धर्मस्वामी विवेकानंद

इंग्लैण्ड में भारतीय आध्यात्मिक विचारों का प्रभाव

११ मार्च १८९८ को स्वामीजी की शिष्या सिस्टर निवेदिता (कुमारी एम. ई. नोबल) ने कलकत्ते के स्टार थियेटर में ‘इंग्लैण्ड में भारतीय आध्यात्मिक विचारों का प्रभाव’ नामक विषय पर एक व्याख्यान दिया। सभापति का आसन स्वयं स्वामी विवेकानन्द ने ही ग्रहण किया था। स्वामीजी ने उठकर पहले श्रोताओं को वक्त्ता का परिचय देते हुए नीचे लिखी बातें कहीं :

स्वामीजी का भाषण

देवियो और सज्जनो,

मैं जिस समय एशिया के पूर्वी हिस्से में भ्रमण कर रहा था, उस समय एक विषय की ओर मेरी दृष्टि विशेष रूप से आकृष्ट हुई। मैंने देखा कि उन स्थानों में भारतीय आध्यात्मिक विचार व्याप्त हैं। चीन और जापान के कितने ही मन्दिरों की दीवारों के ऊपर कुछ सुपरिचित संस्कृत मन्त्रों को लिखा हुआ देखकर मैं कितना विस्मित हुआ था, यह तुम लोग आसानी से समझ सकते हो। और यह सुनकर शायद तुम्हें और भी आश्चर्य होगा, और कुछ लोगों को सम्भवतः प्रसन्नता भी होगी कि वे सब मन्त्र पुरानी बँगला लिपि में लिखे हुए हैं। हमारे बंगाल के पूर्वपुरुषों का धर्मप्रचार में कितना उत्साह और स्फूर्ति थी, मानो यही बताने के लिए आज भी वे मन्त्र उन पर स्मारक के रूप में मौजूद हैं।

