होरी
“होरी” स्व श्री नवल सिंह भदौरिया “नवल” द्वारा ब्रज भाषा में रचित होली पर्व को समर्पित कविता है।
फागुन में गुन औगुन काहू के जाने न जात रँगे रँग होरी।
कौन पै कौन को रंग परै कोऊ जाति न पाँति बँधे एक डोरी।
नारि नवेलिनि के अँचरा उछरैं तोऊ संग करें बरजोरी।
औरु तो औरु कका सिव गाँव के साँवरी को कहि टेरत गोरी।
हौं निकसी दधि बेचन कौं, मग माँहि मिल्यौ मोय नन्द को छोरा।
मूँठि गुलाल की आँखिन में दई हाय अँधेरौ भयौ चहुँ ओरा।
आँखें जो ढाँकि कैं बैठि गई, तौनों तोरि दयो बाने चोली कौ डोरा,
आगि लगै ऐसे जा ब्रज में जहाँ होरी के ठौर पै होतु है होरा॥
राधा कही मुसिक्याय कैं स्याम सौं, नाहिने जोरी हमारी-तिहारी।
कंचन सौ सुचिगात, हमारौ इतै, उत देह तिहारी सुकारी।
महलनि बीच रहौं नित ही, तुम तौ कहलाबत हौ बनवारी।
कैसें निभैगी रहैं जब संग में, काक कहाँ, कहाँ हंस कुमारी॥
स्याम कही नेंक राधे सुनौ, गोरे रंग पै काहे कौं हौ इठिल्याती।
नैननि में कजरा कजरारौ औ सीस पै कारी ही बैनी सुहाती।
कारी ही भौंह कमान, उरोजनि कालिमा काहे कौं हौ बिसराती।
कारे ही रंग सौं नींकी लगौ, नहिं गोरी छदाम के दाम बिकाती॥
हौं नाहि जाँउ दही ब्रज बेचिबे, नंद को लाड़िलौ देतु है गारी।
छीनि कमोरी दही सिबु खाइ-हँसै अरु खूब बजावत तारी।
हौं जो कछू कहौं तो रिसिआइ कैं जोरु लगाय कैं खेचतु सारी।
देखौ तौ ढीठ नें आजु सकारे ही कैसी करी मेरी चोली की ख्वारी॥
मूँठि गुलाल की मारत है तकि, दूखति हैं अँखियाँ हू हमारी।
गैल में बाँह गहै भजिकै बरजौ नहिं मानत फारत सारी।
गागरि सीस ते डारि करै अँगिया द्वै टूक बजावतु तारी।
कैसे रहें अब जा ब्रज में अनरीति करें नित कृष्ण मुरारी॥
जाँउ सखी कैसें खेलिवे होरी हौं स्याम के हाथ में है पिचकारी।
दूरिहि ते रंग डारि हँसै मेरी सारी औ चूनरि हू रँगि डारी।
चोली में धार कौं मारत है तकि, गोरी कहै ऐसौ ढीठ खिलारी।
घूँघट कौ पट लौटि सखी मुख चूमि गयौ जा निगोड़े सौं हारी ।।
देखत ही पटकै मटुकी महि, माँगत माखन औ मिसुरी है।
एक जो होय तौ सोऊ करौं, संग ग्वालनि की एक फौज जुरी है ।
चुनरि खेंचि करै बरजोरी औ आजु तौ साँचेहू ऐसी करी है।
कहत न आवै मरी जाँऊ लाजनि या ब्रज की जिय होरी बुरी है।
सीख सुहाति न सासु की नेंकहु साँबरे के रंग अंग रँगौंगी।
बेसक नंद चबाउ करें मुरलीधर के सँग रास रचौंगी।
गाँव कलंक लगाबै भलैं अब स्याम कों लैकें हौ अंग भरौंगी
रोकै जो बालम खेलिबौ होरी तौ फागुन में कुतका पै धरौंगी।
जा दिन तें बा नंद लला बरसाने में आइ मचाई है होरी।
ता दिन ते हुरदंग मच्यौ कोऊ बूझै न जाति न छोरा न छोरी।
जेठ बहू सों ठिठोली करै तो बहू यों कहै मोहि जानौं न थोरी।
दारी के दूरि खड्यौ रहिए जो तोकों न चोरी तौ मोकौं ना चोरी।
घर तें निकसी मन माँहि गुमान भरी रँग डारति खेलति होरी।
भोरी सी लागति नेह भरी हँसि हौंस सनी लै लगावति रोरी।
सैन चलाइ मरोरति देह अँगूठा दिखाय कें कीन्हीं ठिठोरी।
फागुन की रँगमाती कौं स्याम अचक्क उठाय के नाद में बोरी।
राधा के द्वार पै आइ कैं स्याम नें, होरी मचाई बड़े भुरहारे।
