धर्मस्वामी विवेकानंद

ईशदूत ईसा – स्वामी विवेकानंद

Swami Vivekananda’s “Christ, the Messenger” in Hindi

स्वामी विवेकानंद ने ईसा मसीह पर यह प्रसिद्ध व्याख्यान सन् 1900 में लॉस एंजिलिस, कैलीफ़ोर्निया में दिया था। बाद में यह अंग्रेज़ी भाषा में “Christ, the Messenger” और हिंदी में “ईशदूत ईसा” नाम से पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ है।

इसमें स्वामी जी ने यीशू या ईसा मसीह के जीवन और उपदेशों की प्राच्य दृष्टिकोण से व्याख्या की है।

सागर में एक ओर जहाँ उत्तुंग तरंगों का नर्तन होता है, दूसरी ओर एक अथाह खाई भी होती है। उच्च तरंग उठती है, और विलीन होती है। फिर एक प्रबलतर तरंग उठती है, मुहूर्त मात्र में उसका पतन होता है और पुनः उत्थान भी। इसी प्रकार तरंग पर तरंग सागर के वक्ष पर अग्रसर होती रहती है। विश्व के घटनाप्रवाह में भी निरन्तर इसी प्रकार का उत्थान और पतन होता रहता है, किन्तु हमारा ध्यान केवल उत्थान की ओर जाता है, हमें पतन का विस्मरण हो जाता है। पर विश्व की गति के लिए दोनों ही आवश्यक हैं – दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। यही विश्व-प्रवाह की रीति है।

हमारे मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक जगत् में सर्वत्र यही क्रमगति, यही उत्थान पतन चल रहा है। उसी प्रकार विश्वप्रवाह में उच्चतम कार्य, उदार आदर्श समय समय पर जन्म लेते हैं और जनसमूह की दृष्टि आकर्षित कर विलीन हो जाते हैं – मानो वे अतीत के भावों का परिपाक कर रहे हों, मानो प्राचीन आदर्शों का रोमन्थन करने को वे अदृश्य हो गये हों, जिससे ये भावसमूह, ये आदर्श, समाज में अपना योग्य स्थान पा लें, समाज के एक एक अंग के रुधिरबिन्दु में उनका प्रवेश हो जाय और पुनः एक प्रबल एवं उच्चतर उत्थान के लिए वे शक्तिसंचय कर लें।

दुनिया के राष्ट्रों के इतिहास में भी यही गति दृग्गोचर होती है। इस महान् आत्मा का, इस ईशदूत ईसा का, जिसकी जीवनगाथा पर आज विवेचन किया जायगा, अपनी जाति के इतिहास के एक ऐसे युग में आविर्भाव हुआ था, जिसे पतनकाल कहने में अत्युक्ति में न होगी। उनके उपदेश और कार्यकलाप के किंचित् लिपिबद्ध विवेचनों की हमें यत्र तत्र कुछ झलक मात्र ही मिलती है। यह सच ही कहा गया है कि उस महापुरुष के उपदेश और कर्मवीरता की सब गाथाएँ यदि लिपिबद्ध की जातीं तो सारा विश्व उनसे व्याप्त हो जाता। उनके धर्मप्रचारकाल के तीन वर्षों में मानो एक पूर्ण युग की घटनाओं का एकत्र समावेश हुआ था, जिसके प्रकट होने में पूरी उन्नीस शताब्दियाँ लग गयी हैं, और न जाने और कितने वर्ष लगेंगे! मेरे और तुम्हारे जैसे क्षुद्र जन केवल क्षुद्र शक्ति के आधार हैं। कुछ क्षण, कुछ घटिकाएँ, कतिपय मास, ज्यादा से ज्यादा कुछ वर्ष, बस ये उस क्षुद्र शक्ति के व्यय के लिए, उसके पूर्ण प्रसरण और अधिकतम विकास के लिए पर्याप्त हैं; और उसके बाद हममें कुछ भी शक्ति अवशिष्ट नहीं रह जाती। किन्तु हमारे इन आलोच्य महाशक्तिधर पुरुष की ओर जरा देखिये। कई शताब्दियाँ बीत गयीं, किन्तु वे जगत् में जिस शक्ति का संचार कर गये, उसका प्रसारकार्य अभी तक रुका नहीं, उसका पूर्ण व्यय अभी तक हुआ नहीं। ज्यों ज्यों युग पर युग बीतते जा रहे हैं, त्यों त्यों वह नूतन बल से बलवती होती जा रही है।

आज हम ईसा की जीवनी में सम्पूर्ण अतीत का इतिहास देखते हैं। वैसे तो हर सामान्य मानव का जीवन भी उसके अतीत भावसमूह का इतिहास ही है। समूची जाति का यह अतीत भावसमूह प्रत्येक व्यक्ति में आनुवंशिकता, वातावरण, शिक्षा एवं पूर्व जन्म के संस्कारों द्वारा आता ही रहता है। एक प्रकार से हमारे इस जगत् की, सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड की इतिकथा हर एक जीवात्मा में विद्यमान है। हमारा आज का वर्तमान रूप उस अनन्त अतीत के एक क्षुद्र कार्य और फल के अतिरिक्त और क्या है? अनन्त घटनाप्रवाह में अनिवार्यतया अविराम रूप से अग्रसर होनेवाली, स्थिर रहने में असमर्थ, छोटी छोटी उर्मियों के अतिरिक्त हम और क्या हैं? मैं और तुम जलप्रवाह में केवल क्षुद्र बुद्बुद हैं। विश्व-व्यापार के महासागर में कुछ विशाल तरंगे रहती ही हैं। मेरे और तुम्हारे जैसे क्षुद्र जनों में अतीत के भावसमूह का अति अल्प अंश ही व्यक्त होता है। किन्तु ऐसे शक्तिसम्पन्न महापुरुष भी होते हैं, जो प्रायः सम्पूर्ण अतीत के साकाररूप होते हैं और जो मानो अपनी दीर्घ प्रसारित बाहुओं से सुदूर भविष्य की सीमाओं को भी स्पर्श करते रहते हैं। ये महापुरुष मानवजाति के उन्नतिपथ पर यत्र तत्र स्थापित मार्गदर्शक स्तम्भों के समान हैं। वे सचमुच इतने महान् हैं कि उनकी छाया मानो समस्त पृथ्वी को आच्छन्न कर लेती है; वे अमर, अनन्त और अविनाशी हैं। इसी महापुरुष ने कहा है, ‘किसी भी व्यक्ति ने ईश्वर-पुत्र के माध्यम बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है।’ और यह कथन अक्षरशः सत्य है। ईश्वरतनय के अतिरिक्त हम ईश्वर को और कहाँ देखेंगे? यह सच है कि मुझमें और तुममें, हममें से निर्धन से भी निर्धन और हीन से भी हीन व्यक्ति में भी परमेश्वर विद्यमान है, उसका प्रतिबिम्ब मौजूद है। प्रकाश की गति सर्वत्र है, उसका स्पन्दन सर्वव्यापी है, किन्तु हमें उसे देखने के लिए दीप जलाने की आवश्यकता होती है। जगत् का सर्वव्यापी ईश भी तब तक दृग्गोचर नहीं होता, जब तक ये महान् शक्तिशाली दीपक, ये ईशदूत, ये उसके सन्देशवाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने में प्रतिबिम्बित नहीं करते।

