आत्मा : उसके बन्धन तथा मुक्ति – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“आत्मा : उसके बन्धन तथा मुक्ति” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका में दिया था। यह भाषण उनकी विख्यात किताब ज्ञान योग में संकलित है। “आत्मा : उसके बन्धन तथा मुक्ति” में वे आत्मा की भारतीय दर्शन-आधारित धारणा तथा उसकी मुक्ति व बंधन के कारणों को स्पष्ट कर रहे हैं। इस पुस्तक के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – हिंदी में ज्ञानयोग।
अद्वैत दर्शन के अनुसार विश्व में केवल एक ही वस्तु सत्य है, और वह है ब्रह्म। ब्रह्मेतर समस्त वस्तुएँ मिथ्या है, ब्रह्म ही उन्हें माया के योग से बनाता एवं अभिव्यक्त करता है। उस ब्रह्म की पुनःप्राप्ति ही हमारा उद्देश्य है। हम, हममें से प्रत्येक वही ब्रह्म है, वही परम तत्त्व है, पर माया से युक्त। अगर हम इस माया अथवा अज्ञान से मुक्त हो सके, तो हम अपने असली स्वरूप को पहचान लेंगे। इस दर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति तीन तत्त्वों से बना है : देह अन्तरिन्द्रिय अथवा मन, और आत्मा, जो इन सब के पीछे है। शरीर आत्मा का बाहरी आवरण है और मन भीतरी। यह आत्मा ही वस्तुतः द्रष्टा और भोक्ता है तथा यही शरीर में बैठी हुई मन के द्वारा शरीर को संचालित करती रहती है ।
मानव-शरीर में आत्मा का ही एकमात्र अस्तित्व है और यह आत्मा चेतन है। फूँक यह चेतन है, इसलिए यह यौगिक नहीं हो सकती। और चूंकि यह यौगिक नहीं है इसलिए इस पर कार्य-कारण का नियम नहीं लागू हो सकता। अतः यह अमर है । जो अमर है उसका कोई आदि नहीं हो सकता, क्योंकि जिस वस्तु का आदि होता है, उसका अन्त भी सम्भव है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि उसका कोई रूपाकार नहीं है, कोई रूप भौतिक द्रव्यों के बिना सम्भव नहीं। जिस वस्तु का कोई रूपाकार होगा, उसका आदि- और अन्त भी होगा ही। हम लोगों मेँ से किसी ने कभी ऐसी वस्तु नहीं देखी, जिसका आकार तो हो, पर आदि और अन्त न हो। रूपाकार की सृष्टि शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग से होती है। इस कुर्सी का एक? विशिष्ट आकार है, अर्थात् एक निश्चित परिमाणवाले भौतिक द्रव्य पर कुछ शक्तियों ने इस प्रकार काम किया कि इसका यह रूप बन गया है । आकर शक्ति एवं भौतिक द्रव्य के संयोग का परिणाम है। पर कोई भी संयोग अनन्त नहीं होता। कभी न कभी उसका विघटन होता ही है । इस तरह यह सिद्ध होता है कि हर रूप का आदि और अन्त है। हम जानते है कि हमारा यह शरीर एक न एक दिन नष्ट होगा। इसका जन्म हुआ है, इसलिए मरण भी होगा ही। किन्तु आत्मा का कोई रूप नहीं है, इसलिए वह आदि और अन्त से परे है। इसका अस्तित्व अनादि काल से है । जैसे काल शाश्वत है, वैसे ही मनुष्य की आत्मा भी शाश्वत है। फिर यह अवश्य ही सर्वव्यापक होगी। केवल उन्हीं वस्तुओं का विस्तार सीमित होता है, जिनका कोई रूप होता है। जिसका कोई रूप ही नहीं, उसके विस्तार की क्या सीमा है? इसलिए अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा, जो मुझमें, तुममें, सब में है, सर्वव्यापक है । और जब ऐसी ही बात है, तब तो सूर्य में पृथ्वी पर, अमेरिका में, इंग्लैंड में हर जगह तुम सामान्य रूप से वर्तमान हो। किन्तु आत्मा, शरीर और मन के माध्यम से ही काम करती है। अतः जहाँ शरीर और मन है, वहीं उसका कार्य दृष्टिगोचर होता है ।
