विश्व : बृहत ब्रह्माण्ड – स्वामी विवेकानंद (ज्ञानयोग)
“विश्व : बृहत ब्रह्माण्ड” नामक यह व्याख्यान स्वामी विवेकानंद ने 11 जनवरी 1896 को न्यूयार्क में दिया था। यह उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ज्ञान योग में संकलित किया गया है। जैसा कि शीर्षक “विश्व : बृहत ब्रह्माण्ड” से ही स्पष्ट है, इसमें स्वामी जी समझा रहे हैं कि अनंत विस्तारपूर्ण प्रकृति वस्तुतः ईश्वर में ही दृष्टिगोचर हो रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड चेतना या आत्मा में ही प्रतिभासित हो रहा है। अन्य व्याख्यान पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग हिंदी में।
सर्वत्र विद्यमान फूल सुन्दर है, प्रभात के सूर्य का उदय सुन्दर है, प्रकृति के विविध रंग और वर्णावली सुन्दर है। समस्त जगत् सुन्दर है और मनुष्य जब से पृथ्वी पर आया है, तभी से इस सौन्दर्य का उपभोग कर रहा है । पर्वतमालाएँ गम्भीर भावव्यंजक एवं भय उत्पन्न करनेवाली हैं, प्रबल वेग से समुद्र की ओर बहने वाली नदियाँ, पदचिह्नरहित मरुदेश, अनन्त सागर, तारों से भरा आकाश – ये सभी उदात्त, भयोद्दीपक और सुन्दर हैं। ‘प्रकृति’ शब्द से कही जाने वाली सभी सत्ताएँ अति प्राचीन, स्मृति-पथ के अतीत काल से मनुष्य के मन पर कार्य कर रही हैं, वे मनुष्य की विचारधारा पर क्रमशः प्रभाव फैला रही हैं, और इस प्रभाव की प्रतिक्रिया के फल स्वरूप मनुष्य के हृदय में लगातार यह प्रश्न उठ रहा है कि यह सब क्या है और इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? अति प्राचीन मानव-रचना वेद के प्राचीन भाग में भी इसी प्रश्न की जिज्ञासा हम देखते हैं। यह सब कहाँ से आया? जिस समय सत्-असत् कुछ भी नहीं था जब अन्धकार अन्धकार से ढका हुआ था तब किसने इस जगत् का सृजन किया? कैसे किया? कौन इस रहस्य को जानता है? आज तक यही प्रश्न चला आ रहा है । लाखों बार इसका उत्तर देने की चेष्टा की गयी है, किन्तु फिर भी लाखों बार उसका फिर से उत्तर देना पड़ेगा। ऐसी बात नहीं कि ये सभी उत्तर भ्रमपूर्ण हों। प्रत्येक उत्तर में कुछ न कुछ सत्य है – कालचक्र के साथ-साथ यह सत्य भी क्रमशः बल संग्रह करता जाएगा। मैंने भारत के प्राचीन दार्शनिकों से इस प्रश्न का जो उत्तर पाया है, उसको वर्तमान मानव-ज्ञान से समन्वित करके तुम्हारे सामने रखने की चेष्टा करूँगा।
हम देखते हैं कि इस प्राचीनतम प्रश्न के कई अंगों का उत्तर पहले से ही उपलब्ध था। प्रथम तो – “जब सत् और असत् कुछ भी नहीं था” इस प्राचीन वैदिक वाक्य से प्रमाणित होता है कि एक समय ऐसा था जब जगत् नहीं था जब ये ग्रह-नक्षत्र, हमारी धरतीमाता, सागर महासागर, नदी, शैलमाला, नगर, ग्राम, मानवजाति, अन्य प्राणी, उद्भिद पक्षी, यह अनन्त प्रकार की सृष्टि, यह सब कुछ भी नहीं था – यह बात पहले से ही मालूम थी। क्या हम इस विषय में निःसन्देह हैं? यह सिद्धान्त किस प्रकार प्राप्त हुआ यह समझने की हम चेष्टा करेंगे। मनुष्य अपने चारों ओर क्या देखता है? एक छोटे-से उद्भिद को ही लो। मनुष्य देखता है कि उद्भिद धीरे-धीरे मिट्टी को फोड़कर उठता है, अन्त में बढ़ते