पौरि में ठाड़ीं किसोरी लखी पिचकारिन रंग तबै उर मारे।
सैन सों हेरि लये फिरि पौर में लाल करे कचहू घुँघरारे।
लैकें गुलाल रँगे दोऊ गाल, कही अब जाउ लला हुरिहारे।
प्यारी सखीनि की ओट किसोरी ने लैकें अबीर की मूठि चलाई।
केसरिया पट में दृग झाँपि के स्याम ने राधा की चोट बचाई।
लै पिचकारी भरी रँग सौं दई धार उतुंग उरोजनि लाई।
सारी रँगी अँगिया हू रँगी अपु लाल के रंग रँगी है सबाई।
झोरी में रोरी किसोरी भरैं कछु छोरी अहीरनि की सँग डोलें।
अंग उमंग भरी मृदु जोबन प्रेम के रंग रँगी मृदु बोले।
स्याम बने रसिया रँग डारत मारत मूठि अबीर की खोलें।
फेंकति रोरी गुपाल पै भोरी दुहूनि कौ नेह तुलै नहिं तौलैं।
लाल ही लाल भये नंदलाल गुलाल में लाल लली हू भई है।
वे तकि मारत कंचुकि में उन गालनि में रँग धार दई है।
लाल ही लाल सखा सिब संग में लाल सखी जिबरात नई है।
लाल ही लाल भए छिति अम्बर लाल ने नेह की बेलि बई है।
एक दिना वृषभानु सुता सखी संग लिएँ चली खेलन होरी
नंदलला कछू ग्वाल लिए बित, औचक आइ मिले ब्रजखोरी
ग्वालनि घेर लई सखियाँ अरु राधा सौं स्याम करी बरजोरी।
गालनि गोरे गुलाल मल्यौ, मुख चूमि कही नाँही होरी में चोरी।
हाथ पिचकारी अरु संग कछू ग्वाल-बाल,
आये नंद लाल देखि, पौरि में को भजि गई।
चोरी-चोरा चुपके चले ही आये भीतर कों,
देखत सरूप रूप माधुरी में पगि गई।
चाहत ठगन ही रसीले मन मोहन कों,
ठगिया के हाथनि सौं आजु खुद ठगि गई।
लाल रंग डारौ मेरे ऊपर ते नीचेलों ओ,
दैया बा कन्हैया तोऊ स्याम रंग रँगि गई।
चंचल चपल स्याम लै गुलाल मुखमारै,
करकत अँखियान कीन्हौ बुरौ हालु है।
नरम कलैयाँ दैया पकरि मरोरतु है,
घुँघटा उठाय मुख चूमत गुपालु है।
हम तौ सनेह सौं निहारिवें को ढिंग जाँय,
छोरें ते न छूटै हाय ऐसौ डारौ जालु है।
धोइ-धाइ आँखिनि को काढ़त गुलाल लाल,
कढ़त गुलाल, पै कढ़े न नँदलालु है।
रंग में रँगोंगी लोकलाज में तजौंगी-औरु,
ग्वालनि की भीर में अहीर आजु ठेलिहौं।
झपटि के अंजन हू दैहों दृग खंजन में,
लाल के गुलाल लैकें आजु मुख मेलिहौं।
छीनि पिचकारी बनवारी पै चलाऊँ ऐसी,
भीजै तन स्याम, भाजैं तौऊ आजु रेलिहौं।
रीति रीति सों जो होरी खेलें तौ खिलाऊँ खूब,
एक अनरीति की हौं होरी नाँहि खेलिहौ।
स्व. श्री नवल सिंह भदौरिया हिंदी खड़ी बोली और ब्रज भाषा के जाने-माने कवि हैं। ब्रज भाषा के आधुनिक रचनाकारों में आपका नाम प्रमुख है। होलीपुरा में प्रवक्ता पद पर कार्य करते हुए उन्होंने गीत, ग़ज़ल, मुक्तक, सवैया, कहानी, निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाकार्य किया और अपने समय के जाने-माने नाटककार भी रहे। उनकी रचनाएँ देश-विदेश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हमारा प्रयास है कि हिंदीपथ के माध्यम से उनकी कालजयी कृतियाँ जन-जन तक पहुँच सकें और सभी उनसे लाभान्वित हों। संपूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व जानने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – श्री नवल सिंह भदौरिया का जीवन-परिचय।