हमारा हर कार्य जो हम करते हैं, हर विचार जो हम सोचते है, मन पर एक छाप छोड़ जाता है, जिसे संस्कृत में ‘संस्कार’ कहते हैं । ये सभी संस्कार मिल-जुलकर एक ऐसी महती शक्ति का रूप लेते हैं, जिसे ‘चरित्र’ कहते हैं। उसने अपने आप के लिए जिसका निर्माण किया है, वही उस मनुष्य का चरित्र है, यह मानसिक एवं दैहिक क्रियाओं का परिणाम है, जिन्हें उसने अपने जीवन- में किया है । संस्कारों की समष्टि वह शक्ति है, जिससे यह निश्चित होता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य किस दिशा में जाएगा। मनुष्य के मरने पर उसका शरीर तत्त्वों में मिल जाता है । किन्तु संस्कार मन में संलग्न रहते हैं और चूंकि मन शरीर की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म तत्त्वों से बना होता है, इसलिए विघटित नहीं होता । क्योंकि भौतिक द्रव्य जितना ही सूक्ष्मतर होता है, उतना ही दृढ़तर होता है। अन्ततोगत्वा मन भी विघटित होता है । हम सभी उसी विघटन की स्थिति के लिए प्रयत्न कर रहे है । इस सम्बन्ध में सब से अच्छा उदाहरण, जो मेरे मन में अभी आ रहा है, चक्रवात का है । विभिन्न वायु-तरंगें विभिन्न दिशाओं से आकर मिलती है और एकाकार होकर मिलन-बिन्दु में वे संघटित हो जाती है तथा चक्र बनाती जाती हैं। चक्राकार स्थिति में वे धूलिकण, कागज के टुकड़े आदि नाना पदार्थों का एक रूप बना लेती हैं, जिन्हें बाद में गिराकर वे पुनः किसी दूसरे स्थान पर जाकर यही क्रम फिर रचती हैं। ठीक इसी प्रकार वे शक्तियाँ जिन्हें संस्कृत में ‘प्राण’ कहते हैं, परस्पर मिलकर भौतिक पदार्थों के संयोग से मन तथा शरीर की रचना करती है। चक्रवात की तरह ही वे कुछ समय में इन पदार्थों को गिराकर अन्यत्र यही कार्य पुनः करती हुई आगे बढ़ती जाती हैं। किन्तु पदार्थ के बिना शक्ति की कोई गति नहीं, इसलिए जब शरीर छूट जाता है, मनस्तत्त्व रह जाता है और इसमें संस्कारों के रूप में प्राण कार्य करते हैं। किसी दूसरे बिन्दु पर जाकर ये पुनः नये पदार्थों का चक्र खड़ा करते है । इस तरह ये तब तक भ्रमण करते रहते है, जब तक संस्काररूपी शक्तियों का पूर्णतः क्षय नहीं हो जाता। सम्पूर्ण संस्कारों के साथ जब मन का पूर्णतः क्षय हो जाएगा, तब हम मुक्त हो जाएँगे। इसके पहले हम बन्धन में हैं । हमारी आत्मा मन के चक्रवात से ढकी रहती है और सोचती है कि वह एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जायी जाती है । जब चक्रवात समाप्त हो जाता है, तब वह अपने को सर्वत्र व्याप्त पाती है। उसे तब अनुभव होता है कि वह तो स्वेच्छा से कहीं भी जा सकती है, वह पूर्णतः स्वतन्त्र है और चाहे तो अनेकानेक शरीर और मन की रचना कर सकती है । किन्तु जब तक चक्रवात की समाप्ति नहीं होती, उसे उसके साथ ही चलना पड़ेगा। हम सभी इस चक्रवात से मुक्ति के लक्ष्य की ओर बढ़ रहे है।