हम सब को ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास है, फिर भी हम उसे देख नहीं पाते, उसे समझ नहीं पाते। ईश्वर के इन सब महान् ज्ञानज्योतिःसम्पन्न अग्रदूतों में से आप किसी एक की ही जीवनकथा लीजिये और ईश्वर की जो उच्चतम भावना आपने हृदय में धारण की है, उससे उसके चरित्र की तुलना कीजिये। आपको प्रतीत होगा कि इन जीवित और जाज्वल्यमान आदर्श महापुरुषों के चरित्र की अपेक्षा आपकी भावनाओं का ईश्वर अनेकांश में हीन है, ईश्वर के अवतार का चरित्र आपके कल्पित ईश्वर की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च है। आदर्श के विग्रहस्वरूप इन महापुरुषों ने ईश्वर की साक्षात् उपलब्धि कर, अपने महान् जीवन का जो आदर्श, जो दृष्टान्त हमारे सम्मुख रखा है, ईश्वरत्व की उससे उच्च भावना धारण करना असम्भव है। इसलिए यदि कोई इनकी ईश्वर के समान अर्चना करने लगे, तो इसमें क्या अनौचित्य है? इन नर-नारायणों के चरणाम्बुजों में लुण्ठित हो यदि कोई उनकी भूमि पर अवतीर्ण ईश्वर के समान पूजा करने लगे तो क्या पाप है? यदि उनका जीवन हमारे ईश्वरत्व के उच्चतम आदर्श से भी उच्च है, तो उनकी पूजा करने में क्या दोष? दोष की बात तो दूर रही, ईश्वरोपासना की केवल यही एक विधि सम्भव है। आप कितना ही प्रयत्न करें, पुनः पुनः सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों पर मनन करें, पर जब तक आप इस मानवजगत् में, मानवदेह में अवस्थित हैं, नरभावापन्न हैं, तब तक आपका विश्व मानवी होगा, आपका धर्म मानवी होगा और आपका ईश्वर भी मानवी होगा। उसका अन्यथा होना असम्भव है। कौन इतना निर्बुद्धि है, जो प्रत्यक्ष साक्षात् वस्तु का ग्रहण न कर, कल्पनाओं के पीछे दौड़ता फिरेगा, उन भावनाओं के साक्षात्कार के लिए खाक छानता फिरेगा, जिनकी धारणा करना भी कठिन है और जिन तक किसी स्थूल माध्यम की सहायता बिना पहुँचना सर्वथा असम्भव है? इसीलिए ईश्वर के इन अवतारों की सभी युगों एवं सभी देशों में पूजा होती रही है।

अब हम यहूदियों के पैगम्बर, ईसा मसीह के जीवन का कुछ विवेचन करेंगे। विविध जातियों के इतिहास में हमें उत्थान और पतन का क्रम दृष्टिगत होता है। ईसा का जन्म एक ऐसे युग में हुआ, जिसे हम यहूदी जाति का पतनकाल कह सकते हैं – एक ऐसा युग, जब व्यक्तियों की विचारशक्ति कुछ शिथिल हो जाती है और वे अतीत के सपनों के नीड़ में विश्राम करने लगते हैं, जीवनप्रवाह स्थिर होकर उसमें बदबू पैदा होने लगती है, विचार संकुचित होने लगते हैं, जीवन एवं जगत् की महान् समस्याएँ दृष्टि से ओझल हो जाती हैं और जाति ने पूर्वकाल में जो उपार्जित किया है, उसी का वह क्लान्त होकर चर्वण और रक्षण करती रहती है। सारांश में, यह अवस्था दो तरंगों के उत्थान के बीच की पतनावस्था के समान ही थी। ध्यान रहे कि मैं इस अवस्था में कोई दोष नहीं देखता। हमें इसकी निन्दा करने का कोई अधिकार नहीं; क्योंकि यदि यहूदी जाति के इतिहास में यह अवस्था न आती, तो इसके परवर्ती उत्थान की – जिसके कि नाजरथवासी ईसा मूर्तस्वरूप थे – कोई सम्भावना न रहती। भले ही फैरिसी1 एवं सैड्युसी लोग कपटशील रहे हों, अनैतिक एवं अधर्माचारी रहे हों, ऐसे कार्यों में रत रहे हों जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे, किन्तु उनके इन्हीं कार्यों की फलोत्पत्ति ईसा का महान् व दिव्य जीवन है। जिस शक्ति को एक छोर पर फैरिसी और सैड्युसी2 लोगों ने गति प्रदान की, वही दूसरे छोर पर नाजरथ-निवासी महामनीषी ईसा के रूप में प्रकट हुई।

कई बार बाह्य धार्मिक क्रियाकलापों, रीतियों तथा छोटे छोटे विवरणों का उपहास किया जाता है, किन्तु उनमें धर्मजीवन की शक्ति निहित रहती है। कई बार प्रगतिपथ पर अग्रसर होने के लिए जल्दबाजी करने से हम अपनी धर्मशक्ति खो बैठते हैं। देखा जाता है कि साधारणतः उदारमना व्यक्ति की अपेक्षा धर्मान्ध व्यक्ति का मनोबल अधिक होता है। इसलिए धर्मान्ध पुरुष में भी एक बड़ा गुण है। वह अपने में मानो महान् शक्तिराशि संचित रखता है।

व्यक्ति के समान जाति में भी इसी प्रकार शक्तिसंचय होता है। चारों ओर बाह्य शत्रुओं से घिरी हुई, रोमन जाति के पराक्रम से प्रताड़ित हो एक केन्द्र में सन्निबद्ध बौद्धिक जगत् में यूनानी भावसमूह द्वारा तथा फारस, भारत एवं अलेक्जान्ड्रिया से आनेवाली भावलहरियों से विताड़ित यह जाति प्रबल मानसिक, शारीरिक एवं नैतिक शक्तियों से परिवेष्टित होने के कारण प्रचण्ड स्वाभाविक एवं स्थितिशील शक्ति का आगार हो गयी, जो अब भी उसके वंशधरों में लुप्त नहीं हुई है। बाध्य होकर इस जाति को अपनी सम्पूर्ण शक्ति जेरूसलेम और यहूदी धर्म पर केन्द्रित करनी पड़ी, और शक्ति की यह प्रकृति है कि एक बार संचित होने पर फिर वह एक स्थान में अधिक समय तक नहीं रह सकती; वह अपना प्रसार कर अपने को निःशेष करने लगती है। पृथ्वी में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो दीर्घकाल तक एक सीमित स्थान में बन्दी बनायी जा सके। यह कहकर कि सुदूर भविष्य में उसका प्रसार हो जायगा, उसे एक स्थान में अति दीर्घ काल तक संकुचित कर रखना असम्भव है। यहूदी जाति की यह केन्द्रित शक्ति भी परवर्ती युग में ईसाई धर्म उत्थान के रूप में प्रकट हुई। विभिन्न दिशाओं से आनेवाले क्षुद्र स्रोतों ने मिल-मिलकर एक स्रोतस्वती का निर्माण किया और क्रमशः उन्होंने एक तरंगशालिनी, वेगवती महानदी का रूप धारण कर लिया। इसी विशाल प्रवाह की उच्च तरंग के शिखर पर हम नाजरथनिवासी ईसा को अधिष्ठित पाते हैं। इस प्रकार, सभी महापुरुष अपने युग के घटनाचक्र के फल या कार्य-स्वरूप हैं, उनकी जाति का अतीत ही उनका निर्माण करता है, किन्तु वे स्वयं अपनी जाति के भविष्य का सृजन करते हैं। आज का कार्य अपने पूर्ववर्ती कारणसमूह का फल और भावी कार्य का कारण है। हमारे आलोच्य महापुरुष पर भी यही सिद्धान्त घटता है। ईशदूत ईसा मसीह उस सब के साकारस्वरूप हैं, जो उनकी जाति में श्रेष्ठ और उच्च है, जाति के उस जीवनोद्देश्य के मूर्तरूप हैं, जिसकी सिद्धि के लिए जाति ने शत शत युगों तक संघर्ष किया है, और वे स्वयं केवल अपनी ही जाति के नहीं, अपितु असंख्य जातियों के भावी जीवन के शक्तिस्रोत हैं।