बढ़ते एक विशाल वृक्ष हो जाता है, फिर वह नष्ट हो जाता है – केवल बीज छोड़ जाता है । वह मानो घूम-फिरकर एक वृत्त पूरा करता है । बीज से ही वह निकलता है, फिर वृक्ष हो जाता है और उसके बाद फिर बीज में ही परिणत हो जाता है । पक्षी को देखो किस प्रकार वह अण्डे में से निकलता है, सुन्दर पक्षी का रूप धारण करता है, कुछ दिन जीवित रहता है, अन्त में मर जाता है और छोड़ जाता है, अन्य कई अण्डे अर्थात भावी पक्षियों के बीज। तिर्गजातियों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार होता है और मनुष्य के सम्बन्ध में भी। प्रत्येक पदार्थ मानो किसी बीज से किसी मूल उपादान से, किसी स्व आकार से आरम्भ होता है, और स्थूल से स्थूलतर होता जाता है । कुछ समय तक ऐसा ही चलता है और अन्त में फिर से उसी सूक्ष्म रूम में उसका लय हो जाता है। वृष्टि की एक बूँद, जिसमें अभी सुन्दर सूर्य-किरणें खेल रही हैं, सागर से वाष्प के रूप में निकलकर ऐसे क्षेत्र में पहुँचती है, जहाँ वह पानी में परिणत हो जाती है और फिर वाष्प के रूप में पुनः परिणत होने के लिए समुद्र में पानी के रूप में आ गिरती है। हमारे चारों ओर स्थित प्रकृति की सारी वस्तुओं के सम्बन्ध में भी यही नियम है। हम जानते है कि आज बर्फ की चट्टानें और नदियों बड़े बड़े पर्वतों पर कार्य कर रही हैं, और उन्हें धीरे धीरे, परन्तु निश्चित रूप से, चूर-चूर कर रही हैं, चूर चूर कर उन्हें बालू कर रही हैं । फिर वही बालू बहकर समुद्र में जाती है – समुद्र में स्तर पर स्तर जमती जाती है और अन्त में पहाड़ की भांति कड़ी होकर भविष्य में पर्वत बन जाती है। वह पर्वत फिर से पिसकर बालू बन जाएगा – बस यही क्रम है। बालुका से इन पर्वत मालाओं की उत्पत्ति है और बालुका में ही इनकी परिणति है । यही मनुष्य का, प्रकृति का, जीवन का पूरा इतिहास है ।
यदि यह सत्य हो कि प्रकृति अपने सभी कार्यों में एक रूप है, यदि यह सत्य हो – और आज तक किसी ने इसका खण्डन नहीं किया – कि एक छोटासा बालू का कण जिस प्रणाली और नियम से सृष्ट होता है, प्रकाण्ड सूर्य, तारे, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत्-ब्रह्माण्ड की सृष्टि में भी वही प्रणाली वही एक नियम है; यदि यह सत्य हो कि एक परमाणु जिस ढंग से बनता है, सारा जगत् भी उसी ढंग से बनता है; यदि यह सत्य हो कि एक ही नियम समस्त जगत् में व्याप्त है, तो प्राचीन वैदिक भाषा में हम कह सकते हैं, “एक मिट्टी के ढेले को जान लेने पर हम जगत्-ब्रह्माण्ड में जितनी मिट्टी है, उस सब को जान सकते हैं।” एक, छोटे-से उद्भिद को लेकर उसके जीवन-चरित की आलोचना करके हम जगत्-ब्रह्माण्ड का स्वरूप जान सकते है । बालू के एक कण की गति का पर्यवेक्षण करके हम समस्त जगत् का रहस्य जान लेंगे। अतएव जगत्-ब्रह्माण्ड पर अपनी पूर्व आलोचना के फल का प्रयोग करने पर हम यही देखते हैं कि सभी वस्तुओं का आदि और अन्त प्रायः एक-सा होता है। पर्वत की उत्पत्ति बालुका से है, और बालुका में ही उसका अन्त है; वाष्प से नदी बनती है, और नदी फिर वाष्प हो जाती है; बीज से उद्भिद होता है और उद्भिद फिर बीज बन जाता है; मानव