मान लो कि इस कमरे में एक गेंद है और हम सब के हाथ में एक एक बल्ला है । सैकड़ों बार हम उसे मारते हुए इधर से उधर करते रहते हैं, जब तक कि वह कमरे से बाहर नहीं चला जाता । किस वेग से एवं किस दिशा में वह कहर जाएगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जब वह कमरे में था, तो उस पर कितनी शक्तियाँ कार्य कर रही थीं। उसके ऊपर जितनी शक्तियों का प्रयोग किया गया उन सब का प्रभाव उस पर पड़ेगा। हमारी मानसिक और शारीरिक क्रियाएं ऐसे ही आघात हैं। मानव- मन वह गेंद है जिस पर आघात दिया जाता है । यह संसार मानो? एक कमरा है, जिसमें मनरूपी गेंद के ऊपर हमारे नाना कार्य-कलापों का प्रभाव पड़ता है एवं इसके बाहर जाने की दिशा एवं गति इन सारी शक्तियों के ऊपर निर्भर होती है। इस तरह इस संसार में हम जो भी कार्य करते हैं, उन्हीं के आधार पर हमारा भावी जीवन निश्चित होता है। इसलिए हमारा वर्तमान जीवन हमारे विगत जीवन का परिणाम है । एक उदाहरण लो : मान लो मैं तुमको एक ऐसी शृंखला देता हूँ, जिसका आदि-अन्त नहीं है । उस शृंखला में हर सफेद कड़ी के बाद एक काली कड़ी है । और वह भी आदि-अन्तहीन है। अब मैं तुमसे पूछता हूँ कि वह शृंखला किस प्रकृति की है? पहले तो, इसकी प्रकृति बतलाने में तुमको कठिनाई होगी, क्योंकि यह शृंखला तो अनन्त है । पर शीघ्र ही तुमको पता चलेगा कि यह तो एक ऐसी शृंखला है, जिसकी रचना काली और सफेद कड़ियों को पूर्वापर क्रम में जोड़ने से हुई है। और इतना भर जान लेने से ही तुमको संपूर्ण शृंखला की प्रकृति का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि यह एक पूर्ण आकृति है। बार बार जन्म लेकर हम एक ऐसी ही अनन्त शृंखला की रचना करते हैं, जिसमें हर जीवन एक कड़ी है। और इस कड़ी का आदि है जन्म, और अन्त है मरण। अभी जो हम हैं और जो हम करते हैं, किंचित् परिवर्तन के साथ उसी की आवृत्ति बार बार होती रहती है। इस तरह अगर हम जन्म और मरण इन दो कड़ियों को समझ लें, तो हम उस सम्पूर्ण मार्ग को समझ ले सकते है, जिससे होकर हमें गुजरना है। हम देखते है कि हमारे वर्तमान जीवन को तो हमारे पूर्व जीवन के कार्य-कलापों ने ही निश्चित कर दिया था। जिस प्रकार हमारे वर्तमान जीवन के कार्य-कलापों का प्रभाव आने वाले जीवन पर पड़ेगा, उसी प्रकार हमारे पूर्व जीवन के कर्मों का प्रभाव भी हमारे? वर्तमान जीवन पर पड़ रहा है । कौन हमें ले आता है? हमारे प्रारब्ध कर्म। कौन हमें ले जाता है? हमारे लिए! कर्म । और इसी प्रकार हम आते और जाते हैं। जैसे लार्वा अपने ही भीतर के पदार्थों से बने तन्तुओं को मुँह से निकाल-निकालकर, अपने चारों तरफ कोया बना लेता है और उसमें अपने को बाँध लेता है, वैसे ही हम भी अपने ही कर्मों के जाल में स्वयं बद्ध हो जाते हैं । कार्य-कारण-नियम के इस जाल में हम एक बार उलझ क्या जाते हैं कि इससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। एक बार हमने यह चक्र चला दिया और अब इसी में पिस रहे हैं। इस तरह यह दर्शन बतलाता है कि मनुष्य अपने ही अच्छे-बुरे कर्मों से बँधता चला जाता है।
