ज्ञानयोग पर नवम प्रवचन – स्वामी विवेकानंद
“ज्ञानयोग पर नवम प्रवचन” में स्वामी विवेकानंद आत्मा की अभिव्यक्ति की सीमाओं और ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग की चर्चा कर रहे हैं। पढ़ें “ज्ञानयोग पर नवम प्रवचन”। स्वामी विवेकानंद की प्रस्तुत पुस्तक के शेष प्रवचन पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – ज्ञानयोग पर प्रवचन।
अभिव्यक्ति अनिवार्य विकृति है, क्योंकि आत्मा केवल ‘अक्षर’ से व्यक्त की जा सकती है और जैसा कि सन्त पाल ने कहा था, ‘अक्षर’ हत्या कर डालता है। अक्षर केवल प्रतिच्छाया मात्र है, उसमें जीवन नहीं हो सकता। तथापि ‘जाना’ जाने के निमित्त तत्त्व को भौतिक जामा पहनाना आवश्यक है। हम आवरण में ही वास्तविक को दृष्टि से खो बैठते हैं और उसे प्रतीक के रूप में मानने के स्थान पर उसी को वास्तविक समझने लगते हैं। यह लगभग एक विश्वव्यापी भूल है। प्रत्येक महान् धर्मोपदेशक यह जानता है और उससे सावधान रहने का प्रयत्न करता है, किन्तु साधारणतया मानवता अदृष्ट की अपेक्षा दृष्ट की पूजा करने को अधिक उन्मुख रहती है। इसीलिए व्यक्तित्व के पीछे निहित तत्त्व की ओर बारम्बार इंगित करके और उसे समय के अनुरूप एक नया आवरण देने के लिए पैगम्बरों की परम्परा संसार में चली आयी है। सत्य सदैव अपरिवर्तित रहता है, किन्तु उसे एक ‘रूपाकार’ में ही प्रस्तुत किया जा सकता है, इसलिए समय-समय पर सत्य को एक ऐसा नया रूप या अभिव्यक्ति दी जाती है जिसे मानव जाति अपनी प्रगति के फलस्वरूप ग्रहण करने में समर्थ होती है। जब हम अपने को नाम और रूप से मुक्त कर लेते हैं, विशेषतया जब हमें अच्छे या बुरे, सूक्ष्म या स्थूल, किसी भी प्रकार के शरीर की आवश्यकता नहीं रह जाती, तभी हम बन्धन से छुटकारा पाते हैं। शाश्वत प्रगति शाश्वत बन्धन होगी। हमें समस्त विभेदीकरण से परे होना ही होगा और शाश्वत एकत्व या एकरूपता अथवा ब्रह्म तक पहुँचना ही होगा। आत्मा सभी व्यक्तियों की एक है और अपरिवर्तनीय है – ‘एक और अद्वितीय है।’ वह जीवन नहीं है, अपितु वह जीवन में रूपान्तरित कर ली जाती है। वह जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ से परे है। वह निरपेक्ष एकता है। नरक के बीच भी सत्य को खोजने का साहस करो। नाम और रूप की, सापेक्ष की मुक्ति कभी यथार्थ नहीं हो सकती। कोई रूप नहीं कह सकता ‘मैं रूप की स्थिति में मुक्त हूँ।’ जब तक रूप का सम्पूर्ण भाव नष्ट नहीं होता, मुक्ति नहीं आती। यदि हमारी मुक्ति दूसरों पर आघात करती हैं तो हम मुक्त नहीं हैं। हमें दूसरों को आघात नहीं पहुँचाना चाहिए। वास्तविक अनुभव केवल एक होता है, किन्तु सापेक्ष अनुभव अवश्य ही अनेक होते हैं। समस्त ज्ञान का स्रोत हममें से प्रत्येक में है – चींटी में तथा सर्वोच्च देवदूत में। वास्तविक धर्म एक है, सारा झगड़ा रूपों का, प्रतीकों का और दृष्टान्तों का है। सतयुग खोज लेनेवालों के लिए सतयुग पहले से ही विद्यमान है। सत्य यह है कि हमने अपने को खो दिया है और संसार को खोया हुआ समझते हैं। ‘मूर्ख! क्या तू नही सुनता? तेरे अपने ही हृदय में रात-दिन वह शाश्वत संगीत हो रहा है, सच्चिदानन्दः सोऽहम्, सोऽहम्!’