भारतीय आध्यात्मिक विचारों की पहुँच एशिया महाद्वीप के इन देशों तक ही हुई है, ऐसा नहीं, वरन् वे बहुत दूर तक फैले हुए हैं और उनके चिह्न सुस्पष्ट हैं। यहाँ तक कि पाश्चात्य देशों में भी कितने ही स्थानों के आचार-व्यवहार के मर्म में पैठकर मैंने उसके प्रभावचिह्न देखे। प्राचीन काल में भारत के आध्यात्मिक विचार भारत के पूर्व और पश्चिम दोनों ही ओर फैले। यह बात अब ऐतिहासिक सत्य के रूप में प्रमाणित हो चुकी है। सारा संसार भारत के अध्यात्म-तत्त्व के लिए कितना ऋणी है तथा यहाँ की आध्यात्मिक शक्ति ने मानवजाति को जीवनसंगठन के कार्य में प्राचीन अथवा अर्वाचीन समय में कितनी बड़ी सहायता पहुँचायी है, यह बात अब सब लोग जान गये हैं। ये सब तो पुरानी बातें हैं। मैं संसार में एक और सर्वाधिक उल्लेखनीय बात देखता हूँ। वह यही है कि उस अद्भुतकर्मा एएंग्लो-सैक्सन जाति ने मानवता तथा सामाजिक उन्नति की दिशा में कार्य करने की, सभ्यता और प्रगति की महती क्षमता का विकास किया है। इतना ही नहीं, कुछ और आगे बढ़कर मैं यह भी कह सकता हूँ कि यदि उस एएंग्लो-सैक्सन जाति की शक्ति का प्रभाव इतना विस्तारित नहीं हुआ होता तो हम शायद इस तरह इकट्ठे भी नहीं होते और आज यहाँ पर ‘भारतीय आध्यात्मिक विचारों का प्रभाव’ विषय पर चर्चा भी नहीं कर पाते। फिर पाश्चात्य से प्राच्य को, अपने स्वदेश को, लौटकर देखता हूँ कि वही एएंग्लो-सैक्सन शक्ति अपने समस्त दोषों के साथ भी अपने गुणों की निश्चित विशिष्टताओं की रक्षा करते हुए अपना कार्य यहाँ कर रही है और मेरा विश्वास है कि अन्ततः महान् परिणाम सिद्ध होगा। ब्रिटिश जाति का विस्तार और उन्नति का भाव हमें बलपूर्वक उन्नति की ओर अग्रसर कर रहा है। साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि पाश्चात्य सभ्यता का मूल स्रोत यूनानी सभ्यता है और यूनानी सभ्यता का प्रधान भाव है – अभिव्यक्ति। हम भारतवासी मननशील तो हैं, परन्तु कभी कभी दुर्भाग्यवश हम इतने मननशील हो जाते हैं कि हममें भाव व्यक्त करने की शक्ति बिल्कुल नहीं रह जाती। मतलब यह कि धीरे धीरे संसार के समक्ष भारतवासियों की भाव प्रकाशित करने की शक्ति अव्यक्त ही रह गयी और उसका फल क्या हुआ? फल यही हुआ कि हमारे पास जो कुछ था, सब को हम गुप्त रखने की चेष्टा करने लगे। भाव गुप्त रखने का यह सिलसिला आरम्भ तो हुआ व्यक्तिविशेष की ओर से, पर क्रमशः बढ़ता हुआ यह अन्त में राष्ट्रीय स्वभाव बन गया। और आज भाव को अभिव्यक्त करने की शक्ति का हममें इतना अभाव हो गया है कि हमारा राष्ट्र एक मरा हुआ राष्ट्र समझा जाने लगा है। ऐसी अवस्था में अभिव्यक्ति के बिना हमारे राष्ट्र के जीवित रहने की सम्भावना कहाँ है? पाश्चात्य सभ्यता का मेरुदण्ड है विस्तार और अभिव्यक्ति। भारतवर्ष में एएंग्लो-सैक्सन जाति के कामों में से जिस कार्य की ओर मैंने तुम लोगों का ध्यान आकृष्ट करना चाहा है, वही हमारी जाति को जगाकर एक बार फिर हमें अपने को अभिव्यक्त करने के लिए तैयार करेगा। और आज भी यही शक्तिशाली एएंग्लो-सैक्सन जाति अपने भावविनिमय के साधनों की सहायता से हमें संसार के आगे अपने गुप्त रत्नों को प्रकट करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। एएंग्लो-सैक्सन जाति ने भारतवर्ष की भावी उन्नति का रास्ता खोल दिया है और हमारे पूर्वजों के भाव जिस तरह धीरे धीरे बहुतेरे स्थानों में फैलते जा रहे हैं, वह वास्तव में विलक्षण है। लेकिन जब हमारे पूर्वजों ने अपना सत्य और मुक्ति का सन्देश प्रचारित किया, तब उन्हें कितना सुभीता था! भगवान् बुद्ध ने किस तरह सार्वजनीन भ्रातृभाव के महान् तत्त्व का प्रचार किया था। उस समय भी यहाँ, हमारे प्रिय भारतवर्ष में, यथार्थ आनन्द प्राप्त करने के पर्याप्त सुभीते थे और हम बहुत ही सुगमता के साथ पृथ्वी की एकछोर से दूसरे छोर तक अपने भावों और विचारों को प्रचारित कर सकते थे, परन्तु अब हम उससे और भी आगे बढ़कर एएंग्लो-सैक्सन जाति तक अपने भावों का प्रचार करने में कृतकार्य हो रहे हैं।

