जरत्कारु का विवाह – महाभारत का चौदहवाँ अध्याय (आस्तीकपर्व)
“जरत्कारु का विवाह” नामक यह कथा महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीक पर्व में आती है। पिछले अध्याय में विवाह के लिए पितरों का अनुरोध जरत्कारु ठुकरा नहीं पाते और किसी कन्या की खोज करने लगते हैं। एक वन में नागराज वासुकि से उनकी भेंट होती है और वे उनसे अपनी बहन का विवाह करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इसके पश्चात उस कन्या से जरत्कारु का विवाह हो जाता है और इस तरह पितरों की वंशवृद्धि की आशा समाप्त होने से बच जाती है। पढ़ें “जरत्कारु का विवाह” नामक यह कथा। महाभारत के अन्य अध्याय पढ़ने के लिए कृपया यहाँ जाएँ – महाभारत हिंदी में।
सौतिरुवाच
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः ।
महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ॥ १ ॥
उग्रश्रवा जी कहते हैं—तदनन्तर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण भार्या की प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वी पर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नी की उपलब्धि नहीं हुई ॥ १ ॥
स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् ।
चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ॥ २ ॥
एक दिन किसी वन में जाकर विप्रवर जरत्कारु ने पितरों के वचन का स्मरण करके कन्या की भिक्षा के लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी—‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाय’ ॥ २ ॥
तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा ।
न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ॥ ३ ॥
इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिन को लेकर मुनि की सेवा में उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नाम वाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ॥ ३ ॥
सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि ।
मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ॥ ४ ॥
उन महात्मा जरत्कारु का मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ ॥ ४ ॥
तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः ।
किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ॥ ५ ॥
ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारु ने पूछा—‘नागराज! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिन का क्या नाम है?’ ॥ ५ ॥
वासुकिरुवाच
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम ।
प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् ।
त्वदर्थं रक्षिता पूर्वं प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ॥ ६ ॥
वासुकि ने कहा—जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नाम से ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटि प्रदेश वाली कुमारी को पत्नी बनाने के लिये मैंने स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ! यह बहुत पहले से आप ही के लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें ॥ ६ ॥
एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् ।
स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ७ ॥
ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दरी कन्या मुनि को पत्नी रूप में प्रदान की। मुनि ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥ ७ ॥
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्री महाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत आस्तीकपर्व में वासुकि की बहिन के वरण से सम्बन्ध रखने वाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