आत्मा न कभी आती है, न जाती है; यह न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है । प्रकृति ही आत्मा के सम्मुख गतिशील है और इस गति की छाया आत्मा पर पड़ती रहती है। भ्रमवश काला सोचती है कि प्रकृति नहीं बल्कि वही गतिशील है । जब तक आत्मा ऐसा सोचती रहती है, तब तक वह बन्धन में रहती है; किन्तु जब उसे यह पता चल जाता है कि वह सर्वव्यापक है, तो वह मुक्ति का अनुभव करती है। जब तक आत्मा बन्धन में रहती है, तब तक उसे जीव कहते हैं। इस तरह तुमने देखा कि समझने की सुविधा के लिए ही हम ऐसा कहते है कि आत्मा आती है और जाती है, ठीक वैसे ही, जैसे खगोलशास में सुविधा के लिए यह कल्पना करने के लिए कहा जाता है कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है, यद्यपि वस्तुतः बात वैसी नहीं है। तो जीव, अर्थात् आत्मा, ऊँचे या नीचे स्तर पर आता-जाता रहता है। यही सुप्रसिद्ध पुनर्जन्मवाद का नियम हैं; सृष्टि इसी नियम से बद्ध है ।
इस देश में लोगों को यह बात विचित्र लगती है कि आदमी पशु के स्तर से आया है। क्यों? अगर ऐसा न हो, तो इन करोड़ों पशुओं की क्या गति होगी? क्या उनका कोई अस्तित्व नहीं है? अगर हमारे अन्दर आत्मा का निवास है, तो उनके अन्दर भी है और अगर उनके अन्दर नहीं है, तो हमारे अन्दर भी नहीं है । यह कहना कि केवल मनुष्यों में ही आत्मा होती है, पशुओं में नहीं, बिलकुल बेतुका है । मैंने पशु से भी गये-गुजरे मनुष्यों को देखा है ।
मानवात्मा ने ऊँचे तथा नीचे, विभिन्न स्तरों पर निवास किया है। संस्कारों के चलते यह एक से दूसरा रूप बदलती रहती है । किन्तु जब यह मनुष्य के रूप में उच्चतम स्तर पर रहती है, तभी मुक्ति उसे मिल पाती है। इस तरह मनुष्यत्व का स्तर सब से उन्नत स्तर है; देवत्व से भी उन्नत। क्योंकि मनुष्यत्व के स्तर पर ही आत्मा को मुक्ति मिल सकती है।
यह सम्पूर्ण विश्व कभी ब्रह्म में ही था। ब्रह्म से यह मानो निकल आया है और तब से सतत भ्रमण करता हुआ यह पुनः अपने उद्गम-स्थान पर वापस जाना चाहता है। यह सारा क्रम कुछ ऐसा ही है, जैसे डाइनेमो से बिजली का निकलना और विभिन्न धाराओं से चक्कर काटकर पुनः उसी में चला जाना। आत्मा ब्रह्म से प्रक्षेपित होकर विभिन्न रूपों – वनस्पति तथा पशु-लोकों – से होती हुई मनुष्य के रूप में आविर्भूत होती है। मनुष्य ब्रह्म के सब से अधिक समीप है। वस्तुतः जीवन का सारा संग्राम इसीलिए है कि पुनः आत्मा ब्रह्म में मिल जाए। लोग इस बात को समझते है या नहीं – यह उतना महत्त्व नहीं रखता। विश्व भर में द्रव्यों वनस्पतियों अथवा पशुओं में जो कुछ भी गति दीख पड़ती है, वह इसीलिए है कि आत्मा अपने मौलिक केन्द्र पर चली जाए और शान्तिलाभ करे । प्रारम्भ में साम्यावस्था रही पर वह नष्ट हो गयी; और अब सारे अणु-परमाणु इसी प्रयास में है कि पुनः वह साम्यावस्था आ जाए। इस प्रयास में ये अनेक बार एक दूसरे से मिलते और नये नये रूप धारण करते है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति में विभिन्न दृश्य देखने को मिलते हैं । वनस्पतियों में, पशुओं में तथा सर्वत्र ही जो प्रतिद्वन्द्विता, जो संग्राम जो सामाजिक तनाव और युद्ध होते है, वे सभी उसी शाश्वत संग्राम की अभिव्यक्तियाँ है, जो मौलिक साम्यावस्था की प्राप्ति के लिए हो रही हैं ।
