कलबिष्ट देवता की कहानी – Kalbisht Devta Ki Kahani In Hindi
उत्तराखण्ड की पवित्र धरती में जहां एक तरफ प्रकृक्ति ने अनुपम सुन्दरता बिखेरी है। हर पर्वत श्रृखंला से नदी-नाले के रूप में अविरल नीर की धाराएं बहती हुई दृष्टिगोचर होती है। विशाल शुभ्र हिमालय प्रहरी के रूप में मन को अपनी ओर आकर्षित करता है तो गर्मी, बरसात, जाड़े के मौसमों में विभिन्न हरी घास, पुष्प लतायें, पत्तियों की सुगन्ध लिए पवन की लहरें, अनुपम छटा, स्वच्छ आबोहवा, हरी-भरी वादियों की खूबसूरती हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है, तो वही दूसरी तरफ उत्तराखण्ड अनादिकाल से ऋषियों, तपस्वियों की तपो भूमि रही है। यही महान ऋषियों ने घने जंगलों के बीच तप किया था तथा चारों धामों का पवित्र समागम भी इसी धराधाम में देखने को मिलता है। इसीलिए उत्तराखण्ड देव भूमि के नाम से विश्व विख्यात है।
देवभूमि में प्राचीन काल त लेकर आज भी यहाँ के जनमानस में वैदिक एवं पौराणिक देवी-देवताओं के बजाय लोकाराधित लोक देवी-देवताओं की मान्यताएं अधिक है। क्योंकि लोक देवता किसी भी व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट होकर जनमानस को न्याय दिलाते हैं। इसलिए लोग अपने सभी प्रकार की अधिभौतिक तथा अधिदैविक विपत्तियों के निराकरण के लिए इन्हीं की शरण में जाते हैं। प्रत्येक गांव तथा परिवार समुदाय के अपने-अपने देवी-देवता होते हैं, जिनके कि अपने-अपने स्वरूप, प्रभाव क्षेत्र, परम्परागत इतिहास एवं अलग-अलग पूजा पद्धतियां होती हैं, जो कि वहां के लोक जीवन तथा सांस्कृतिक गतिविधियों के अभिन्न अंग होते हैं क्योंकि यहां के जाति समूह, परिवार, समुदाय की संकल्पना के अनुसार ये लोक देवता जहां एक ओर रुष्ट होने पर अनेक प्रकार की पीड़ाओं, दुःखो, संकटों तथा विपत्तियों का पहाड़ ढहा देने की सामर्थ्य रखते हैं तो वहीं दूसरी ओर जनमानस द्वारा नियमित पूजा-अनुष्ठान, अराधना, धाँसी जागर, चौरास वैसी, छः मासी लगाकर प्रसन्न किये जाने पर सब प्रकार की समृद्धि और वैभव प्रदान करने की क्षमता रखते हैं और सभी प्रकार के दुःखों, पीड़ाओं का निवारण करने कीअलौकिक शक्ति इनमें होती है। इसलिए देखा गया है कि यहां की भोली जनता वैदिक एवं पौराणिक देवताओं के पूजा पद्धतियों से विविध अनुष्ठ पचड़ो में न पड़कर अपने इष्ट देवता से अपनी वाणी में साक्षात रूप से अपनी एवं अनुरोध को अभिव्यक्त सरलता के साथ करती है। इसलिए इनके प्रति आस्था होती है। प्रत्येक ग्राम समुदाय या परिवार अपने पर आये सभी प्रक कष्टों के निवारणार्थ एकल अथवा सामूहिक रूप से उनकी भेंट-पूजा करता। हर प्रकार के संकटों से रक्षा के लिए उनसे प्रार्थना करता है। यहां के जन की अवधारणा है कि मनुष्य पर आने वाले विभिन्न संकटों एवं रोग-व्याधियका कारण देवी-देवताओं का प्रकोप होता है। इसके निराकरण के लिए उन्हें सन्न करना आवश्यक होता है। पर्वतीय समाज में देवी-देवताओं के प्रति गहन आया आज भी चली आ रही है। इनमें तत्कालीन समाज की अनेक आस्थाजे परम्पराओं, मान्यताओं एवं लोक विश्वासों का विश्वसनीय निरूपण पाया जाता है।