इसी तरह क्रिया-प्रतिक्रिया इस समय चल रही है और हम देख रहे हैं कि हमारे देश का सन्देश वहाँवाले सुनते हैं, और केवल सुनते ही नहीं बल्कि उन पर अनुकूल प्रभाव भी पड़ रहा है। इसी बीच इंग्लैण्ड ने अपने कई महान् विद्वान् व्यक्तियों को हमारे काम में सहायता पहुँचाने के लिए भेज दिया है। तुम लोगों ने शायद मेरी मित्र मिस मूलर के बारे में सुना है और सम्भव है तुम लोगों में से बहुतों का उनके साथ परिचय भी हो – वे इस समय इसी मंच पर उपस्थित हैं। उच्च कुल में उत्पन्न इस सुशिक्षित महिला ने भारत के प्रति अगाध प्रेम होने के कारण अपना समग्र जीवन भारत के कल्याण के लिए न्यौछावर कर दिया है। उन्होंने भारत को अपना घर तथा भारतवासियों को ही अपना परिवार बना लिया है। तुम सभी उन सुप्रसिद्ध उदारहृदया अंग्रेज महिला के नाम से भी परिचित हो – उन्होंने भी अपना सारा जीवन भारत के कल्याण तथा पुनरुत्थान के लिए अर्पण कर दिया है। मेरा अभिप्राय श्रीमती बेसेन्ट से है। प्यारे भाइयों, आज इस मंच पर दो अमेरिकन महिलाएँ उपस्थित हैं – ये भी अपने हृदय में वैसा ही उद्देश्य धारण किये हुए हैं; और मैं आप लोगों से निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि ये भी हमारे इस गरीब देश के कल्याण के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग करने को तैयार हैं। इस अवसर पर मैं तुम लोगों को एक स्वदेशवासी का नाम याद दिलाना चाहता हूँ। इन्होंने इंग्लैण्ड और अमेरिका आदि देशों को देखा है। इनके ऊपर मेरा बड़ा विश्वास और भरोसा है, इन्हें मैं विशेष सम्मान और प्रेम की दृष्टि से देखता हूँ। आध्यात्मिक राज्य में ये बहुत आगे बढ़े हुए हैं। ये बड़ी दृढ़ता के साथ और चुपचाप हमारे देश के कल्याण के लिए कार्य कर रहे हैं। आज यदि उन्हें किसी और जगह कोई विशेष काम न होता, तो वे अवश्य ही इस सभा में उपस्थित होते – यहाँ पर मेरा मतलब श्री मोहिनीमोहन चट्टोपाध्याय से है। इन लोगों के अतिरिक्त अब इंग्लैण्ड ने कुमारी मार्गरेट नोबल को उपहारस्वरूप भेजा है – इनसे हम बहुत कुछ आशा रखते हैं। बस और अधिक कुछ न कहते हुए मैं तुम लोगों से कुमारी मार्गरेट का परिचय करा देता हूँ, जो तुम्हारे समक्ष भाषण करेंगी।

जब सिस्टर निवेदिता ने अपना दिलचस्प व्याख्यान समाप्त कर दिया, तब स्वामी विवेकानंद जी फिर खड़े हुए और उन्होंने कहा :

मैं अब केवल दो-चार बातें और कहना चाहता हूँ। हमारी धारणा है कि हम भारतवासी भी कुछ काम कर सकते हैं। भारतवासियों में हम बंगाली लोग भले ही इस बात की हँसी उड़ा सकें, पर मैं वैसा नहीं करता। तुम लोगों के अन्दर एक अदम्य उत्साह, एक अदम्य चेष्टा जागृत कर देना ही मेरा जीवनव्रत है। चाहे तुम अद्वैतवादी हो, चाहे विशिष्टाद्वैतवादी हो, अथवा द्वैतवादी ही क्यों न हो, इससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता। परन्तु एक बात की ओर जिसे दुर्भाग्यवश हम लोग हमेशा भूल जाया करते हैं, इस समय मैं तुम्हारा ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। वह यह कि ‘ऐ मानव, तू अपने आप पर विश्वास कर।’ केवल इसी एक उपाय से हम ईश्वर के विश्वास-परायण बन सकते हैं। तुम चाहे अद्वैतवादी हो या द्वैतवादी, तुम्हारा विश्वास चाहे योगशास्त्र पर हो या शंकराचार्य पर, चाहे तुम व्यास के अनुयायी हो या विश्वामित्र के, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बात यह है कि पूर्वोक्त आत्मा-सम्बन्धी विश्वास के विषय में भारतवासियों के विचार संसार की अन्य सभी जातियों के विचारों से निराले हैं। एक पल के लिए इसे ध्यान में रखो कि जहाँ अन्यान्य सभी धर्मों और देशों में आत्मा की शक्ति को लोग बिल्कुल स्वीकार नहीं करते – वे आत्मा को प्रायः शक्तिहीन, दुर्बल और जड़ वस्तु की तरह समझते हैं, वहाँ हम लोग भारतवर्ष में आत्मा को अनन्तशक्तिसम्पन्न समझते हैं और हमारी धारणा है कि आत्मा चिरकाल तक पूर्ण ही रहेगी। हमें सदा उपनिषदों में दिये गये उपदेशों का स्मरण रखना चाहिए।