जीवन मनुष्य के बीजाणु से आता है और फिर से बीजाणु में ही चला जाता है । नक्षत्रपुंज, नदी, ग्रह, उपग्रह – सब कुछ नीहारिकामय अवस्था से आते हैं और फिर से उसी अवस्था में लौट जाते हैं । इससे हम क्या सीखते हैं? यही कि व्यक्त अर्थात् स्थूल अवस्था कार्य है और सूक्ष्म भाव उसका कारण है । समस्त दर्शनों के जनकस्वरूप महर्षि कपिल बहुत काल पहले प्रमाणित कर चुके हैं – “नाश: कारणलय:” – ‘नाश का अर्थ है, कारण में लय हो जाना।’ यदि इस मेज का नाश हो जाए तो यह केवल अपने कारण रूप में लौट जाएगी – फिर वह सूक्ष्म रूप भी उन परमाणुओं में बदल जाएगा, जिनके मिश्रण से यह मेज नामक पदार्थ बना था। मनुष्य जब मर जाता है, तो जिन पंचभूतों से उसके शरीर का निर्माण हुआ था, उन्हीं में उसका लय हो जाता है । इस पृथ्वी का जब ध्वंस हो जाएगा तब जिन भूतों के योग से इसका निर्माण हुआ था, उन्हीं में वह फिर परिणत हो जाएगी। इसी को नाश अर्थात् कारणलय कहते हैं । अतएव हमने सीखा कि कार्य और कारण अभिन्न हैं – भिन्न नहीं; कारण ही एक विशेष रूप धारण करने पर कार्य कहलाता है । जिन उपादानों से इस मेज की उत्पत्ति हुई वे कारण हैं और मेज कार्य; और वे ही कारण यहाँ पर मेज के रूप में वर्तमान है । यह गिलास एक कार्य है – इसके कुछ कारण थे, वे ही कारण अभी इस कार्य में वर्तमान है । काँच नामक कुछ पदार्थ और उसके साथ साथ बनाने वाले के हाथों की शक्ति इन दो उपादान और निमित्त कारणों के मेल से गिलास नामक यह आकार बना है। इसमें वे दोनों कारण वर्तमान है । जो शक्ति किसी बनाने वाले के हाथों में थी, वह संयोजक (adhesive) शक्ति के रूप में वर्तमान है – उसके न रहने पर गिलास के छोटे-छोटे खण्ड पृथक् होकर बिखर जाएँगे। फिर यह ‘काँच’-रूप उपादान भी वर्तमान है। ‘गिलास’ केवल इन सूक्ष्म कारणों की एक भिन्न रूप में अभिव्यक्ति मात्र है । यह गिलास यदि तोड़कर फेंक दी जाए, तो जो शक्ति संहति (adhesive power) के रूप में इसमें वर्तमान थी, वह लौटकर फिर अपने उपादान में मिल जाएगी और गिलास के छोटे-छोटे कण पुनः अपना पूर्व रूप धारण कर लेंगे, और तब तक उसी रूप में रहेंगे, जब तक वे पुनः एक नया रूप धारण नहीं कर लेते।
अतएव हमने देखा कि कार्य कभी कारण से भिन्न नहीं होता। वह तो उसी कारण का स्थूलतर रूप में पुनः आविर्भाव मात्र है । उसके बाद हमने सीखा कि ये सब विशेष विशेष रूप, जिन्हें हम उद्भिद अथवा तिर्यग्जाति अथवा मानवजाति कहते हैं, अनन्त काल से उठते-गिरते, घूमते-फिरते आ रहे हैं । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष पुनः बीज में चला जाता है – बस, इसी प्रकार चल रहा है, इसका कहीं अन्त नहीं है । जल की बूँदें पहाड़ पर गिरकर समुद्र में जाती हैं, फिर वाष्प होकर उठती हैं – पहाड़ पर पहुँचती हैं और नदी में लौट आती हैं । बस, इस प्रकार उठते-गिरते हुए युगचक्र चल रहा है । समस्त जीवन का यही नियम है – समस्त अस्तित्व जो हम देखते, सोचते, सुनते और कल्पना करते हैं, जो कुछ हमारे शान की सीमा के भीतर है, वह सब इसी प्रकार चल रहा है, ठीक जैसे मनुष्य के शरीर में श्वास-प्रश्वास। अतएव समस्त