लोक देवताओं में मुख्यतः- गोलू, सैम, हरू, कलविष्ट, गंगनाध भनारिया, ऐड़ी, चौमू, नारसिंह, कलुवा, सिदुवा-बिदुवा, भोलेनाथ कालकिन रमौल, बखौल, लाकुड़ावीर, गढ़-देवी देवी, परी आंचरी कालिंका, भगवत सोबिया वीर, लोड़िया वीर, कलुवा वीर जटिया मषाण, सिद्धबली, हरधौल, गति कालू सैय्यद, फूल फकीर, भैरव, नरंकार, कौआ, लाटकुंवार, अन्यरी देवी, गुमाई देवता, धाम देव, नाग नाथ, भूमियाँ, पांडव, वधान देवता, 52 वीर 9 लाख कत्या, 1600 कलुवे, 88 भैरव आदि लोक देवताओं की श्रेणी में आते हैं। पंचनाम देवताओं की विनती के साथ इन लोक देवताओं का अवतरण जागर गान के माध्यम से कराण जाता है, जिसका वर्ष पर्यन्त शुक्ल पक्ष में आयोजन होता है। नवरात्रियों, त्योहारों विशेष पर्वो पर पूजा अराधना अखण्ड प्रज्वलित धुनी जलाकर घर-आंगन में अथवा देवस्थलों, पवित्र स्थानों में पूजा का कार्यक्रम किया जाता है। दशहरा दीपावली, होली, जन्माष्टमी, बसंत पंचमी, रक्षा बन्धन तथा स्थानीय त्योहर हरियाला, फूल देई, भिटौली, बगवाल, खतडुवा, घुघुतिया, घी संज्ञान आदि यहा रीति-रिवाजो और परम्पराओं को दशनि वाले त्यौहारों पर अपने कुल देवता की पूजा प्रतिष्ठा की जाती है। इन पर्यो पर सर्व प्रथम लोक देवताओं की पूजा की जाती है।
कलविष्ट का अवतार एवं जीवन परिचय
लोक कथाओं पर आधारित कलविष्ट देवता को ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि पर प्रकाश डालना सरल कार्य नहीं है परन्तु इसके लिए पौराणिक कथाओं परम्पराओं तथा जागरों, लोक आस्था सर्वोपरि है। लोक कथाओं, स्थानीय प्रमाणों पर आधारित आज से तीन-चार सौ वर्ष पूर्व की मौखिक कहानी है। जनपद अल्मोड़ा के कोटयूड़ गांव जो कि कपड़खान के समीप सिरकोट से नीचे दो किमी० के अन्तराल में स्थित है। कोट्युड़ गाव के एक तरफ जंगल है, जहां सदा हरियाली रहती है। प्राकृतिक सौन्दर्य अद्भुत वातावरण दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ तथा दूसरी तरफ हवाल बाग की ऊँची-नीची खूबसूरत तलहटी जिसमें सीढ़ीदार खेत, बीच में त्युनरी गाढ़ (नाला) कोसी नदी तक अपने मार्ग में अविरल प्रवाह से पहुंचता देखने में अद्भुत नाजारा दृष्टि गोचर होता है। स्थानीय इतिहास के एतिहासिक काल का कोटयूड़ गांव की पावन धरती में भगवान कलविष्ट ने 300 वर्ष पूर्व राम सिंह बिष्ट के घर में जन्म लिया था। इनके माता जी का नाम रमौता देवी तथा इनके दादा जैत सिंह बिष्ट थे तथा इनके चाचा का नाम करम सिंह था। रमौता की कोख से कल विष्ट ने जन्म लिया, बालक की चमत्कारिक शक्ति से राम सिंह बिष्ट के घर में किसी बात की कमी