अपने जीवन के महान् व्रत को याद रखो। हम भारतवासी और विशेषतः हम बंगाली अत्यधिक मात्रा में विदेशी भावों से आक्रान्त हो गये हैं, जो हमारे राष्ट्रीय धर्म की सम्पूर्ण जीवनीशक्ति को चूस डालते हैं। हम आज इतने पिछड़े हुए क्यों है? क्यों हममें से निन्यानबे प्रतिशत आदमी सम्पूर्णतः पाश्चात्य भावों और उपादानों से विनिर्मित हो रहे हैं? अगर हम लोग राष्ट्रीय गौरव के उच्च शिखर पर आरोहण करना चाहते हैं तो हमें इस विदेशी भाव को दूर फेंक देना होगा, साथ ही यदि हम ऊपर चढ़ना चाहते हैं तो हमें यह भी याद रखना होगा कि हमें पाश्चात्य देशों से बहुत कुछ सीखना बाकी है। पाश्चात्य देशों से हमें उनका शिल्प और विज्ञान सीखना होगा, उनके यहाँ के भौतिक विज्ञानों को सीखना होगा और उधर पाश्चात्य देशवासियों को हमारे पास आकर धर्म और अध्यात्म-विद्या की शिक्षा ग्रहण करनी होगी। हम हिन्दुओं को विश्वास करना होगा कि हम संसार के गुरु हैं। हम यहाँ पर राजनीतिक अधिकार तथा इसी प्रकार की अन्यान्य बातों के लिए चिल्ला रहे हैं। अच्छी बात है, परन्तु अधिकार और सुभीते केवल मित्रता के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं, और मित्रता की आशा वहीं की जाती है, जहाँ दोनों पक्ष समान होते हैं। यदि एक पक्षवाला जीवन भर भीख माँगता रहे, तो क्या यहाँ पर मित्रता स्थापित हो सकती है? ये सब बातें कह देना बहुत आसान है, पर मेरा तात्पर्य यह है कि पारस्परिक सहयोग के बिना हम लोग कभी शक्तिसम्पन्न नहीं हो सकते। इसीलिए मैं तुम लोगों को भिखमंगों की तरह नहीं, धर्माचार्य के रूप में इंग्लैण्ड और अमेरिका आदि देशों में जाने के लिए कह रहा हूँ। हमें अपने सामर्थ्य के अनुसार विनिमय के नियम का प्रयोग करना होगा। यदि हमें इस लोक में सुखी रहने के उपाय सीखने हैं तो हम भी उसके बदले में क्यों न उन्हें अनन्त काल तक सुखी रहने के उपाय बताएँ?

सर्वोपरि, समग्र मानवजाति के कल्याण के लिए कार्य करते रहो। तुम एक संकीर्ण घेरे के अन्दर बँधे रहकर अपने को ‘शुद्ध’ हिन्दू समझने का जो गर्व करते हो, उसे छोड़ दो। मृत्यु सब के लिए राह देख रही है। और इस सर्वाधिक अपूर्व ऐतिहासिक सत्य को कभी मत भूलो कि संसार की सब जातियों को भारतीय साहित्य में निबद्ध सनातन सत्यों को सीखने के लिए धैर्य धारण कर भारत के चरणों के समीप बैठना पड़ेगा। भारत का विनाश नहीं है, चीन का भी नहीं है और जापान का भी नहीं। अतएव हमें अपने धर्मरूपी मेरुदण्ड की बात का सर्वदा स्मरण रखना होगा, और ऐसा करने के लिए, हमें रास्ता बताने के लिए एक पथप्रदर्शक की आवश्यकता है – वह रास्ता जिसके विषय में मैं अभी तुम लोगों से कह रहा था। यदि तुम लोगों में कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह विश्वास न करता हो, यदि हमारे यहाँ कोई ऐसा हिन्दू बालक हो जो यह विश्वास करने के लिए उद्यत न हो कि हमारा धर्म पूर्णतः आध्यात्मिक है, तो मैं उसे हिन्दू मानने को तैयार नहीं हूँ। मुझे याद है, एक बार काश्मीर राज्य के किसी गाँव में मैंने एक वृद्ध महिला से बातचीत करते समय पूछा था, “तुम किस धर्म को मानती हो?” इस पर वृद्धा ने तपाक से जवाब दिया था, “ईश्वर को धन्यवाद, उसकी कृपा से मैं मुसलमान हूँ।” इसके बाद किसी हिन्दू से जब यही प्रश्न पूछा तो उसने साधारण ढंग से कह दिया, “मैं हिन्दू हूँ।”

