चाणक्य नीति का चतुर्दश अध्याय
चाणक्य नीति का चतुर्दश अध्याय गागर में सागर की तरह है। यह अध्याय ज्ञान की बहुत-सी भिन्न-भिन्न धाराओं को छूता है। जीवन में चहुँमुखी प्रगति के लिए चाणक्य नीति का चतुर्दश अध्याय बेहद पठनीय है। अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – चाणक्य नीति।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥१॥
धरती पर तीन ही रत्न हैं जल, अन्न और मधुर वचन, किन्तु मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं । व्याख्या चाणक्य कहते हैं कि पृथ्वी पर तीन रत्न हैं जल, अन्न और सूक्तियाँ।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
दारिद्र्यरोग दुःखानि बन्धनव्यसनानिच ॥२॥
दरिद्रता, शारीरिक और मानसिक व्याधि, दुख और बंधन तथा विपत्तियाँ ये सब व्यक्ति के अपने पापरूप वृक्ष के फल हैं।
पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः ॥३॥
नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाता है, एक मित्र से मित्रता टूट जाने पर दूसरा मित्र मिल जाता है। स्त्री भी पुनः मिल जाती है, भू, सम्पत्ति, देश, राज्य फिर मिल सकते हैं, किन्तु मनुष्य का शरीर बार-बार नहीं मिलता।
बहूनां चैव सत्त्वानां रिपुञ्जयः।
वर्षान्धाराधरो मेघस्तृणैरपि निवार्यते ॥४॥
निश्चय ही बहुत से लोगों का समुदाय शत्रु को भी जीत लेता है, जैसे वर्षा की धारा को धारण करने वाला बादल तिनकों के समूह द्वारा भी रोक दिया जाता है अर्थात् घास की झोपड़ी के भीतर वर्षा का जल नहीं पहुंच पाता।
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः ॥५॥
जल में तेल, दुर्जन के पास गुप्त रहस्य, सत्पात्र को दिया गया दान और बुद्धिमान को शास्त्र का ज्ञान ये थोड़े हों तो भी वस्तु की शक्ति से स्वयं विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं।
धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत् को न मुच्येत बन्धनात् ॥६॥
धर्मस्थल में जब व्यक्ति कथामृत का पान करता . शमशान में किसी का शवदाह होते देखकर तथा किसी रोगी को छटपटाते देखकर व्यक्ति सांसारिक मोह -माया को निरर्थक मानने लगता है, परन्तु जैसे ही उस स्थान से हटता है, उसकी बुद्धि पुनः मोह-माया से ग्रस्त हो जाती है।
उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी।
तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥७॥
अशुभ कर्म करने के बाद पछताने वाले व्यक्ति को जैसी बुद्धि उत्पन्न होती है, यदि वैसी ही बुद्धि पहले उत्पन्न हो जाए, तो किसको मोक्ष की प्राप्ति न हो जाए अर्थात् सबको मोक्ष मिल जाए।
दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा ॥८॥
दान, तप, शौर्य, विनम्रता और नीतिज्ञता का कभी अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि धरती अनेक प्रकार के रत्नों से लबरेज है अर्थात् दान देने में, तपस्या आदि में एक से एक बढ़कर व्यक्ति मौजूद है।
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः।
यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः ॥९॥
जो मन में बसा हुआ है, वह दूर होने पर भी दूर नहीं है और जो मन में बसा हुआ नहीं है, वह बहुत पास होकर भी दूर ही रहता है।
यस्माच्च प्रियमिच्छेत् तस्य ब्रूयात्सदा प्रियम्।
व्याघ्रो मृगवधं गन्तुं गीतं गायति सुस्वरम् ॥१०॥