नहीं रही, उनका वैभव बढ़ता गया। कोटयूड़ गांव में चारों ओर आनन्द तथा प्रसन्नता व्याप्त होने लगी। कोई भी दुःखी नहीं था। इनके घर में राजसी वैभवों जैसी भारी सम्पदा, दूध-दही की गंगा बहने लगी। घर धन-धान्य से भरपूर होने लगा, बालक का नामकरण किया गया। कुण्डली व ग्रहों के अनुसार कुल पुरोहित द्वारा बालक का नाम केशव रखा। बालक बचपन से ही परोपकारी, यशस्वी, वीर-बहादुर तथा शान्त प्रवृति का था। मां बच्चे को चौबरे में सुलाकर अपने काम कर पर लग जाती, किन्तु बालक रोता नहीं था बल्कि खेलों में मग्न रहता था. अपने हाथ-पैरों को हिलाकर नये-नये क्रियाकलापों से सभी का मर मोह लेता था। बालक बड़े ही लाड प्यार में पलने लगा और धीरे-धीरे बड़ा होने साथ लगा। बालक देखने में अति सुन्दर हष्ट पुष्ट, अलौकिक सौन्दर्य का धनी था। अब अपने पैरों से चलने लगा 4 वर्ष की आयु में वे अपनी दादी जसौदा देवी के सा खरक (गौसाला) जाते है। गौसाला में गाय-भैंसों के झुण्ड को देखकर वे अति प्रसन्न होते हैं। उनको पशुओं के साथ खेलने में आनन्द आने लगा। कल विष्ट हो प्यार से कालू के नाम से पुकारते थे। उनके बाल सखा कलुवा कहकर चिड़ाते थे। बचपन में कलविष्ट अपने साथियों के साथ हर खेल में अव्वल रहते थे, काष्टी होनहार कुशाग्र वृद्धि बहुत ही फुरतीले सबसे अधिक ताकतवर थे। कुश्ती में वे सबको पराजित कर देते थे। बचपन से ही उनका पशुओं के प्रति लगाव था। वे अपने गौशाले में अपनी आभा दादी जसौदा देवी, माता रमोता के साथ जाया करते थे। जैत सिंह विष्ट का बड़ा नाम था। कलविष्ट के पिता राम सिंह ने अपने पुस्तैनी व्यवसाय पशुओं पर आधारित दुग्ध उत्पादन को आगे बढ़ाया जैत सिंह के पुत्र राम सिह, उदय सिंह, करम सिंह बिष्ट तीनों भाईयों ने कोटयूड़ गांव में भैंस पालन, दूध-दही के कारोबार को वृहद क्षेत्र में फैलाया। इनका यह व्यवसाय पहाड़ से लेकर माल के भावर तक फल-फूल रहा था। ये क्षत्रीय राजपूत थे, ऊँची खानदान तथा इलाके में धाक थी। गैराड़ में उनका पुश्तैनी गौशाला थी, जहां भैसों के रहने चारा-घास, पानी की व्यवस्था के लिए उनके नौकर-चाकर तैनात रहते थे, जो भैंसों को दुहने से लेकर दूध बाजार तक ले जाने का कार्य को निपटाते थे। गौशाला में केशव ने देखा कि पैसे एक साथ बैठी हैं। तीक्ष्ण बुद्धि भय मुक्त बालका केशव भैंसों को उठा कर उनके साथ खेलने लगता था। बालक तेजी से बड़ा होने लगा तो गांव के सभी लोग उसका देवदूत के समान आदर करने लगे। आमा जसौदा ने केशव के दयालु स्वभाव, परोपकारी भावनाओं को देखते हुए बालक का नाम कल्याण रख दिया। वह प्यार से कल्याण कालू कहकर बुलाती थी। कल्याण नाम से कल विष्ट प्रसिद्ध हो गये। 