और एक बात हमें यहाँ स्मरण रखनी चाहिए: इस महान् पैगम्बर पर मेरा विवेचन प्राच्य दृष्टिकोण से होगा। कई बार आप भी यह भूल जाते हैं कि ईसा प्राच्यदेशीय थे। ईसा को नील चक्षुओं और पीत केशों के साथ चित्रित करने के आपके प्रयत्नों के बावजूद भी ईसा की प्राच्यदेशीयता में कोई अन्तर नहीं आता। बाइबिल में प्रयुक्त उपमा एवं रूपक, उसमें वर्णित स्थान एवं दृश्य, उसका दृष्टिकोण, उसके रहस्यमय काव्य एवं चरितचित्रण, उसके प्रतीक, ये सब प्राच्य का ही हो तो संकेत करते हैं। उसमें वर्णित नीला चमकीला आकाश, ग्रीष्म का उत्ताप, प्रखर रवि, तृषार्त नरनारी एवं खगमृग, सिर पर घड़े ले जल भरने कुओं पर जाते हुए नरनारीगण, किसान, मेषपाल एवं कृषिकार्य, पनचक्की एवं उसके समीपवर्ती सरोवरादि – ये सब केवल एशिया ही में दिखायी पड़ते हैं।

एशिया की आवाज़ सदैव धर्म की आवाज़ रही है और यूरोप सदैव राजनीति की भाषा बोलता रहा है। अपने अपने क्षेत्र में दोनों ही महान् हैं। यूरोप की यह बोली प्राचीन यूनानी विचारों की प्रतिध्वनि मात्र है। यूनानी अपने समाज को ही सर्वस्व और सर्वोच्च मानते थे। उनकी दृष्टि में अन्य सब बर्बर और असभ्य थे, उनके सिवाय इतरों को जीवित रहने का अधिकार नहीं था। उनके मत में वे स्वयं जो करते थे, वही कर्तव्य था, वही श्रेष्ठ था; संसार में अन्य जो कुछ है, वह गलत है और उसको नष्ट कर देना चाहिए। उनकी सहानुभूति मानवजाति में एकान्त सीमाबद्ध है, अत्यन्त स्वाभाविक है और इसलिए उनकी सभ्यता कला-कौशलमय है। यूनानी मस्तिष्क सम्पूर्णतया इहलोक का चिन्तन करता है, उसी में निवास करता है। इस संसार से बाहर के किसी भी विषय का विचार उसके मन में कभी भी नहीं आता, उसका काव्य भी इसी व्यावहारिक जगत् से प्रेरणा पाता है। उसके देवी-देवता भी मानवरूप, मानव-प्रकृतिपूर्ण हैं और मानवों के साधारण सुख-दुःख से उत्पन्न नाना प्रकार के आवेगों का अनुभव करनेवाले हैं।

यूनानी को सौन्दर्य से प्यार है, पर वह ऐहिक सौन्दर्य है – प्रकृति की रमणीकता है। उसकी सौन्दर्योपासना केवल शैलराजि, शुभ्र हिमराशि, पुष्पों के सौन्दर्य, बाह्य अवयवों व आकृतियों के सौन्दर्य, मानवी मुख व उसकी सुघड़ता और सुडौलता के सौन्दर्य तक ही सीमित है। यही यूनान परवर्ती यूरोप का आचार्य था, और इसीलिए आज के यूरोप की वाणी यूनान की वाणी की एक प्रतिध्वनि मात्र है।

एशिया की आवाज़ इससे भिन्न है। एशियावासियों की प्रकृति कुछ और है। उस प्रकाण्ड भूमिखण्ड, उस विशाल महादेश की जरा कल्पना तो कीजिये, जिसके अभ्रंकष शैलशिखर बादलों को चीरकर आकाश की निलिमा को चूमते रहते हैं; जिसके अंक में एक ओर अनन्त बालुकाराशि सोयी पड़ी है, जिसमें एक बूँद भी पानी मिलना असम्भव है, कोसों तक एक हरिततृण के दर्शन होना भी दुर्लभ है, और दूसरी ओर भूमि किसी असूर्यम्पश्या राजकन्यका की भाँति हरित-वनराजि का अनन्त अवगुण्ठन धारण किये है, जहाँ विशाल वेगवती महानदियाँ अठखेलियाँ करती समुद्र की ओर बह जाती हैं। चतुर्दिक प्राकृतिक सौन्दर्य से परिवेष्टित एशियावासियों का सौन्दर्य एवं महानता के प्रति प्रेम बिलकुल भिन्न दिशा में प्रवाहित हुआ। बहिर्दृष्टि त्यागकर वे अन्तर्दृष्टिपरायण हो गये। उनमें भी प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए वही पिपासा है, शक्ति के लिए वही भूख है। यूनानियों के समान उनमें भी इतरों को असभ्य एवं बर्बर समझने की प्रवृत्ति है, उन्नति की आकांक्षा है, किन्तु उनके इन भावों की परिधि विशाल और विस्तृत है। एशिया में आज भी जन्म, वर्ण या भाषा के भेद पर जातियों का संघटन आधारित नहीं है। जातियाँ धर्म पर आधारित हैं। इस प्रकार सब ईसाइयों की जाति एक होगी, सब मुसलमान एक ही जाति के होंगे और इसी प्रकार सब बौद्ध एवं हिन्दू भी एक एक जाति के होंगे। चीननिवासी एक बौद्ध फ़ारस में रहने वाले दूसरे बौद्ध को अपना भाई मानता है, अपनी ही जाति का अंग समझता है – केवल इसीलिए कि उन दोनों का धर्म एक है। धर्म ही मानवजाति को एक सूत्र में बाँधता है, वही एक सम्मिलनभूमि है, जहाँ विविध देशों के लोग अपने भेदभाव भूलकर परस्पर गले लगते हैं। और फिर इसी कारण एशियावासी, ये प्राची के निवासी जन्मजात स्वप्नद्रष्टा होते हैं, स्थूल जगत् की अपेक्षा उसके परे किसी सूक्ष्म जगत् का चिन्तन करना अधिक पसन्द करते हैं। जलप्रपातों पर नाचती हुई लहरियाँ, खगकुल का कलरव, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र-तारा-ग्रह-संकुला रात्रि, निसर्ग आदि का सौन्दर्य उन्हें मनोरम प्रतीत होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु प्राच्य मन के लिए यह पर्याप्त नहीं है। वह वर्तमान और इहलोक के धरातल को छोड़, किसी अतीत के सपनों का सृजन करता है, किसी अतीन्द्रिय सौन्दर्य को खोलता है। वर्तमान, प्रत्यक्ष और दृश्य जगत् मानो उसके लिए कुछ है ही नहीं। युगों से प्राची कई जातियों के जीवन का रंगमंच रही है, उसने न मालूम नियतिचक्र के कितने परिवर्तन देखे हैं। उसने एक राज्य के बाद दूसरे राज्य को, एक साम्राज्य के बाद दूसरे साम्राज्य को अभ्युदित होते, उठते और फिर गिरकर मिट्टी में मिलते देखा है; मानवीय शक्ति, प्रभुत्व, ऐश्वर्य और धनराशि को अपने कदमों में लुढ़कते और निछावर होते देखा है। अनन्त विद्या, असीम शक्ति तथा अनेकानेक साम्राज्यों की विशाल समाधिभूमि – यह है प्राच्य भूमि का परिचय। कोई आश्चर्य नहीं, यदि प्राची के निवासी इहलोक की वस्तुओं को तिरस्कार के साथ देखें और स्वभावतः किसी ऐसी वस्तु के दर्शन की चिर अभिलाषा उनके हृदय में अंकुरित हो जाय, जो अपरिवर्तनशील हो, जो अविनाशी हो, जो इस विनाशशील एवं दुःखपूर्ण जगत् में अमर एवं नित्य आनन्दपूर्ण हो। प्राची के महापुरुष इन आदर्शों की घोषणा करते कभी नहीं थकते – और जहाँ तक महापुरुषों एवं अवतारों का प्रश्न है, आपको स्मरण होगा कि उनमें से सभी, बिना किसी अपवाद के, प्राच्यदेशीय हैं।