निश्चय ही जिसका अप्रिय, बुरा करने की चाहना, इच्छा हो उसके साथ हमेशा मीठा बोलना चाहिए, जैसे शिकारी हिरण का वध करने के लिए मीठे स्वर में गीत गाता है।
अत्यासन्न विनाशाय दूरस्था न फलप्रदा।
सेव्यतां मध्यभागेन राजवह्निगुरुस्त्रियः ॥११॥
राजा, अग्नि, गुरु और स्त्री इन सबका मध्यावस्था से सेवन करना चाहिए। न इनके अत्यन्त निकट रहना चाहिए और न अत्यन्त दूर रहना चाहिए, क्योंकि बहुत पास होने पर ये विनाश का कारण बन जाते हैं और दूर होने पर ये लाभ प्रदान नहीं करते।
अग्निरापः स्त्रियो मूर्खाः सर्पा राजकुलानि च।
नित्यं यत्नेन सेव्यानि सद्यः प्राणहराणि षट् ॥ १२॥
अग्रि, जल, स्त्रियाँ, मूर्ख, सर्प और राजकुल ये सदा सावधानी से सेवन करने योग्य हैं क्योंकि ये शीघ्र ही प्राणों को हरने वाले हैं।
स जीवति गुणा यस्य यस्य धर्म स जीवति।
गुण धर्म विहीनस्य जीवितं निष्प्रयोजनम् ॥१३॥
जीवित वही है जिसमें गुण विद्यमान हैं जिसके जीवन में धर्म है वही जीता है । गुण और धर्म के बिना व्यक्ति का जीना निष्फल तथा व्यर्थ है।
यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा।
परापवादशास्त्रेभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥१४॥
यदि व्यक्ति सम्पूर्ण जगत को किसी एक ही कर्म द्वारा अपने आधीन करना चाहता है तो उसे दूसरे की बुराई रूपी खेती में चरती अपनी जिह्वा को रोक लेना चाहिए।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम्।
आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः ॥१५॥
जो व्यक्ति अवसर के अनुकूल बात करता है, सामर्थ्य के अनुसार साहस का प्रदर्शन करता है तथा अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करता है, वही वास्तव में पण्डित है।
एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षति।
कुपणं कामिनी मांसं योगिभिः कामिभिः श्वभिः ॥१६॥
एक ही पदार्थ को तीन प्राणी अपनी-अपनी दृष्टि से देखते हैं स्त्री का शरीर वह पदार्थ है जिसे योगी शवरूप समझते हैं, कामियों के लिए वही सौन्दर्य का भण्डार है और कुत्तों के लिए मांस पिण्ड।
सुसिद्धमौषधं धर्मं गृहछिद्रं व मैथुनम्।
कुभुक्तं कुश्रुतं चैव मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥१७॥
बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह छः बातें पर्दे में रखे- सिद्ध की हुई औषधि, दान-जप-तप आदि धार्मिक कृत्य, घर के दोष, सम्भोग, कुभोजन तथा निन्दित वचन।
तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलश्चैव वासराः।
यावत्सर्वं जनानन्ददायिनी वाङ् न प्रवर्तते ॥१८॥
जब तक सब मनुष्यों को आनन्द प्रदान करने वाली बसन्त ऋतु आरम्भ होती है, तब तक कोयलों द्वारा अपने दिन मौन रहकर बिताए जाते हैं।
धर्मं धनं च धान्यं गुरोर्वचनमौषधम्।
संगृहीतं च कर्तव्यमन्यथा न तु जीवति ॥१९॥
धर्म का आचरण, धन का उपार्जन, नाना प्रकार के अन्नों का संचय, गुरु के वचनों का तथा विविध प्रकार की औषधियों का सेवन विधि-विधान से तथा प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए। ऐसा न करने पर निश्चय ही व्यक्ति ठीक प्रकार से जी नहीं सकता।
त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः ॥२०॥
दुष्ट मनुष्यों के साथ को त्यागकर साधु (भद्र) पुरुषों की संगति करनी चाहिए। दिन-रात पुण्य कर्म प्रारम्भ करते रहना चाहिए तथा सदैव संसार की अनित्यता को ध्यान में रखते हुए परमात्मा का स्मरण करते रहना चाहिए।
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