्राप्ति होने पर उसका किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं रह जाता; और जब स्वार्थ ही नहीं, तब फिर स्वार्थ में बाधा देनेवाली भला कौनसी वस्तु संसार में रह जाती है? इस परम शरणागति की अवस्था में सब प्रकार की आसक्ति समूल नष्ट हो जाती है और रह जाती है सर्व भूतों की अन्तरात्मा और आधारस्वरूप उन भगवान के प्रति सर्वावगाहिनी प्रेमात्मिका आसक्ति। भगवान के प्रति प्रेम का यह बन्धन ही सचमुच ऐसा है, जो जीवात्मा को नहीं बाँधता, प्रत्युत उसके समस्त बन्धन छिन्न कर देता है।
- एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी।
कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥
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