इसलिए हम अपने आलोच्य महापुरुष, जीवन के इस दिव्यसन्देशवाहक के जीवन का मूलमन्त्र यही पाते हैं कि “यह जीवन कुछ नहीं है, इससे भी उच्च कुछ और है।” और इस इन्द्रियातीत तत्त्व को अपने जीवन में परिणत कर उसने यह परिचय दिया है कि वह प्राची का सच्चा पुत्र है। पाश्चात्य देशों के निवासी भी अपने कार्यक्षेत्र में – सामरिक, राजनीतिक आदि कार्यों के संचालन में अपनी दक्षता एवं व्यावहारिकता का परिचय देते हैं। शायद, पूर्व का निवासी इन सब कार्यों में इतना कर्तृत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु अपने निज के क्षेत्र में वह भी कार्यदक्ष है – अपने जीवन को अपने धर्म पर आधारित करने में उसने भी अपनी व्यवहार-कुशलता दिखायी है। यदि वह आज किसी दर्शन का प्रचार करता है, तो देखा जायगा कि कल ही सैकड़ों नर-नारी अपने जीवन में उसकी उपलब्धि करने का जी-तोड़ प्रयत्न कर रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति उपदेश करता है कि एक पैर पर खड़े रहने से मुक्ति सम्भव है, तो उसे अल्पकाल में ही एक पैर पर खड़े रहनेवाले सैकड़ों अनुयायी मिल जाएँगे। शायद आप इसे हास्यास्पद समझते हों, किन्तु आप यह स्मरण रखें कि इनके पीछे उनके जीवन का यह मूलमन्त्र, उनका यह दर्शन विद्यमान है कि धर्म केवल विचार एवं मनन की वस्तु नहीं, जीवन में उसकी उपलब्धि एवं परिणति की जानी चाहिए। पाश्चात्य देशों में मुक्ति के जो विविध उपाय निर्दिष्ट किये जाते हैं, वे केवल बौद्धिक कलाबाजियाँ मात्र हैं और कभी भी उन्हें कार्यरूप में परिणत करने का प्रयत्न नहीं किया जाता। पश्चिम में जो प्रचारक अच्छा वक्ता है, वही श्रेष्ठ धर्मोपदेष्टा मान लिया जाता है।

अतएव, हम देखते हैं कि प्रथमतः नाजरथ-निवासी ईसा पूर्व की सच्ची सन्तान थे – धर्म के क्षेत्र में अत्यन्त व्यावहारिक थे। उन्हें इस नश्वर जगत् एवं उसके क्षणभंगुर ऐश्वर्य में विश्वास नहीं था। शास्त्रवाक्यों को तोड़-मरोड़कर व्याख्या करने की, जो कि आजकल पाश्चात्य देशों में प्रथा-सी हो गयी है, कोई आवश्यकता नहीं। शास्त्रवाक्य कोई रबर से लचीले नहीं हैं कि उन्हें जिधर चाहो उधर खींच लो और मरोड़ लो। और फिर खींचने-मरोड़ने की भी तो सीमा है! शास्त्रों का जो अर्थ नहीं है, वह कितनी भी खींचातानी करने पर भी कैसे निकलेगा? धर्म को वर्तमानकालीन इन्द्रिय-सर्वस्वता का समर्थक बनाना बन्द कर देना चाहिए। कम से कम हमें अपने प्रति तो सच्चे एवं अकपटी बनने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि हम आदर्श का अनुगमन नहीं कर सकते, तो अपनी दुर्बलता स्वीकार कर लें, पर उसे हीन न बनायें, उसे अपने उच्च धरातल से न गिरायें।

पश्चिम के लोग, ईसा के चरित्र पर जो नित्य नये नये और विभिन्न विवेचन प्रकाशित कर रहे हैं, उनसे हृदय अवसन्न हो जाता है। इन वर्णनों से इस बात का लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होता कि ईसा क्या थे और क्या नहीं। एक उन्हें महान् राजनीतिज्ञ बताता है, तो दूसरा कहता है, ईसा एक बड़े युद्धविशारद सेनापति थे और तीसरा कहता है, वे एक देशभक्त यहूदी थे। इन सब धारणाओं के लिए क्या इन पुस्तकों में कोई आधार है? एक श्रेष्ठ धर्माचार्य के जीवन और उपदेशों पर सर्वश्रेष्ठ भाष्य उसका निज का जीवन ही है। स्वयं ईसा ने अपने विषय में कहा है : “लोमड़ियों और शृगालों के एक एक माँद होती है, नभचारी खगकुल अपने नीड़ में निवास करते हैं, पर मानवपुत्र (ईसा) के पास अपना सिर टेकने तक के लिए कोई स्थान नहीं है।” ईसा स्वयं त्यागी और वैराग्यवान थे, इसलिए उनकी शिक्षा भी यही है कि वैराग्य और त्याग ही मुक्ति का एकमेव मार्ग है, इसके अतिरिक्त मुक्ति का और कोई पथ नहीं है। यदि हममें इस मार्ग पर अग्रसर होने की क्षमता नहीं है, तो हमें मुख में तृण धारण कर विनीत भाव से अपनी यह दुर्बलता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि हममें अब भी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के प्रति ममत्व है, हममें धन और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति है। हमें धिक्कार है कि हम यह सब स्वीकार न कर, मानवजाति के उन महान् आचार्य का अन्यरूप से वर्णन कर उन्हें निम्नस्तर पर खींच लाने की चेष्टा करते हैं। उन्हें पारिवारिक बन्धन नहीं जकड़ सके, क्या आप सोचते हैं कि ईसा के मन में कोई सांसारिक भाव था? क्या आप सोचते हैं कि यह ज्ञानज्योतिःस्वरूप अमानवी मानव, यह प्रत्यक्ष ईश्वर पृथ्वी पर पशुओं का समधर्मी बनने के लिए अवतीर्ण हुआ? किन्तु फिर भी लोग उनके उपदेशों का अपनी इच्छानुसार व्यर्थ लगाकर प्रचार करते हैं। उन्हें देहज्ञान नहीं था, उनमें स्त्री-पुरुष भेदबुद्धि नहीं थी – वे अपने को लिंगोपाधिरहित आत्मास्वरूप जानते थे। वे जानते थे कि वे शुद्ध आत्मस्वरूप हैं – देह में अवस्थित हो मानवजाति के कल्याण के लिए देह का परिचालन मात्र कर रहे हैं। देह के साथ उनका केवल इतना ही सम्पर्क था। आत्मा लिंगविहीन है। विदेह आत्मा का देह एवं पाशवभाव से कोई सम्बन्ध नहीं होता। अवश्यमेव त्याग और वैराग्य का यह आदर्श साधारणजनों की पहुँच के बाहर है। कोई हर्ज नहीं, हमें अपना आदर्श विस्मृत नहीं कर देना चाहिए – उसकी प्राप्ति के लिए सतत यत्नशील रहना चाहिए। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि त्याग हमारे जीवन का आदर्श है किन्तु अभी तक हम उस तक पहुँचने में असमर्थ हैं।