जन्म से मृत्यु तक की इस यात्रा को संस्कृत में ‘संसार’ कहते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है, जन्म-मरण का चक्र । इस चक्र से गुजरती हुई सारी सृष्टि ही कभी न कभी मोक्ष को-: प्राप्त करेगी । अब प्रश्न हो सकता है कि जब सब को मोक्षप्राप्ति होगी ही, तब ‘प्रयास’ की क्या आवश्यकता है? जब सब लोग मुक्त हो ही जाएँगे, तो क्यों न हम चुपचाप बैठकर इसकी प्रतीक्षा करें? इतना तो सत्य अवश्य है कि कभी न कभी सभी जीव मुक्त हो जाएँगे कोई नहीं रह जाएगा। किसी का भी विनाश नहीं होगा, सब का उद्धार हो जाएगा। अगर ऐसा हो, तो प्रयत्न से क्या लाभ? पहली बात तो यह है कि प्रयत्न से ही हम मौलिक केन्द्र पर पहुँच पाएंगे; दूसरी बात यह है कि हम स्वयं नहीं जानते कि हम प्रयत्न क्यों करते है । हमें प्रयत्न करते रहना है, बस। ‘सहस्रों लोगों में कुछ ही लोग यह जानते है कि वे मुक्त हो जाएँगे।’ संसार के असंख्य लोग अपने भौतिक कार्य-कलापों से ही सन्तुष्ट है । पर कुछ ऐसे लोग भी अवश्य मिलेंगे, जो जागृत हैं और जो संसार-चक्र से ऊब गये हैं। वे अपनी मौलिक साम्यावस्था में पहुँचना चाहते हैं । ऐसे विशिष्ट लोग जान-बूझकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करते है, जब कि आम लोग अनजाने ही उसमें रत रहते है।
वेदान्त दर्शन का आदि-अन्त है – ‘संसार त्याग दो’ – असत्य को छोड़कर सत्य की खोज करो। जिन्हें संसार से आसक्ति है, वे पूछ सकते हैं – “क्यों हम संसार से विमुख होने का प्रयास करें? क्यों हम मौलिक केन्द्र पर लौट चलने के लिए प्रयत्न करें? माना कि हम सभी ईश्वर के यहाँ से आये हैं, पर हम इस संसार को पर्याप्त आनन्दप्रद पाते हैं, हम क्यों न संसार का अधिकाधिक उपभोग करें? इससे विमुख होने के लिए प्रयास ही क्यों करें?” वे कहते है – देखो, संसार में कितना विकास हो रहा है, आनन्द के कितने साधन निकाले जा रहे है। यह सब कुछ तो आनन्दोपभोग के लिए ही है न? हम क्यों इन सारी चीजों से मुँह मोड़कर उस वस्तु के लिए तपस्या करें, जो इन सब से भिन्न है? इन सारी बातों के लिए जवाब यह है कि इस संसार का निश्चय ही अन्त होगा, यह खण्ड खण्ड होकर विनष्ट हो जाएगा। इन सारे आनन्दों को हम कई जन्मों में भोग चुके हैं । जिन चीजों को अभी हम देख रहे है, उनका आविर्भाव कई बार पहले भी हो चुका है। मैं यहाँ कई बार आ चुका हूँ और कई बार तुम सब से पहले भी बातें कर चुका हूँ । जिन शब्दों को तुम अभी सुन रहे हो, उन्हें इसके पहले भी अनेक बार सुन चुके हो और अभी और भी कितनी बार सुनोगे। हमारे शरीर बदलते रहते हैं, पर आत्माएँ तो एक ही रहती हैं। दूसरी बात यह है कि जिन चीजों को तुम अभी देख रहे हो, वे कालान्तर से आती ही रहती हैं। यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। मान लो कि तीन-चार पासे हैं और जब तुम उन्हें फेंकते हो, तो किसी में पाँच किसी में चार, किसी में तीन और किसी में दो अंक निकल आते है । अगर तुम उन्हें बार बार फेंकते रहो तो, निश्चय ही ये अंक दुहराये जाएंगे। हाँ यह नहीं कहा जा सकता कि कितनी बार फेंकने से ऐसा होगा; वह तो संयोग पर निर्भर करता है। ठीक यही बात आत्माओं तथा उनसे सम्बद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है । एक बार जो रचनाएँ हुई और उनके विघटन हुए, उन्हीं की आवृत्ति बार बार होगी, चाहे इन आवृत्तियों के बीच जितना भी समय लगे। पैदा होना, खाना-पीना और फिर मर जाना – जीवन का यह क्रम न जाने कितनी बार आता-जाता रहेगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं, जो सांसारिक भोग से ऊपर उठ ही नहीं सकते। पैर वे लोग जो ऊपर उठना चाहते हैं, यह अनुभव करते हैं कि ये आनन्द पारमार्थिक नहीं है, वरन् नगण्य हैं।