12 वर्ष की उम्र में ही नौजवान लगने लगे। अब वे अपने पशुओं को चराने के लिए जंगलों और घाटियों में ले जाने लगे थे। कलविष्ट शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने के लिए गोरखनाथ जी के आश्रम में बचपन में ही चले गये थे। बीच-बीच में मां से मिलने के लिए आते-रहते थे। अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी कर उन्होंने अपना पुस्तैनी दुग्ध व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात मेहनत करना प्रारम्भ कर दी। अपने पशुओं के साथ अधिकाशतः गैराड़ जंगल में बिनसर पहाड़ी के सघन वनों में प्रातः काल से ही रोजाना ले जाते तथा शाम को दूध देने वाली भैंसों को लेकर गांव वापस आ जाते। अन्य पशुओं को ग्वाड़ खरक में छोड़ आते थे। समय बीतता गया उनकी दादी जसौदा देवी रात को सोते समय बालक कल्याण को कभी गोपी चन्द तो कभी भर्तहरी, ध्रुव, कभी प्रहलाद, तो कभी श्रवण कुमार की कहानियां सुनाती थीं, जिन्हें कल्याण बड़े मन लगाकर सुनते थे। बिनसर की ऊँची-ऊँची पहाड़ियां सघन वन चीड़, देवदार, बांज वृक्षों से आच्छादित, वनस्पती, वन, पशु-पक्षी, कीट-पतंगों, झिगरी, चिड़ियों की चहचहाहट की अविरल ध्वनि विहावन घने जंगल के सन्नाटे को भंग करते रहते है। इसी जंगल में पहाड़ी ढलान पर गैराड़ स्थित है। जहां पर कल्याण विष्ट का ग्वाड़ था। अब उन्हें जंगलों में घूमना बंशी बजाना और पशुचारण में विशेष आनन्द आने लगा था। प्रति दिन प्रातः अपनी भैंसों को चराने के लिए जंगलों में ले जाया करते थे तथा दिन भर बांसुरी बजाया करते थे। इनकी बारह बीसी बारह जाति के भैंसे थीं। भैंसों को लेकर जब कलविष्ट घने सघन वनों में जाते थे तो उनके साथ लखमाविराली (बिल्ली) एवं उनका झपुवा कुत्ता (भोटिया जाति का) उनके साथ ही रहते थे, जो उनके भैंसों का ख्याल रखते थे।
माल के भावर में पुस्तैनी भवन व गौशाला
चन्द शास कों ने काली कुमाऊँ में अपना राज्य स्थापित किया तो तब से यहां के लोग माल का भावर जिसे मशाणी भावर भी कहा जाता था। जाड़ो के चार महीने माल प्रवास पर जाते थे। तत्कालीन समय में पानी की उपलब्धता को देखते हुए दो स्थानों पर बसासत होती थी। प्रथम पहाड़ में बांज के जंगलों के बीच जहां पानी के प्राकृक्तिक श्रोत होते थे तो दूसरा माल के भावर में जहां पर्याप्त पैदावार की दृष्टिकोण से अनाज उत्पन्न होता था, उस समय यह किस्सा प्रचलित था।
नौ नौर्त दस दशै, वीस बग्वाल ।
सुई विशंग फुलि भंग्याल हिट कुमैया माल ।।
माल प्रवास का दौर पहाड़ का संघर्ष काल कहा जा सकता है। वह कालखण्ड पर्वतीय क्षेत्र के लोगों का कड़ा संघर्ष व जीवन को जीने की जद्दोजहद की जीती जागती मिसाल है। माल प्रवास तब से सदियों तक पर्वतीय क्षेत्रों में चलता रहा। उसी दौर में कलविष्ट के पूर्वज भी पहाड़ व माल के भावर में आते-जाते रहते थे। भावर में कमोला-धमोला में जैत सिंह बिष्ट का पुस्तैनी हवादार भवन था जिसकी चौखट खिड़कियां शाल-शीशम की लकड़ी में नक्काशी, ताराशी हुई थी तथा उसके समीप गौशाला बनी हुई