सृष्टि इसी प्रकार चल रही है । एक तरंग उठती है, एक गिरती है, फिर उठकर पुनः गिरती है। प्रत्येक उठती हुई तरंग के साथ एक पतन है, प्रत्येक पतन के साथ एक उठती तरंग है। समस्त ब्रह्माण्ड एकरूप होने के कारण, सर्वत्र एक ही नियम लागू होगा। अतएव हम देखते हैं कि समस्त ब्रह्माण्ड एक समय अपने कारण में लय होने को बाध्य है; सूर्य चन्द्र, ग्रह तारे पृथ्वी मन शरीर, जो कुछ इस ब्रह्माण्ड में है, सब का सब अपने स्व कारण में लीन अथवा तिरोभूत हो जाएगा, आपातत: विनष्ट हो जाएगा। पर वास्तव में वे सब अपने कारण में सूक्ष्म रूप से रहेंगे। इन सूक्ष्म रूपों से वे पुनः बाहर निकलेंगे और पुनः पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, यहाँ तक कि समस्त जगत् की सृष्टि होगी।
इस उत्थान और पतन के सम्बन्ध में और भी एक विषय जानने का है । वृक्ष से बीज होता है । किन्तु वह उसी समय फिर वृक्ष नहीं हो जाता। उसको कुछ विश्राम अथवा अति स्व अव्यक्त कार्य के समय की आवश्यकता होती है। बीज को कुछ दिन तक मिट्टी के नीचे रहकर कार्य करना पड़ता है । उसे अपने आपको खण्ड खण्ड कर देना होता है, मानो अपने को कुछ अवनत करना पड़ता है और इसी अवनति से उसकी फिर उन्नति होती है । इसी प्रकार इस समस्त ब्रह्माण्ड को भी कुछ समय तक, अदृश्य, अव्यक्त भाव से सूक्ष्म रूप से कार्य करना होता है., जिसे प्रलय अथवा सृष्टि के पूर्व की अवस्था कहते हैं, उसके बाद फिर से सृष्टि होती है । जगत्-प्रवाह के एक बार अभिव्यक्त होने को – अर्थात उसकी सूक्ष्म रूप में परिणति, कुछ दिन तक उसी अवस्था में स्थिति और फिर से उसके आविर्भाव को – एक कल्प कहते हैं । समस्त ब्रह्माण्ड इसी प्रकार कल्पों से चला आ रहा है । बृहत्तम ब्रह्माण्ड से लेकर उसके अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु तक सभी वस्तुएँ इसी प्रकार तरंगाकार में चलती रहती हैं ।
अब एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है – विशेषतः वर्तमान काल के लिए। हम देखते हैं कि सूक्ष्मतर रूप धीरे-धीरे व्यक्त हो रहे हैं, क्रमशः स्कूल से स्थूलतर होते जा रहे हैं। हम देख चुके हैं कि कारण और कार्य अभिन्न है – कार्य केवल कारण का रूपान्तर मात्र है । अतएव यह समस्त ब्रह्माण्ड शून्य में से उत्पन्न नहीं हो सकता। बिना किसी कारण के वह नहीं आ सकता; इतना ही नहीं, कारण ही कार्य के भीतर सूक्ष्म रूप से वर्तमान है । तब यह ब्रह्माण्ड किस वस्तु से उत्पन्न हुआ है? पूर्ववर्ती सूक्ष्म ब्रह्माण्ड से। मनुष्य किस वस्तु से उत्पन्न हुआ है? पूर्ववर्ती सुक्ष्म रूप से। वृक्ष कहाँ से आया? बीज से। समूचा वृक्ष बीज में वर्तमान था – वह केवल व्यक्त हो गया है । अतएव यह जगत्-ब्रह्माण्ड अपनी ही सूक्ष्मावस्था से उत्पन्न हुआ है । अब वह व्यक्त मात्र हो गया है । वह फिर से अपने सूक्ष्म रूप में चला जाएगा, फिर से व्यक्त होगा। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूक्ष्म रूप व्यक्त होकर स्थूल से स्थूलतर होता जाता है, जब तक कि वह स्थूलता की चरम सीमा तक नहीं पहुँच जाता; चरम सीमा पर पहुँचकर वह फिर उलटकर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होने लगता है । यह सूक्ष्म से आविर्भाव, क्रमशः मूल से स्थूलतर में परिणति – मानो केवल उसके अंशो का अवस्था-परिवर्तन है । बस इसी को आजकल ‘क्रमविकासवाद’ कहते है। यह बिलकुल सत्य है – संपूर्ण रूप से सत्य है; हम अपने जीवन में यह देख रहे हैं । इन क्रमविकासवादियों के साथ किसी भी विचारशील व्यक्ति के विवाद की सम्भावना नहीं । पर हमें और भी एक बात जाननी पड़ेगी – वह यह कि प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व एक क्रम संकोच की प्रक्रिया वर्तमान रहती है । बीज वृक्ष का जनक अवश्य है, परन्तु एक ओर वृक्ष उस बीज का जनक है । बीज ही वह सूक्ष्म रूप है, जिसमें से बृहत् वृक्ष निकलता है और एक दूसरा प्रकाण्ड वृक्ष था, जो इस बीज में क्रमसंकुचित रूप में वर्तमान है। सम्पूर्ण वृक्ष इसी बीज में विद्यमान है । शून्य में से कोई वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता। हम देखते है कि वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है और विशेष प्रकार के बीज से विशेष प्रकार का ही वृक्ष उत्पन्न होता है, दूसरा वृक्ष नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि उस वृक्ष का कारण यह बीज है – केवल यही बीज; और इस बीज में सम्पूर्ण वृक्ष रहता है । समूचा मनुष्य इस एक बीजाणु के भीतर है, और यह बीजाणु धीरे-धीरे अभिव्यक्त होकर मानवाकार में परिणत हो जाता है। सारा ब्रह्माण्ड सूक्ष्म ब्रह्माण्ड में रहता है । सभी कुछ अपने कारण में, अपने सूक्ष्म रूप में रहता है । अतएव क्रमविकासवाद – स्थूल से स्थूलतर रूप में क्रमाभिव्यक्ति – बिलकुल सत्य है । पर इसके साथ ही यह भी समझना होगा कि प्रत्येक क्रमविकास के पूर्व क्रमसंकोच की एक प्रक्रिया रहती है; अतएव जो क्षुद्र अणु बाद में महापुरुष हुआ, वह वास्तव में उसी महापुरुष की क्रमसंकुचित अवस्था है, वही बाद में महापुरुष-रूप में क्रमविकसित हो जाता है । यदि यह सत्य हो, तो फिर क्रमविकासवादियों के साथ हमारा कोई विवाद नहीं क्योंकि हम क्रमशः देखेंगे कि यदि वे लोग इस क्रमसंकोच की प्रक्रिया को स्वीकार कर लें, तो वे धर्म के नाशक न हो उसके प्रबल सहायक हो जाएँगे।
अब तक हमने देखा कि शून्य से किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती। सभी वस्तुएँ अनन्त काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगी। केवल तरंगों की भांति वे एक बार उठती हैं, फिर गिरती हैं। एक बार सूक्ष्म अव्यक्त रूप में जाना, फिर स्थूल व्यक्त रूप में आना – सारी प्रकृति में यह क्रमसंकोच और क्रमविकास की क्रिया चल रही है। जीवन की निम्नतम अभिव्यक्ति से लेकर पूर्णतम मनुष्य में उसकी सर्वोच्च अभिव्यक्ति की श्रेणी किसी अन्य वस्तु का क्रमसंकोच अवश्य रही है। अब प्रश्न है – वह किसका क्रमसंकोच होगी? कौन-सा पदार्थ क्रमसंकुचित हुआ था? – ईश्वर । क्रमविकासवादी लोग कहेंगे कि तुम्हारी ईश्वरसम्बन्धी धारणा भूल है। कारण, तुम लोग कहते हो कि ईश्वर बुद्धियुक्त है, पर हम तो प्रतिदिन देखते हैं कि बुद्धि बहुत बाद में आती है । मनुष्य अथवा