हम ऐसा कह सकते हैं कि कीट से लेकर मनुष्य तक जितने स्वरूप दीख पड़ते हैं, सभी शिकागो हिंडोले’ (झूले) के डिब्बों की तरह हैं जो हमेशा घूमता रहता है पर उसके डिब्बों में बैठने वाले बदलते रहते हैं। कोई मनुष्य किसी डिब्बे में घुसता है, हिंडोले के साथ घूमता है और फिर बाहर निकल आता है। किन्तु हिंडोला घूमता ही रहता है। इसी प्रकार कोई जीव किसी शरीर में प्रवेश करता है, उसमें कुछ समय के लिए निवास करता है, फिर उसे छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करता है और उसे भी छोड़कर फिर अन्य शरीर में प्रवेश कर जाता है । यह चक्र तब तक चलता रहता है, जब तक जीव इस चक्र से बाहर आकर मुक्त नहीं हो जाता।
हर देश में हर समय मनुष्य के भूत-भविष्य को जान लेने की विस्मयकर शक्ति का परिचय मिलता है। किन्तु इसकी व्याख्या यह है कि जब तक आत्मा कार्य-कारण की परिधि में रहती है – यद्यपि उसकी अन्तर्निहित स्वतन्त्रता तब भी बनी रहती है और वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग भी कर सकती है, जिसके द्वारा कुछ लोग आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाते है – तब तक इसके क्रिया-कलापों पर कार्य-कारण-नियम का बड़ा प्रभाव रहता है और इसी से कार्य-कारण-परम्परा को समझनेवाली अन्तर्दृष्टि से सम्पन्न व्यक्तियों के लिए भूत-भविष्य बता देना सम्भव हो सकता है ।
जब तक मनुष्य में वासना बनी रहेगी, तब तक उसकी अपूर्णता स्वतः प्रमाणित होती रहेगी । एक पूर्ण एवं मुक्त प्राणी कभी किसी चीज की आकांक्षा नहीं करता। ईश्वर कुछ चाहता नहीं है । अगर उसके भीतर भी इच्छाएँ जगें, तो वह ईश्वर नहीं रह जाएगा – वह अपूर्ण हो जाएगा । इसलिए यह कहना कि ईश्वर यह चाहता है, वह चाहता है, वह क्रमशः कुद्ध एवं प्रसन्न होता है – महज बच्चों का तर्क है, जिसका कोई अर्थ नहीं । इसलिए सभी आचार्यों ने कहा है “वासना को छोड़ो, कभी कोई आकांक्षा न रखो और पूर्णतः सन्तुष्ट रहो । “
बच्चा जब संसार में आता है, तो उसे दाँत नहीं रहते और वह घुटने के बल चलता है – जब वृद्ध होकर आदमी संसार से विदा लेने लगता है, तब भी उसके दाँत नहीं रहते और उसे भी घुटने के बल चलना पड़ता है । दोनों ही छोर एक से हैं । पर एक ओर जहाँ जीवन का कोई अनुभव नहीं रहता, वहाँ दूसरी ओर व्यक्ति जीवन के सारे अनुभवों को देख चुका होता है । इसी तरह जब ईथर की तरंगों के कम्पन धीमे रहते हैं तो हम प्रकाश नहीं देखते अन्धकार रहता है । पर जब ये कम्पन अत्यन्त तेज हो जाते है, तब भी अन्धकार हो जाता है । इससे तो यही सिद्ध होता है कि दो अतियों की स्थिति समान होती है, पर उनमें आकाश-पाताल का अन्तर रहता है । दीवाल की कोई वासना नहीं होती और पूर्ण व्यक्ति की भी कोई वासना नहीं रहती पर दीवाल को किसी चीज की कामना के लिए चेतना ही नहीं है, जब कि पूर्ण व्यक्ति को किसी चीज की कामना ही शेष नहीं रह जाती। ऐसे भी मूर्ख मिलेंगे ही, जो अपनी अज्ञता के कारण किसी तरह की आकांक्षा नहीं रखते, साथ ही पूर्णत्व की स्थिति में भी कोई आकांक्षा नहीं रह जाती। पर जीवन की इन दोनों स्थितियों में आकाश-पाताल का अन्तर है; एक जहाँ पशुत्व के समीप है वहाँ दूसरी ब्रह्मत्व के ।
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