मैं शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा हूँ, इस तत्त्व की उपलब्धि के अतिरिक्त ईसा के जीवन में अन्य कोई कार्य न था, और कौई चिन्ता न थी। वे वास्तव में विदेह, शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मास्वरूप थे। यही नहीं, उन्होंने अपनी अद्भुत दिव्य दृष्टि से जान लिया था कि सभी नर-नारी, चाहे वे यहूदी हों या किसी अन्य इतर जाति के हों, दरित्र हों या धनवान, साधु हों या पापात्मा, उनके ही समान अविनाशी आत्मास्वरूप हैं। इसलिए उनके जीवन में हम एकमात्र यही कार्य देखते हैं कि वे सारी मानवजाति को अपने शुद्ध-बुद्ध-चैतन्यस्वरूप की उपलब्धि करने के लिए आह्वान कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “यह कुसंस्कारमय मिथ्या भावना छोड़ दो कि हम दीनहीन हैं। यह न सोचो कि तुम पर गुलामों के समान अत्याचार किया जा रहा है, तुम पैरों तले रौंदे जा रहे हों, क्योंकि तुममें एक ऐसा तत्त्व विद्यमान है, जिसे पददलित एवं पीड़ित नहीं किया जा सकता, जिसका विनाश नहीं हो सकता।” तुम सब ईश्वर के पुत्र हो, अमर और अनादि हो। अपनी महान् वाणी से ईसा ने जगत् में घोषणा की, “दुनिया के लोगो, इस बात को भलीभाँति जान लो कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे अभ्यन्तर में अवस्थित है।” – “मैं और मेरे पिता अभिन्न हैं।” साहस कर खड़े हो जाओ और घोषणा करो कि मैं केवल ईश्वर-तनय ही नहीं हूँ, पर अपने हृदय में मुझे यह भी प्रतीति हो रही है कि मैं और मेरे पिता एक और अभिन्न हैं। नाजरथवासी ईसा मसीह ने यही कहा। उन्होंने इस संसार और इस देह के सम्बन्ध में कभी कुछ न कहा। जगत् के साथ उनका कुछ भी सम्बन्ध न था – उसके साथ सम्पर्क केवल इतना ही था कि वे उसे प्रगतिपथ पर कुछ आगे की ओर बढ़ा देंगे – और धीरे धीरे तब तक अग्रसर करते रहेंगे, जब तक कि समग्र जगत् उस परम ज्योतिर्मय परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच जाता, जब तक कि प्रत्येक मानव अपने प्रकृत स्वरूप की उपलब्धि नहीं कर लेता, जब तक कि दुःख, कष्ट एवं मृत्यु जगत् से सम्पूर्ण रूप से निर्वासित नहीं हो जाती।

ईसा के जीवन पर लिखी गयी विभिन्न परस्पर विरोधी आख्यायिकाएँ हमने पढ़ी हैं। उनकी जीवनी के समालोचक विद्वज्जनों, उनकी ग्रन्थावलियों तथा ‘उच्चतर भाष्यादि’3 से भी हमारा परिचय है। इन सब आलोचनाओं द्वारा क्या सम्पादित किया गया है इससे भी हम अज्ञ नहीं हैं। हमें यहाँ इस विवाद में नहीं पड़ना है कि बाइबिल के न्यू टेस्टामेन्ट का कितना अंश सत्य है, अथवा उसमें वर्णित ईसा मसीह का जीवनचरित्र कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य पर आधारित है। ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक न्यू टेस्टामेन्ट लिखा जा चुका था या नहीं, अथवा ईसा के जीवन-चरित्र में कितना सत्यांश है, इससे भी हमें कोई प्रयोजन नहीं। किन्तु इन सब लेखों का आधार एक ऐसी वस्तु है, जो अवश्य सत्य है, अनुकरणीय है। मिथ्या प्रलाप करने के लिए भी हमें किसी सत्य की नकल करनी पड़ती है, और सत्य सदैव वास्तविक ही होता है। जिसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था, उसका अनुकरण भी कैसा? जिसे किसी ने कभी देखा नहीं, उसकी नकल कैसे हो सकती है? इसलिए यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि बाइबिल की कथाएँ कितनी ही अतिरंजित, अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों न हों, उस कल्पना का अवश्य कोई आधार था – निश्चित ही उस युग में, जगत् में किसी महाशक्ति का आविर्भाव हुआ था, किसी महान् आध्यात्मिक शक्ति का अपूर्व विकास हुआ था – और उसी की आज हम चर्चा कर रहे हैं। उस महाशक्ति के अस्तित्व में जब हमें कोई सन्देह नहीं है, तब हमें पण्डितवर्ग द्वारा की गयी आलोचनाओं का क्या भय? यदि एक प्राच्यदेशीय के रूप में मैं नाजरथनिवासी ईसा की उपासना करूँ, तो मेरे लिए ऐसा करने की केवल एक ही विधि है – और वह है उनकी ईश्वर के समान आराधना करना। उनकी अर्चना की और कोई विधि मैं नहीं जानता। क्या आप कहते हैं कि हमें इस प्रकार उनकी उपासना करने का अधिकार नहीं है? यदि हम ईसा को अपने ही हीन धरातल पर आसीन कर, उन्हें केवल एक महान् व्यक्ति मान उनके प्रति कुछ सम्मान प्रदर्शित करने में ही अपने कर्तव्य की इति-श्री मान लेते हैं, तो फिर उपासना का प्रयोजन ही क्या रह गया? हमारे शास्त्र कहते हैं, “ये अनन्तज्योति के पुत्र – जिनमें ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित है, जो स्वयं ब्रह्मज्योति-स्वरूप हैं – आराधित किये जाने पर हमारे साथ तादात्म्यभाव प्राप्त कर लेते हैं और हम भी उनके साथ एकत्व स्थापित कर लेते हैं।” हम देखते हैं कि मनुष्य तीन प्रकार से ईश्वरोपलब्धि कर सकते हैं। प्रथमावस्था में अविकसित मनुष्य की अपरिपक्व बुद्धि कल्पना करती है कि ईश्वर आकाश में बहुत ऊँचे, किसी स्वर्ग नामक स्थान में सिंहासनासीन हो न्यायाधीश की भाँति पाप-पुण्य का निर्णय करता है। लोग उसका ‘महद्भयं वज्रमुद्यतं’ के रूप में दर्शन करते हैं। ईश्वर की एवंविध भावना में भी कोई बुराई नहीं है। आपको यह स्मरण रखना चाहिए कि मानवजाति की गति सदैव एक सत्य से दूसरे सत्य की ओर रही है; असत्य से – भ्रम से – सत्य एवं यथार्थ की ओर नहीं; या यदि आप इसी भाव को अन्य शब्दों में व्यक्त करना पसन्द करें, तो मानवजाति निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर प्रयाण करती है, असत्य से सत्य की ओर नहीं। कल्पना कीजिये कि आप एक सरल रेखा में पृथ्वी से सूर्य की ओर जा रहे हैं। प्रथमतः आपको सूर्य एक लघु बिम्ब के समान दृष्टिगत होगा। किन्तु कई लक्ष कोस प्रयाण करने पर सूर्य का आकार दीर्घ से दीर्घतर होता जायगा। ज्यों ज्यों हम अग्रसर होते रहेंगे, त्यों त्यों सूर्य अधिकाधिक दीर्घाकार दिखने लगेगा। अब यदि यात्रा की भिन्न भिन्न अवस्थाओं से आप सूर्य के बीस हजार छायाचित्र लें, तो वे अवश्य ही एक दूसरे से भिन्न होंगे। किन्तु क्या आप यह नहीं कहेंगे कि वे एक ही वस्तु – एक ही सूर्य के छायाचित्र हैं? इसी प्रकार भिन्न भिन्न धर्म, चाहे वे उच्चतर हों या निम्नतर, उस अनन्तज्योतिर्मय परमेश्वर की ओर मानव के प्रयाण की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। उनमें केवल यही भेद है कि किसी में ईश्वर की निम्नतर धारणा की गयी है और किसी में उच्चतर। इसलिए संसार की अविकसित बुद्धियुक्त साधारण जातियों के धर्मों में सदैव ही एक ऐसे ईश्वर की कल्पना की गयी है, जो भौतिक विश्व की परिधि के बाहर, स्वर्ग नामक स्थान में निवास करता है, वहीं से संसारचक्र की गतिविधि पर नियन्त्रण करता है, और पापपुण्य का न्याय कर मनुष्यों को दण्ड एवं पुरस्कार वितरित करता है। ज्यों ज्यों मनुष्य आध्यात्मिक प्रगति करता गया, त्यों त्यों उसे यह प्रतीत होने लगा कि ईश्वर सर्वव्यापी है, सारे अग-जग, सर्व चराचर में वह प्रकाशित हो रहा है, उसमें स्वयं में भी उसी ईश्वर का निवास है। उसे अनुभव होने लगा कि ईश्वर सब आत्माओं की अन्तरात्मा है और उससे दूर अवस्थित नहीं है। जिस प्रकार मेरी आत्मा मेरे शरीर का परिचालन करती है, वैसे ही ईश्वर मेरी आत्मा का संचालन करता है, मेरी आत्मा में विद्यमान अन्तरात्मा है। कतिपय व्यक्तियों ने अपनी चिन्तनशशक्ति द्वारा, अपनी साधना की सहायता से इतनी चित्तशुद्धि प्राप्त कर ली, इतनी प्रगति कर ली कि वे पूर्वोक्त धारणा का अतिक्रमण कर, स्वयं ईश्वर की उपलब्धि करने में सफल हो गये। जैसा कि न्यू टेस्टामेन्ट में कहा गया है, “ये शुद्धहृदय व्यक्ति धन्य हैं, क्योंकि इन्हें परमेश्वर के दर्शन हो सकेंगे।” और उन्हें अन्त में इस तत्त्व की उपलब्धि हो सकी कि वे और उनके पिता एक हैं।