उच्चतर जन्तुओं में ही हम बुद्धि देखते हैं, पर इस बुद्धि का जन्म होने से पूर्व इस जगत् में लाखों वर्ष बीत चुके हैं । जो भी हो तुम इन क्रमविकासवादियों की बातों से डरों मत, तुमने अभी जिस नियम की खोज की है, उसका प्रयोग करके देखो – क्या सिद्धान्त निकलता है? तुमने देखा है कि बीज से ही वृक्ष का उद्धव है और बीज में ही उसकी परिणति। इसलिए आरम्भ और अन्त समान हुए। पृथ्वी की उत्पत्ति उसके कारण से है और उस कारण में ही उसका विलय है । सभी वस्तुओं के सम्बन्ध में यही बात है – हम देखते हैं कि आदि और अन्त दोनों समान हैं । इस शृंखला का अन्त कहाँ है? हम जानते हैं कि आरम्भ जान लेने पर हम अन्त भी जान सकते हैं । इसी प्रकार अन्त जान लेने पर आदि भी जाना जा सकता है । इस समस्त ‘क्रमविकासशील’ जीवनप्रवाह की शृंखला को, जिसका एक छोर जीविसार है और दूसरा पूर्ण- मानव, एक ही वस्तु के रूप में लो। यह सम्पूर्ण श्रेणी एक ही जीवन है । इस श्रेणी के अन्त में हम पूर्ण-मानव को देखते हैं, अतएव आदि में भी वह होगा ही – यह निश्चित है । अतएव यह जीविसार अवश्य उच्चतम बुद्धि की क्रमसंकुचित अवस्था है । तुम इसको स्पष्ट रूप से भले ही न देख सको, पर वास्तव में वह क्रमसंकुचित बुद्धि ही अपने को व्यक्त कर रही है और इसी प्रकार अपने को व्यक्त करती रहेगी, जब तक वह पूर्णतम मानव के रूप में व्यक्त नहीं हो जाएगी। यह तत्त्व गणित के द्वारा निश्चित रूप से प्रमाणित किया जा सकता है । यदि ऊर्जासंधारणवाद (law of conservation of energy) सत्य हो, तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि यदि तुम किसी मशीन में पहले कुछ न डालो, तो उससे तुम कोई शक्ति प्राप्त न कर सकोगे। इंजन में पानी और कोयले के रूप में जितनी शक्ति डालोगे, ठीक उसी परिमाण में तुम्हें उसमें से शक्ति मिल सकती है, उससे थोड़ी-सी भी कम या अधिक नहीं। मैंने अपनी देह में वायु खाद्य और अन्यान्य पदार्थों के रूप में जितनी शक्ति का प्रयोग किया है बस, उतने ही परिमाण में मैं कार्य करने में समर्थ होऊँगा। ये शक्तियाँ अपना रूपमात्र बदल लेती हैं । इस विश्व-ब्रह्माण्ड में हम जड़ तत्त्व का एक परमाणु या शक्ति का एक क्षुद्र अंश भी घटा-बढ़ा नहीं सकते। यदि ऐसा हो, तो फिर यह बुद्धि है, क्या चीज? यदि वह जीविसार में वर्तमान न हो, तो यह मानना पड़ेगा कि उसकी उत्पत्ति अवश्य आकस्मिक है – तब तो, साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि असत् (कुछ नहीं) से सत् (कुछ) की उत्पत्ति होती है । पर यह बिलकुल असम्भव है । अतएव यह बात निस्सन्दिग्ध-रूप से प्रमाणित होती है कि – जैसा हम अन्यान्य विषयों में देखते हैं – जहाँ से आरम्भ होता है, अन्त भी वहीं होता है; पर हाँ कभी वह अव्यक्त रहता है और कभी व्यक्त । बस इसी प्रकार वह पूर्ण-मानव, मुक्त-पुरुष, देव-मानव जो प्रकृति के नियमों से बाहर चला गया है, जो सब के अतीत हो गया है, जिसे इस जन्म-मृत्यु के चक्र में पुनः नहीं घूमना पड़ता, जिसे ईसाई ईसा-मानव, बौद्ध बुद्ध-मानव और योगी मुक्त-पुरुष कहते हैं – इस शृंखला का एक छोर है और वही क्रमसंकुचित होकर उसके दूसरे छोर में जीविसार के रूप में वर्तमान है ।