मनोकल्पना को वर्जित करके विचार करना असम्भव को सम्भव बनाना है । हर विचार के दो भाग होते हैं, विचारणा और शब्द, हमें दोनों की आवश्यकता है। जगत् की व्याख्या न तो आदर्शवादी (Idealist) कर पाते हैं, न भौतिकवादी। इसके लिए हमें विचार और अभिव्यक्ति दोनों को लेना होगा। समस्त ज्ञान प्रतिबिम्बित का ज्ञान है, जैसे हम अपने ही मुख को एक दर्पण में प्रतिबिम्बित देखते हैं। अतः कोई अपनी आत्मा या ब्रह्म को नहीं जान सकता, किन्तु प्रत्येक वही आत्मा है और उसे ज्ञान का विषय बनाने के लिए, उसे उसको प्रतिबिम्बित देखना आवश्यक है। अदृश्य तत्त्व के चित्रों का यह दर्शन ही तथाकथित मूर्ति-पूजा की ओर ले जाता है। मूर्तियों या प्रतिमाओं का क्षेत्र जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक विस्तृत है। लकड़ी और पत्थर से लेकर वे ईसा मसीह या बुद्ध जैसे महान् व्यक्तियों तक फैली हैं। भारत में प्रतिमाओं का प्रारम्भ बुद्ध द्वारा एक वैयक्तिक ईश्वर के विरुद्ध किए गए अनवरत प्रचार का परिणाम है। वेदों में प्रतिमाओं की चर्चा भी नहीं है, किंतु स्रष्टा और सखा के रूप में ईश्वर के लोप की प्रतिक्रिया ने महान् धर्मोपदेशकों की प्रतिमाएँ निर्मित करने का मार्ग दिखलाया और बुद्ध स्वयं मूर्ति बन गये, जिनकी करोड़ों लोग पूजा करते हैं। सुधार के दुर्धर्ष प्रयत्नों का अन्त सदैव सच्चे सुधार को अवरुद्ध करने में होता है। उपासना करना, हर मनुष्य के स्वभाव में अन्तर्निहित है; केवल उच्चतम दर्शन शास्त्र ही विशुद्ध अमूर्त विचारणा तक पहुँच सकता है। इसलिए अपने ईश्वर की पूजा करने के लिए मनुष्य उसे सदैव एक व्यक्ति का रूप देता रहेगा। जब तक प्रतीक की पूजा – वह चाहे जो कुछ हो – उसके पीछे स्थित ईश्वर के प्रतीक रूप में होती है, स्वयं प्रतीक की और प्रतीक के लिए ही नहीं, वह बहुत अच्छी चीज है । सर्वोपरि हमें अपने को, किसी बात पर, केवल इसलिए कि वह ग्रन्थों में हैं, विश्वास करने के अन्धविश्वास से मुक्त करने की आवश्यकता है। हर वस्तु – विज्ञान, धर्म, दर्शन तथा अन्य सब को, जो किसी पुस्तक में लिखा हो उसके समरूप बनाना एक भीषणतम अत्याचार है। ग्रन्थ-पूजा मूर्ति-पूजा का निकृष्टतम रूप है। एक बारहसिंगा था, गर्वीला और स्वतन्त्र । एक राजा के सदृश उसने अपने बच्चे से कहा, “मेरी ओर देखो, मेरे शक्तिशाली सींग देखो, एक चोट से मैं आदमी मार सकता हूँ। बारहसिंगा होना कितना अच्छा है।” ठीक तभी आखेटक के बिगुल की ध्वनि दूर पर सुनायी पड़ी और बारहसिंगा अपने चकित बच्चे द्वारा अनुचरित एकदम भाग पड़ा। जब वे एक सुरक्षित स्थान पर पहुँच गये तो उसने पूछा, “हे मेरे पिता, जब तुम इतने बलवान और वीर हो तो तुम मनुष्य के सामने से क्यों भागते हो?” बारहसिंगे ने उत्तर दिया, “मेरे बच्चे, मैं जानता हूँ कि मैं बलवान और शक्तिशाली हूँ, किन्तु जब मैं वह ध्वनि सुनता हूँ तो मुझ पर कुछ ऐसा छा जाता है, जो मुझे भगाता है, मैं चाहूँ या न चाहूँ।” ऐसा ही हमारे साथ है । हम ग्रन्थों में वर्णित नियमों के ‘बिगुल की ध्वनि’ सुनते हैं, आदतें और पुराने अन्धविश्वास हमें जकड़े रहते हैं; इसका ज्ञान होने के पूर्व ही हम दृढ़ता से बँध जाते हैं और अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाते हैं जो कि मुक्ति है।