आप देखेंगे कि न्यू टेस्टामेन्ट में मानवजाति के उस महान् आचार्य ने भी ईश्वरप्राप्ति की इस सोपान-त्रयी की ही शिक्षा दी है। उन्होंने जिस सार्वजनिक प्रार्थना (Common Prayer) की शिक्षा दी है, उसकी ओर लक्ष्य कीजिये : “हे मेरे स्वर्गनिवासी पिता, तेरे नाम का जय-जयकार हो” इत्यादि। यह सरल भावनायुक्त प्रार्थना है, एक शिशु की प्रार्थना जैसी है। देखिये, यह साधारण सार्वजनिक प्रार्थना है, क्योंकि यह अशिक्षित जनसाधारण के लिए है। अपेक्षाकृत उच्चतर व्यक्तियों के लिए, जो साधनामार्ग में किंचित् अधिक अग्रसर हो गये थे, ईसा ने अपेक्षाकृत उच्च साधना का उपदेश दिया है: “मैं अपने पिता में वर्तमान हूँ, तुम मुझमें वर्तमान हो और मैं तुममें वर्तमान हूँ।” क्या तुम्हें याद है यह? और फिर जब यहूदियों ने ईसा से पूछा था, “तुम कौन हो?” – तो ईसा ने अपनी महान् वाणी में घोषणा की, “मैं और मेरे पिता एक हैं।” यहूदियों ने सोचा, यह धर्म की घोर निन्दा है, भगवान का घोर अपमान है। पर ईसा के कथन का अर्थ क्या था? यह भी तुम्हारे पैगम्बरगण स्पष्ट कर गये हैं : “तुम सब देव या ईश्वर हो – तुम सब उस परात्पर पुरुष की सन्तान हो।” देखिये, बाइबिल में भी इस त्रिविध सोपान का उपदेश है। आप यह भी देखेंगे कि प्रथमावस्था से आरम्भ करके धीरे धीरे अन्तिम अवस्था में आरोहण करना अपेक्षाकृत अधिक सरल और स्वाभाविक है।

ईश्वर के अग्रदूत, दैवी सन्देशवाहक ईसा सत्योपलब्धि का मार्ग प्रदर्शित करने अवतीर्ण हुए थे। वे हमें बताने आये थे कि नानाविध धार्मिक क्रियाकलाप, अनुष्ठानादि से आत्मतत्त्व प्राप्त नहीं किया जा सकता, गूढ दार्शनिक तर्क-वितर्कों से आत्मतत्त्व की उपलब्धि नहीं होती। अच्छा होता यदि तुम कोई पुस्तक न पढ़ते, अच्छा होता यदि तुम विद्याहीन होते। मुक्ति के लिए इन उपकरणों की आवश्यकता नहीं है, उसके लिए धन, ऐश्वर्य और उच्च पद की जरूरत नहीं, यहाँ तक कि पाण्डित्य की भी आवश्यकता नहीं। उसके लिए केवल एक वस्तु की आवश्यकता है – और वह है शुद्धता। “शुद्धहृदय पुरुष धन्य हैं”, क्योंकि आत्मा स्वयं शुद्ध है, वह अन्यथा अर्थात् अशुद्ध हो भी कैसे सकती है? ईश्वर से ही उसका आविर्भाव हुआ है, वह ईश्वर-प्रसूत है। बाइबिल के शब्दों में वह “ईश्वर का निःश्वास है।” कुरान की भाषा में “वह ईश्वर की आत्मास्वरूप है।” क्या आप कहना चाहते हैं कि ईश्वरात्मा कभी अशुद्ध हो सकती है? किन्तु दुर्भाग्य से हमारे शुभाशुभ कार्यों के कारण वह मानो सदियों के मैल, सैकड़ों वर्षों की अशुद्धि और धूलि से आवृत है; हमारे नानाविध दुष्कर्म, नानाविध अन्याय कार्य शत शत वर्षों से अज्ञानरूपी धूलि और मलिनता द्वारा उसके प्रकाश को मन्द कर रहे हैं। केवल इस धूलि और मैल की तह को उस पर से पोंछने भर की देर है कि आत्मा पुनः अपनी उज्ज्वल व दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो जायगी। “शुद्धहृदय व्यक्ति धन्य हैं, क्योंकि वे ईशदर्शन करेंगे।” “महान् स्वर्गराज्य तुम्हारे ही अन्तर में विराजमान है।” और इसीलिए नाजरथ का यह महान् पैगम्बर पूछता है, “जब स्वर्ग तुम्हारे अन्तर में विराजमान है, तो उसे ढूँढ़ने अन्यत्र कहाँ जा रहे हो? अपनी आत्मा को माँज-पोंछकर साफ करो, मलिनता का अपसारण करो, अवश्य तुम्हें अपनी ही आत्मा में वह विशाल स्वर्गराज्य दृष्टिगत होगा। वह तो पहले से ही तुम्हारी सम्पत्ति है। यदि उस पर तुम्हारा स्वत्व नहीं है, तो तुम कैसे उसे पा सकते हो? तुम उसके आजन्म अधिकारी हो। तुम अमरता के अधिकारी हो, तुम उस नित्य, सनातन पिता की सन्तान हो, स्वर्गराज्य पर तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।”