थी, जिसमें हमेशा दो ढाई सौ पशु रहते थे। केले, आम, अमरूद का बाग था, खेती में धान, गेंहू की अच्छी पैदावार होती थी। यहां मास (उड़द) की दाल बहुतायत हुआ करती थी जिस कारण भावर को मशाणी भावर के नाम से जाना जाता था जैत सिंह के पुत्र राम सिंह, करम सिंह (उदय सिंह) ने अपना दुग्ध व्यवसाय माल के भावर से लेकर पहाड़ों की ऊंची चोटियों तक फैलाया। कलविष्ट के पूर्वज चखुटिया गेवाड़ (कत्यूर घाटी) के वैराठ से अल्मोड़ा के पास कोटयूड़ा गांव में आकर बस गये थे। कोटयूड़ गांव के चारों तरफ हरियाली तथा खुशगवार मौसम रहता था न अधिक ठन्डा न ही अधिक गरम होता था। वर्ष पर्यन्त सुहावना मौसम रहता है, जो कि पाटिया गांव से लगता हुआ गांव था। राम सिंह बिष्ट ने गौशाला ग्वाड़ गैराड़ नामक स्थान में विनसर के पहाड़ी ढ़लान में बनाई थी। पूर्वजों का विरासत में मिला व्यवसाय को कलविष्ट ने भी कायम रखा उन्होंने माल के भावर से लेकर पूरी काली कुमाऊँ में हँसों के खत्ते बना कर दुग्ध व्यवसाय को मजबूत बनाया। दीपावली त्योहार के बाद यानि नवम्बर माह के अन्त में माल प्रवास पर जाने के लिए पहाड़ से समूह में बैलगाड़ी से परिवार सहित चला करते थे। ये सैकड़ों की संख्या में समूह के साथ चलते थे। यह संस्कृति आज विलुप्त हो गयी है, किन्तु इसका प्रमाण भेड़-बकरी पालक माल प्रवास पर जाते हुए आज भी देखे जाते हैं, जिनके साथ घोड़े एवं कुत्ते चला करते हैं। वे अपने भेड़-बकरियों के साथ आज भी घने जंगलों में रहते हैं और गर्मी का मौसम आते ही पहाड़ों को चल देते हैं। उत्तराखण्ड की भूमि पौराणिक, एवं अलौकिक घटना चक्रों कल विष्ट का भैंसों के साथ ऐतिहासिक प्रसंगों का चिन्तन आज भी बयां करती है। कलविष्ट का एक चरवाहे से लेकर लोक कल्याण के कार्यों तक का सफर और मरणोपरान्त देवीय शक्ति का चमत्कार, न्याय के अतिलोकप्रिय देवता के रूप में माल के भावर से लेकर पहाड़ों की ऊँची-वादियों तक बहुप्रचलित है। उन्होंने अपने पशुओं को पहाड़ की विषम भौगोलिक स्थितियों से लेकर मैदानी भू-भाग तक जहाँ नदी-नालों घाटियों में पशुचरण के लिए उपयुक्त चारा मिलता था, उन स्थानों में पहुंचकर पशुचारण के काम को विस्तृत रूप प्रदान किया था। गर्मी, बरसात में पहाड़ों में और जाड़ों के दिनों में भावर की ओर भैंसों को चराने प्रतिवर्ष आना-जाना लगा रहता था। उनके दोनों जगह स्थान-स्थान पर भैंसों के खरक बने हुए थे। माल प्रवास का दौर अभी भी प्रचलित है।
कलविष्ट की दिव्य अद्वितीय वस्तुएँ –