ज्ञान का अस्तित्व शाश्वत है। जो व्यक्ति किसी आध्यात्मिक सत्य को खोज लेता है, उसे हम ‘ईश्वर-प्रेरित’ कहते हैं और जो कुछ वह संसार में लाता है, वह दिव्य ज्ञान या श्रुति है। किन्तु श्रुति भी शाश्वत है और उसका अन्तिम रूप निर्धारित करके उसका अन्धानुसरण नहीं किया जा सकता। दिव्य ज्ञान की उपलब्धि ऐसे हर व्यक्ति को हो सकती है, जिसने अपने को उसे पाने के योग्य बना लिया हो। पूर्ण पवित्रता सब से आवश्यक बात है; क्योंकि ‘पवित्र हृदयवाला ही ईश्वर के दर्शन पा सकेगा।’ समस्त प्राणियों में मनुष्य सर्वोच्च है, और यह जगत् सब से महान्, क्योंकि यहाँ मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर की जो सर्वोच्च कल्पना हम कर सकते हैं, वह मानवीय है, जो भी गुण हम उसमें आरोपित करते हैं, वे मनुष्य में हैं, – केवल अल्प परिमाण में। जब हम ऊँचे उठते हैं और ईश्वर की इस कल्पना से निकलना चाहते हैं, हमें शरीर, मन और कल्पना के बाहर निकलना पड़ता है और इस जगत् को दृष्टि से परे करना होता है। जब हम ब्रह्म होने के लिए ऊँचे उठते हैं, हम संसार में नहीं रह जाते; सभी कुछ विषयरहित विषयी हो जाता है। जिस एकमात्र संसार को हम जान सकते हैं, मनुष्य उसका शिखर है। जिन्होंने एकत्व या पूर्णता प्राप्त कर ली है, ‘उनको ईश्वर में निवास करनेवाला’ कहा जाता है। समस्त घृणा ‘स्वयं का स्वयं द्वारा हनन’ है। अतः प्रेम ही जीवन का धर्म है। इस भूमिका तक उठना पूर्ण होना है, किन्तु जितने ही अधिक ‘पूर्ण’ हम होंगे, उतना ही कम काम हम कर सकेंगे। सात्त्विक जानते हैं कि यह संसार केवल बच्चों का खेल है और उसके विषय में चिन्ता नहीं करते। जब हम दो पिल्लों को लड़ते और एक दूसरे को काटते हुए देखते हैं तो हम बहुत उद्विग्न नहीं होते। हम जानते हैं यह कोई गम्भीर बात नहीं है। पूर्ण व्यक्ति जानता है, यह संसार माया है। जीवन ही संसार कहा जाता है – वह हम पर क्रिया करनेवाली परस्पर विरोधी शक्तियों का परिणाम है। भौतिकवाद कहता है, ‘मुक्ती की ध्वनि एक भ्रम मात्र है’; आदर्शवाद (idealism) कहता है, ‘जो ध्वनि बन्धन के विषय में कहती है, स्वप्न मात्र है।’ वेदान्त कहता है, ‘हम एक ही साथ मुक्त हैं और मुक्त्त नहीं भी।’ इसका अर्थ यह होता है कि हम पार्थिव स्तर पर कभी मुक्त नहीं होते, किन्तु आध्यात्मिक पक्ष में सदैव मुक्त हैं। आत्मा मुक्ति और बन्धन दोनों से परे है। हम ब्रह्म हैं, हम अमर ज्ञान हैं, इन्द्रियों से परे हैं, हम पूर्ण परमानन्द हैं।