यह है उस महान् सन्देशवाहक की महान् शिक्षा। उसकी दूसरी शिक्षा है त्याग – जो प्रायः सभी धर्मों का आधार है। आत्मशुद्धि कैसे प्राप्त की जा सकती है? – त्याग द्वारा। एक धनी युवक ने एक बार ईसा से पूछा, “प्रभो, अनन्त जीवन की प्राप्ति के लिए मैं क्या करूँ?” ईसा बोले, “तुममें एक बड़ा अभाव है। यहाँ से घर जाकर अपनी सारी सम्पत्ति बेच दो। जो धन प्राप्त हो, उसे गरीबों को दान कर दो। तुम्हें स्वर्ग में अक्षय धनसम्पदा प्राप्त होगी। उसके बाद ‘क्रॉस’ धारण कर मेरा अनुगमन करो।” धनी युवक यह सुनकर अत्यन्त उदास हो गया और दुःखी होकर चला गया, क्योंकि अपनी अपार सम्पत्ति का मोह वह नहीं त्याग सकता था। हम सब नूनाधिक अंशों में उसी युवक के समान हैं। रात दिन हमारे कानों में यही महावाणी ध्वनित होती रहती है। हमारे आनन्द के क्षणों में सांसारिक विषयोपभोग में हम सोचते हैं कि हम जीवन के सब उच्चतर आदर्श भूल गये हैं, पर इस अनवरत व्यापार में जब कभी क्षण भर का विराम आता है, तो हमारे कानों में वही महाध्वनि गूँजने लगती है, “अपना सर्वस्व त्याग कर मेरा अनुसरण करो।” “जो अपनी जीवनरक्षा का प्रयत्न करेगा, वह उसे खो देगा, और जो मेरे लिए अपना जीवन उन्हें समर्पित कर देगा, वही अमृतत्व लाभ करेगा, उसे ही अमरता वरण करेगी। हमारी दुर्बलताओं के बीच, जीवन के अजस्र प्रवाह में कहीं से एक क्षण का विराम आ उपस्थित हो जाता है और पुनः उस महावाणी की घोषणा हमारे कानों में शुरू हो जाती है। “अपना सर्वस्व त्याग कर दो, उसे गरीबों को बाँट दो और मेरा अनुगमन करो।”

स्वार्थशून्यता, निःस्पृहता, त्याग – यही एक आदर्श है जिसकी ईसा मसीह ने शिक्षा दी है, जिसका दुनिया के सभी पैगम्बरों ने प्रचार किया है। इस त्याग का क्या तात्पर्य है? त्याग का मर्म केवल यही है कि निःस्पृहता, निःस्वार्थपरता ही नैतिकता का एकमेव आदर्श है। अहंशून्य बनो। पूर्ण निःस्वार्थपरता – पूर्ण अहंशून्यता ही हमारा एकमात्र आदर्श है। और इसका दृष्टान्त है ईसा का यह वाक्य : “यदि किसी ने तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मार दिया है, तो दूसरा गाल भी उसकी ओर कर दो। यदि किसी ने तुम्हारा कोट छीन लिया है, तो तुम उसे अपना चोगा भी दे दो।”

आदर्श को अपने उच्च धरातल से नीचा न करते हुए हमें उसे प्राप्त करने का यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए। और यह आदर्श अवस्था वह है, जिसमें मनुष्य का अहंभाव पूर्णतया नष्ट हो जाता है, उसका स्वत्व भाव लुप्त हो जाता है, जब उसके लिए ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसे वह ‘मैं’ और ‘मेरी’ कह सके, जब वह सम्पूर्णतया आत्मविसर्जन कर देता है, मानो अपनी आहुति दे देता है। इस प्रकार अवस्थापन्न व्यक्ति के अन्तर में स्वयं ईश्वर निवास करते हैं। क्योंकि ऐसे व्यक्ति की अहं-वासना पूर्ण रूप से नष्ट हो गयी है, एकदम निर्मूल हो गयी है। यह है आदर्श व्यक्ति, और यद्यपि इस आदर्शावस्था को हम प्राप्त नहीं हुए हैं, तथापि हमें इस आदर्श की पूजा करते हुए, स्खलित पदों से ही क्यों न हो, उस ओर शनैःशनैः अग्रसर होते रहना चाहिए। आज, कल या सहस्रों वर्ष के बाद हमें उस आदर्श को प्राप्त करना ही होगा, क्योंकि यह आदर्शावस्था हमारी साधना का केवल अन्त ही नहीं – हमारी साधना का मार्ग भी है। निःस्वार्थपरता, पूर्ण अहंशून्यता साक्षात् मुक्ति है, क्योंकि अहंशून्य होने पर भीतर का व्यक्ति मर जाता है, और अवशिष्ट रह जाता है केवल ईश्वर।

एक बात और है। मानवजाति के सभी महान् आचार्य सम्पूर्णतया स्वार्थशून्य हैं। कल्पना कीजिये कि नाजरथ के ईसा उपदेश दे रहे हैं – और इसी बीच कोई व्यक्ति उठकर पूछने लगता है, “आपका उपदेश बहुत सुन्दर है, मेरा विश्वास है कि पूर्णत्वप्राप्ति का यही एक मार्ग है और मैं उसका अनुसरण करने को भी प्रस्तुत हूँ, किन्तु मैं ईश्वर के एकमात्र उत्पन्न पुत्र के रूप में आपकी उपासना नहीं कर सकता।” ईसा मसीह के पास इसका क्या उत्तर होगा? – सोचिये अवश्य ईसा उस व्यक्ति से कहते, “अच्छा भाई, आदर्श का अनुसरण करो और अपने भाव के अनुसार उस ओर प्रगति करो। तुम मुझे मेरे उपदेशों के लिए कोई श्रेय दो या न दो – मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मैं कोई दूकानदार नहीं हूँ, बनिया नहीं हूँ। मैं धर्म का व्यवसाय नहीं करता। मैं केवल सत्य की शिक्षा देता हूँ – और सत्य किसी की बपौती – किसी की जायदाद नहीं है। सत्य पर किसी का एकाधिपत्य नहीं है। सत्य स्वयं ईश्वर है। तुम अपने मार्ग पर अग्रसर होते जाओ।” पर आज ईसा के अनुयायी उसी प्रश्न का यह जवाब देते हैं, “तुम इन उपदेशों पर, इन उसूलों पर अमल करो या न करो, उससे हमें कोई मतलब नहीं, पर तुम उपदेशक का सम्मान तो करते हो न? यदि तुम उपदेशक का सम्मान करते हो, तो अवश्य ही तुम्हारा उद्धार हो जायगा; यदि नहीं, तो तुम्हारी मुक्ति की कोई आशा नहीं।” इस प्रकार उन महापुरुष की सारी शिक्षाओं को विकृत रूप दे दिया गया है। सारे विवाद, सारे झगड़े, केवल उपदेशक के व्यक्तित्व को लेकर खड़े होते हैं। वे नहीं जानते कि उपदेशक और उपदेश में इस प्रकार का भेद आरोपित कर वे उसी व्यक्ति को लांछित और अपमानित कर रहे हैं, जो उनका आदरणीय एवं पूजार्ह है, जो स्वयं इस प्रकार के विचार सुनकर लज्जा से संकुचित हो जाता। संसार में कोई उन्हें स्मरण करते हैं या नहीं, इसकी उन महापुरुष को क्या परवाह थी? उन्हें तो विश्व को एक सन्देश देना था – और वह उन्होंने दे दिया। इसके बाद यदि उन्हें बीस सहस्र जीवन भी प्राप्त होते, तो उन्हें वे दुनिया के गरीब से गरीब आदमी के लिए भी निछावर कर देते। यदि लक्ष लक्ष घृणित ‘समारिया’वासियों के उद्धार के लिए उन्हें करोड़ों बार करोड़ों यातनाएँ भी सहनी पड़तीं, यदि उनमें से एक एक की मुक्ति के लिए उन्हें अपने जीवन की भी आहुति देनी पड़ती, तो वे सहर्ष यह सब अंगीकार कर लेते और यह सब करते हुए उन्हें यह इच्छा छू भी न पाती कि दुनिया में किसी को उनका नाम मालूम हो। स्वयं ईश्वर जिस प्रकार कार्य करता है, वे भी उसी प्रकार शान्त, स्थिर, नीरव और अज्ञात रूप से अपना कार्य करते। लेकिन इनके अनुयायी क्या कहते हैं? वे कहते हैं – “तुम पूर्ण निःस्वार्थ और दोषरहित ही क्यों न हो, जब तक तुम हमारे पैगम्बर हमारे धर्माचार्य की पूजा और उनका सम्मान नहीं करोगे, तुम्हारा उद्धार नहीं होगा।” पर यह क्यों? इस कुसंस्कार, इस अज्ञान का कारण क्या है – इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? इसका एकमात्र कारण यही हो सकता है कि ईसा के शिष्यगण सोचते हैं – ईश्वर केवल एक ही बार अवतीर्ण हो सकता है। किन्तु यही विचार सब कुसंस्कारों, सब भ्रमों की जड़ है। ईश्वर मानवरूप में तुम्हारे सामने प्रकट हुआ है। किन्तु प्राकृतिक जगत् में जो घटनाएँ होती हैं, वे अवश्यमेव भूतकाल में भी हुई हैं और भविष्य में भी होंगी। प्रकृति में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो नियमाधीन न हो। उसके नियमबद्ध होने का अर्थ केवल यही है कि जो घटना एक बार हुई है, वह चिरकाल से ही घटती आ रही है और भविष्य में भी घटती रहेगी।