कलविष्ट देवता (डाना गैराड़ कल बिष्ट देवता) की चमत्कारी दिव्य अद्वितीय व्यक्तिगत वस्तुओं को जिन्हें वे बड़े ही सुरक्षित ढंग से रखते थे, जिनमें मुख्यतः बेरागी मुरूली, बिणायी, मोचंग, पखाई रमटा, 22 शेर का (कुल्हाड़ा) घुंघरू वाली दातुली, दिव्य 9 शेर का दरात, दिव्य छुरी जो सवा शेर दूध सुबह तथा सवा शेर दूध शाम को पीती थी। रतना कामली, 22 हाथ की रस्सी, ढेकी, डोंका, सुनहरा दातुला, रेंस का डन्डा, खुकरी, चाकू, चिमटा, मुहंग, हुक्का चिलम, उनकी करसमायी जौइयां बंशी, राख के कुन्डल, झपुवा कुत्ता, लखमा बिराली, नागुली-भागुली भैंसी, विसनुली उसेरी, भगुवा विजवार, खनुवा लाखो, चनुवा व्याला, सौ लैंड़ी सौ बाखुड़ी भैंसे, रूमेली धुमेली गाय, पदमकाली 12 जातियों की भैंसे, 12 बीसी बागुड़ा झुण्ड भैंसों का जो कि दिव्य अलौकिक शक्तियों से भरपूर थे। सभी अवतारी भैंसे चमत्कार दिखाने के लिए पशुओं के रूप में उत्तराखण्ड की पावन धरती पर अवतरित हुए थे, जो कभी ऋषि मुनियों के रूप में तपस्वी रहे, जिन्होंने भगवान कलविष्ट के साथ वनों में विचरण किया। चनुवा ब्याला नामक भैंसा तो उनका अभिन्न अंग था और पूरे बागुड़े में श्रेष्ठ समझदार ताकतवर था, जो पूरे बागुड़े का ध्यान रखता था यानि बागुड़े का सेनापति था।
कलविष्ट का गुरू गोपालीनाथ से मिलन
गोपाल नाथ जिनका जन्म गोस्वामी परिवार में हुआ था, जिन्होंने बाल्यावस्था में ही जोग धारण कर लिया था। उनके पास बंगाल का जादू, गढ़वाल का जादू, बौक्साड़ की विद्या, भोटान का तन्त्र-मन्त्र विद्या सहित अनन्य शक्तियों का भण्डार था, ज्ञानी, ध्यानी, महायोगी एक सिद्ध पुरूष थे। सिद्ध गोपाली नाथ का आश्रम विनसर के विशाल पर्वत के अन्दर सतखोल के बीच घने जंगल में था। जहां वे योग साधना में लीन रहते थे। पूरे क्षेत्र में इस सन्यासी का बड़ा ही नाम था। लोग बड़ी दूर-दूर से उनके आश्रम आते थे। कलविष्ट आश्रम के समीप ही जंगल में भैंसों को चराते थे। सिद्ध गोपालीनाथ की घोर तपस्या उनके तेज व चमत्कार से कलविष्ट अत्यधिक प्रभावित हुए, जिस कारण वे प्रतिरोज साधु को दूध देने आश्रम आते-जाते रहते थे। सिद्ध गोपाली नाथ के आश्रम में कलविष्ट ने बराबर आना-जाना रखा। उनकी सेवा भक्ति से सिद्ध नाथ काफी प्रभावित हुए, उन्होंने कलविष्ट को सारी विद्याओं का ज्ञान दिया। गुरू-शिष्य का गहन सम्बन्ध सदा के लिए कायम हो गया। श्री कल्याण व उनके गुरू गोपालनाथ की मानवलीला विनसर ही नहीं अपितु माल भावर से लेकर पूरे काली कुमाऊँ में उदितमान हुई। विनसर की ऊँची पहाड़ियों से लेकर तलहटी, पहाड़ी ढलान में भैंसों को चराने के लिए कलविष्ट (डाना गैराड़ कल बिष्ट देवता) जाने से पहले अपने गुरू सिद्ध गोपाल नाथ के चरण वन्दना करने आश्रम अवश्य ही जाते थे। उन्हें ताजा दूध दही देकर उनका आशीर्वाद लेकर तब अपने पशुओं की सेवा में लगते थे।
तांत्रिकों द्वारा कलविष्ट का अन्त करने की साजिश