कठोपनिषद् का वह महान् शब्द स्मरण आता है – ‘श्रद्धा’ या अद्भुत विश्वास। नचिकेता के जीवन में ‘श्रद्धा’ का एक सुन्दर दृष्टान्त दिखाई देता है। इस श्रद्धा का प्रचार करना ही मेरा जीवनोद्देश्य है। मैं तुम लोगों से फिर एक बार कहना चाहता हूँ कि यह श्रद्धा ही मानवजाति के जीवन का और संसार के सब धर्मों का महत्त्वपूर्ण अंग है। सब से पहले अपने आप पर विश्वास करने का अभ्यास करो। यह जान लो कि कोई आदमी छोटेसे बुलबुले के बराबर हो सकता है और दूसरा व्यक्ति पर्वताकार तरंग के समान बड़ा। पर छोटा-सा बुलबुला हो या पर्वताकार तरंग – दोनों के ही पीछे अनन्त समुद्र है। अतएव सब का जीवन आशाप्रद है, सब के लिए मुक्ति का रास्ता खुला हुआ है और सभी जल्दी या देरी से माया के बन्धन से मुक्त होंगे। यही हमारा सब से पहला कर्तव्य है। अनन्त आशा से ही अनन्त आकांक्षा और चेष्टा की उत्पत्ति होती है। यदि यह विश्वास हमारे अन्दर बैठ जाए तो वह हमारे राष्ट्रीय जीवन में व्यास और अर्जुन का समय – वह समय, जब कि हमारे यहाँ से समग्र मानवजाति के लिए कल्याणकर उदात्त मतवाद प्रचारित हुआ था – ले आएगा। आज हम लोग आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि और आध्यात्मिक विचारों में बहुत ही पिछड़ गये हैं – भारत में पर्याप्त मात्रा में आध्यात्मिकता विद्यमान थी, इतनी अधिक मात्रा में कि उसकी आध्यात्मिक महानता ने ही भारतीयों को सारे संसार की जातियों का सिरमौर बना दिया था। और यदि परम्परा तथा लोगों की आशा पर विश्वास किया जाए तो हमारा वह दिन फिर लौट आएगा, और वह तुम लोगों के ऊपर ही निर्भर करता है। ऐ बंगाली नवयुवकों, तुम लोग धनी-मानियों और बड़े आदमियों का मुँह ताकना छोड़ दो। याद रखो, संसार में जितने भी बड़े बड़े और महान् कार्य हुए हैं, उन्हें गरीबों ने ही किया है। इसलिये ऐ गरीब बंगालियों, उठो और काम में लग जाओ, तुम लोग सब काम कर सकते हो और तुम्हें सब काम करने पड़ेंगे। यद्यपि तुम गरीब हो, फिर भी बहुत लोग तुम्हारा अनुसरण करेंगे। दृढ़चित्त बनो और इससे भी बढ़कर पूर्ण पवित्र और धर्म के मूलतत्त्व के प्रति निष्ठावान बनो। विश्वास रखो कि तुम्हारा भविष्य अत्यन्त गौरवपूर्ण है। ऐ बंगाली नवयुवकों, तुम लोगों के द्वारा ही भारत का उद्धार होनेवाला है। तुम इस पर विश्वास करो या न करो, पर तुम इस बात पर विशेष रूप से ध्यान रखो और ऐसा मत समझो कि यह काम आज या कल ही पूरा हो जाएगा। मुझे अपनी देह और अपनी आत्मा के अस्तित्व पर जैसा दृढ़ विश्वास है, इस पर भी मेरा वैसा ही अटल विश्वास है। इसीलिए ऐ वंगीय नवयुवकों, तुम्हारे प्रति मेरा हृदय इतना आकृष्ट है। जिनके पास धन-दौलत नहीं है, जो गरीब हैं, केवल उन्हीं लोगों का भरोसा है, और चूँकि तुम गरीब हो, इसलिए तुम्हारे द्वारा यह कार्य होगा। चूँकि तुम्हारे पास कुछ नहीं है, इसीलिए तुम सच्चे हो सकते हो, और सच्चे होने के कारण ही तुम सब कुछ त्याग करने के लिए तैयार हो सकते हो। बस, केवल यही बात मैं तुमसे कह रहा हूँ। और पुनः तुम्हारे समक्ष मैं इसे दुहराता हूँ – यही तुम लोगों का जीवनव्रत है और यही मेरा भी जीवनव्रत है। तुम चाहे किसी भी दार्शनिक मत का अवलम्बन क्यों न करो, मैं यहाँ पर केवल यही प्रमाणित करना चाहता हूँ कि सारे भारत में ‘मानवजाति की पूर्णता में अनन्त विश्वास’रूप प्रेमसूत्र ओतप्रोत भाव से विद्यमान है। मैं चाहता हूँ कि इस विश्वास का सारे भारत में प्रचार हो।

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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