भारतवर्ष में ईश्वरावतार के सम्बन्ध में यही सिद्धान्त प्रचलित है। भारतीयों के अन्यतम अवतार श्रीकृष्ण ने, जिनकी भगवद्गीता स्वरूप अपूर्व उपेदशमाला आप में से अनेकों ने पढ़ी होगी, कहा है–

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ (गीता, 4।6-8)

अर्थात् “यद्यपि मैं जन्मरहित, अक्षयस्वभाव एवं इस भूतसमूह का ईश्वर हूँ, तथापि मैं अपनी प्रकृति का अधिष्ठान कर, अपनी माया से जन्म ग्रहण करता हूँ। हे अर्जुन! जब जब धर्म की अवनति और अधर्म का उत्थान होता है, तब तब मैं शरीर धारण करता हूँ। साधुजन के परित्राणार्थ, दुष्कार्यरत व्यक्तियों के विनाशार्थ तथा धर्म की संस्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में जन्म ग्रहण करता हूँ।” जब संसार की अवनति होने लगती है, तो भगवान उसकी सहायता करने को अवतार लेते हैं, इस प्रकार वे विभिन्न स्थानों एवं विभिन्न युगों में आविर्भूत होते रहते हैं। दूसरे एक स्थान में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥ (गीता, 10।41)

“जहाँ कहीं किसी असाधारण शक्तिसम्पन्न एवं पवित्र आत्मा को मानवजाति के उत्थान के लिए यत्नशील देखो, तो यह जान लो कि वह मेरे ही तेज से उत्पन्न हुआ है, मैं उसके माध्यम से कार्य कर रहा हूँ।”

इसलिए हमें केवल नाजरथवासी ईसा में ही ईश्वर का दर्शन न कर विश्व के उन सभी महान् आचार्यों और पैगम्बरों में भी उसका दर्शन करना चाहिए, जो ईसा के पहले जन्म ले चुके थे, जो ईसा के पश्चात् आविर्भूत हुए हैं और जो भविष्य में अवतार ग्रहण करेंगे। हमारा सम्मान और हमारी पूजा सीमाबद्ध न हो। ये सब महापुरुष उसी एक अनन्त ईश्वर की विभिन्न अभिव्यक्ति हैं। वे सब शुद्ध और स्वार्थगन्धशून्य हैं, सभी ने इस दुर्बल मानवजाति के उद्धार के लिए प्राणपण से प्रयत्न किया है, इसी के लिए अपना जीवन निछावर कर दिया है। वे हमारे और हमारी आनेवाली सन्तान के सब पापों को ग्रहण कर उनका प्रायश्चित कर गये हैं।

एक दृष्टि से हम सभी अवतार हैं, हम सब अपने कन्धों पर संसार का भार वहन कर रहे हैं। क्या तुमने कोई ऐसा व्यक्ति देखा है, ऐसी कोई स्त्री देखी है, जो धैर्यपूर्वक शान्ति से अपने लघु संसार, अपने जीवन का लघु भार न वहन कर रही हो? ये महान् अवतार हमारी तुलना में अवश्य ही बहुत बड़े थे और इसलिए वे अपने कन्धों पर इस विशाल जगत् का भार उठाने में भी सफल हो सके। अवश्य उनसे तुलना करने पर हम अतिक्षुद्र और बौने प्रतीत होते हैं, किन्तु हम भी वही कार्य कर रहे हैं – हम भी अपने छोटे छोटे घरों में, अपने छोटे संसार में अपनी छोटी छोटी सुख दुःख की गठरियाँ सिर पर रख अग्रसर हो रहे हैं। कोई इतना कःपदार्थ नहीं है, कोई इतना हीन नहीं है, जो अपना भार स्वयं नहीं वहन करता। हमारी सब भ्रान्तियों, सब दुष्कृतियों, हमारे सब हीन एवं गर्हित विचारों के लांछन एवं अपवाद की कालिमा के बावजूद भी हमारे चरित्र में एक उज्ज्वल अंश है, कहीं न कहीं एक ऐसा सुवर्णसूत्र है, जिसके द्वारा हम सदैव भगवान से संयुक्त रहते हैं। कारण, यह निश्चित ही जानो कि जिस क्षण भगवान के साथ हमारा यह संयोग नष्ट हो जायगा, उसी क्षण हमारा विनाश हो जायगा। और चूँकि कभी किसी का सम्पूर्ण नाश होना असम्भव है, हम कितने ही हीन, पतित एवं दुष्कर्मरत क्यों न हों, कहीं न कहीं हमारे हृदय में – हमारे अन्तर के अन्तरतम प्रदेश में ज्योति की एक ऐसी किरण विराजमान है, जो भगवान से चिरसंयुक्त है।

विभिन्नदेशीय, विभिन्नजातीय और विभिन्न मतावलम्बी, भूतकाल के उन सब महापुरुषों को हम प्रणाम करते हैं, जिनके उपदेश और चरित्र हमने उत्तराधिकार में पाये हैं। विभिन्न जातियों, देशों और धर्मों में जो देवतुल्य नर-नारीगण मानवजाति के कल्याण में रत हैं, उन सब को प्रमाण है। जीवन्त ईश्वर-स्वरूप जो महापुरुष भविष्य में हमारी सन्तान के लिए निःस्पृहता से कार्य करने के लिए अवतार धारण करेंगे, उन सब को प्रणाम है।


  1. फैरिसी (Pharisee) – यह धर्मसम्प्रदाय ईसा मसीह के आविर्भाव के समय अस्तित्व में था। इस सम्प्रदाय के लोग धर्म के यथार्थ तत्त्व की अपेक्षा बाह्य अनुष्ठानों को ही अधिक महत्त्व देते थे।
  2. सैड्युसी (Sadducee) – इसी समय का एक यहूदी सम्प्रदाय। ये अभिजातवंश के थे और सन्देहवादी थे।
  3. उच्चतर भाष्य (Higher or Historical Criticism) – इतिहास एवं साहित्य की दृष्टि से बाइबिल के विभिन्न अंशों की रचना, रचनाकाल तथा उनकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विचार-परिप्लुत साहित्य-राशि का नाम। Textual or Verbal Criticism अर्थात् बाइबिल के वाक्य एवं शब्दराशि सम्बन्धी चर्चा से इसके पृथक् एवं उच्चतर होने के कारण इसे ‘उच्चतर भाष्य’ कहा गया है।

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