इस सिद्धान्त को समग्र जगत् पर लागू करने से हम देखते हैं कि बुद्धि ही सृष्टि की प्रभु है, जगत् के विषय में मानव की चरम धारणा क्या हो सकती है? वह है बुद्धि, बुद्धि की अभिव्यक्ति जगत् के एक भाग का दूसरे भाग से समायोजन। प्राचीन सृष्टि-रचनावाद (design theory) इसी की अभिव्यक्ति का एक प्रयास है । हम जड़वादियों के साथ यह मानने को तैयार हैं कि बुद्धि ही जगत् की अन्तिम वस्तु है – सृष्टिक्रम में यही अन्तिम विकास है, पर साथ ही हम यह भी कह सकते हैं कि यदि यह अन्तिम विकास हो, तो आरम्भ में भी यही वर्तमान थी। जड़वादी कह सकते हैं, ‘अच्छा, ठीक है, पर मनुष्य के जन्म के पहले तो लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, उस समय तो बुद्धि का कोई अस्तित्व न था।’ इस पर हमारा उत्तर है – हाँ व्यक्त रूप में बुद्धि नहीं थी, लेकिन अव्यक्त रूप में यह अवश्य विद्यमान थी, और यह तो एक मानी हुई बात है कि पूर्ण-मानव रूप में प्रकाशित बुद्धि ही सृष्टि का अन्त है । तो फिर आदि क्या होगा? आदि भी बुद्धि ही होगी। पहले वह बुद्धि क्रमसंकुचित होती है, अन्त में वही फिर क्रमविकसित होती है । अतएव इस जगत्-ब्रह्माण्ड में जो बुद्धि अब अभिव्यक्त हो रही है, उसकी समष्टि अवश्य उस क्रमसंकुचित, सर्वव्यापी बुद्धि की ही अभिव्यक्ति है। इसी सर्वव्यापी विश्वजनीन बुद्धि का नाम है, ईश्वर। उसको फिर किसी भी नाम से क्यों न पुकारो इतना तो निश्चित है कि आदि में वही अनन्त विश्वव्यापी बुद्धि थी। वह विश्वजनीन बुद्धि क्रमसंकुचित हुई थी, और वही अपने को क्रमशः अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण- मानव या ईसा-मानव या बुद्ध-मानव में परिणत नहीं हो जाती। तब वह फिर से अपने उत्पत्ति-स्थान में लौट जाएगी । इसीलिए सभी शास्त्र कहते है, “हम उनमें जीवित हैं, उनमें ही रहकर चलते है, उन्हीं में हमारी सत्ता है।” इसीलिए सभी शास्त्र घोषणा करते है, “हम ईश्वर से आये हैं, फिर उन्हीं में लौट जाएँगे । “विभिन्न धार्मिक परिभाषाओं से मत डरो यदि परिभाषा से ही डरने लगे, तो फिर तुम दार्शनिक न बन सकोगे। ब्रह्मवादी इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते है।
मुझसे अनेक बार पूछा गया है “आप क्यों इस पुराने ‘ईश्वर’ (God) शब्द का व्यवहार करते हैं?” तो इसका उत्तर यह है कि पूर्वोक्त विश्वव्यापी बुद्धि को समझाने के लिए यही सर्वोत्तम है। इससे अच्छा और कोई शब्द नहीं मिल सकता, क्योंकि मनुष्य की सारी आशाएँ और सुख इसी एक शब्द में केन्द्रित हैं । अब इस शब्द को बदलना असम्भव है। इस प्रकार के शब्द पहले-पहल बड़े बड़े साधु-महात्माओं द्वारा गढ़े गये थे और वे इन शब्दों का तात्पर्य अच्छी तरह समझते थे। धीरे-धीरे जब समाज में उन शब्दों का प्रचार होने लगा तब अज्ञ लोग भी उन शब्दों का व्यवहार करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि शब्दों की महिमा घटने लगी। स्मरणातीत काल से ‘ईश्वर’ शब्द का व्यवहार होता आया है। सर्वव्यापी बुद्धि का भाव तथा जो कुछ महान् और पवित्र है, सब इसी शब्द में निहित है । यदि कोई मूर्ख इस शब्द का व्यवहार करने में आपत्ति करता हो, तो क्या इसलिए हमें इस शब्द को त्याग देना होगा? एक दूसरा व्यक्ति भी आकर कह सकता है – ‘मेरे इस शब्द को लो।’ फिर तीसरा भी अपना एक शब्द लेकर आएगा। यदि यही क्रम चलता रहा, तो ऐसे व्यर्थ शब्दों का कोई अन्त न होगा। इसलिए मैं कहता हूँ कि उस पुराने शब्द का ही व्यवहार करो; मन से अन्धविश्वासों को दूर कर, इस महान् प्राचीन शब्द के अर्थ को ठीक तरह से समझकर, उसका और भी उत्तम रूप से व्यवहार करो। यदि तुम लोग समझते हो कि भाव-साहचर्य-विधान (low of association of ideas) किसे कहते हैं, तो तुमको पता चलेगा कि इस शब्द के साथ कितने ही महान् ओजस्वी भावों का संयोग है, लाखों मनुष्यों ने इस शब्द का व्यवहार किया है, करोड़ों आदमियों ने इस शब्द की पूजा की है और जो कुछ सर्वोच्च एवं सुन्दरतम है, जो कुछ युक्तियुक्त, प्रेमास्पद और मानवी भावों में महान् एवं सुन्दर है, वह समस्त इस शब्द से सम्बन्धित है। अतएव यह इन सब साहचर्य-भावों का संकेत देने वाला कारण है, इसलिए इसका त्याग नहीं किया जा सकता। जो भी हो, यदि मैं तुम लोगों को केवल यह कहकर समझाने की चेष्टा करता कि ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की है, तो तुम लोगों के निकट उसका कोई अर्थ न होता। फिर भी इस सब विचार आदि के बाद हम उस प्राचीन पुरुष के ही पास पहुँचे।
अतः हम देखते है कि जड़, शक्ति, मन, बुद्धि या अन्य दूसरे नामों से परिचित विभिन्न जागतिक शक्तियाँ उस विश्वव्यापी बुद्धि की ही अभिव्यक्ति है, जो कुछ तुम देखते हो, सुनते हो या अनुभव करते हो, सब उसी की सृष्टि है – ठीक कहें, तो उसी का प्रक्षेप है; और भी ठीक कहें, तो सब कुछ स्वयं प्रभु ही है। सूर्य और ताराओं के रूप में वही उज्ज्वल भाव से विराज रहा है, वही धरतीमाता है, वही समुद्र है। वही बादलों के रूप में बरसता है, वही मृदु पवन है, जिससे हम साँस लेते हैं, वही शक्ति बनकर हमारे शरीर में कार्य कर रहा है! वही भाषण है, भाषणदाता है, फिर सुननेवाला भी वही है। वही यह मय- है, जिस पर मैं खड़ा हूँ वही यह आलोक है, जिससे मैं तुम्हें देख पा रहा हूँ; यह समस्त वही है। वह जगत् का उपादान और निमित्त कारण है, क्रमसंकुचित होकर वही अणु का रूप धारण करता है, फिर वही क्रमविकसित होकर पुनः ईश्वर बन जाता है । वही धीरे-धीरे अवनत होकर क्षुद्रतम परमाणु हो जाता है, फिर वही धीरे-धीरे अपना स्वरूप प्रकाशित करता हुआ, अन्त में पुनः अपने साथ युक्त हो जाता है – बस यही जगत् का रहस्य है । “तुम्हीं पुरुष हो, तुम्हीं स्त्री हो, यौवन के गर्व से भरे हुए भ्रमणशील नवयुवक भी तुम्हीं हो, फिर तुम्हीं बुढ़ापे में लाठी के सहारे लड़खड़ाते हुए मनुष्य हो तुम्हीं समस्त वस्तुओं में हो । हे प्रभो तुम्हीं सब कुछ हो ।”1 जगत्-प्रपंच की केवल इसी व्याख्या से मानव-युक्ति – मानव-बुद्धि परितृप्त होती है । सारांश यह कि हम उसी से जन्म लेते हैं, उसी में जीवित रहते है और उसी में लौट जाते हैं ।
- श्वेताश्वतर उपनिषद् ४। ३
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