अब दिवान सम्राट हरिराम पाण्डे ने राजपूत कलविष्ट से भयभीत होका उन्हे जादू तन्त्र-मन्त्र से समूल समाप्त करने की योजना बनायी। उसने अपने अनुचरों को भेजकर गढ़वाल से तान्त्रिक को बुलाया जो तन्त्र विद्या में निपुण था। गढ़वाल का जादू प्रसिद्ध था। गढ़वाल से आये तान्त्रिक ने रात्रि के दूसरे पहर से लाल काला कपड़ा उड़द-चावल सहित जो सामग्री लगती थी मंगायी तन्त्र-मन्त्रों का जाप करण प्रारम्भ कर दिया। मशाण शक्ति, प्रेत दाना, राक्षसदाना, खबीसदाना, सैतान दाना उसने एक-एक कर सात भूत प्रेतो को वीर कल्याण को मारने के लिए भेजा। भगवान कलविष्ट का सहयोगी मषाण ने इन रूहानी शक्तियों को कपड़खान से आगे को फटकने तक नही दिया। सभी वापस आ गये। इस क्रिया को देख तान्त्रिक घबरा गया। उसका जादू विफल हो गया। वह रातों-रात भाग खड़ा हुआ। उसके बाद बोक्साड़ से जादूगर को बुलाया गया उसकी तन्त्र विद्या भी फैल हो गयी। तदोपरान्त बंगाल का जादू की विद्या में पारंगत तान्त्रिक को बुलाया गया। बंगाल के जादू का जानकार ने अपने तन्त्र मन्त्रों से कलविष्ट को मारने का प्रयास किया तो वह भी असफल हो गया जब तान्त्रिकों के जाप-थाप से कलबिष्ट मारे नही गये तो सुखराम पाण्डे आश्चर्य में पड़ गया। उसकी योजना विफल होती जा रही थी। पंछाई ने दिवान को सलाह दी की पाली पछांऊ में एक पेग शूरवीर व्यक्ति है। वह कलबिष्ट को मार देगा। तब दिवान ने पाली पछांऊ से उस पहलवान को बुलाया और उसे कलबिष्ट को मारने की जिम्मेदारी दी गयी। उस ताकतवर व्यक्ति ने पहले कलबिष्ट से मिलना उचित समझा जब उसकी मुलाकात कलविष्ट से हुई तो उसने उसकी ताकत को परखा तो उसके होश उड़ गये। वह उल्टे पांव पाली-पछांउ को चल दिया। जब दिवान को पता चला तो वह अत्यन्त दुःखी हुआ वह सोचता रहा कि हर बार कलबिष्ट बचता जा रहा है। मेरी योजना सब विफल होती जा रही है। अब कोई ऐसी योजना बनायी जाय जिससे कलबिष्ट बच न पायें। ताकत से तो उसे नही मारा जा सकता है वह कई दिनों तक योजना के बारे में सोचता रहा। अन्त में उसने योजना बनायी कि उसके किसी पारिवारिक सदस्य, मित्र, सम्बन्धी से धोखे से हत्या करवायी जाय। वैसे तो इस कार्य के लिए कोई तैयार नही होगा लेकिन धन-सम्पदा, रियासत, भूमि के लालच में ही यह कार्य हो सकता है।
दिवान द्वारा कल विष्ट की हत्या कराने का षड्यन्त्र
जहाँ एक तरफ कल विष्ट जन कल्याण के लिए खड़े हो गये थे और पूरा जन मानस अत्याचारों, अकारण दण्डित किये जाने से आक्रोशित था। सब कल विष्ट को अपना तारणहार मानकर संघर्ष के लिए कूद पड़े थे। वही दूसरी तरफ नौ लखा दिवान द्वारा कलविष्ट को मारने का षड्यन्त्र रचा जा रहा था। जो लालच, अपार धन सम्पदा का मालिक घोर अन्याय में तुल गया था। जब उसकी सरकार व पहलवान, तांत्रिकों से कल विष्ट नही मारा जा सका तो उसने कल विष्ट के जीजा लछम सिंह देवड़ी को अपने कारिन्दे भेज कर बुलवाया। देवड़ा ग्राम का लछम सिंह देवड़ी भयंकर जुआरी था। जो अपने दुर्व्यसनों के चलते विपन्न जीवन जी रहा था। मधुसूदन पाण्डे ने पहले तो उससे हमदर्दी जताते हुए अपने विश्वास में लिया उसे अनेको प्रकार का प्रलोभन दिया। गरीबी कुछ काल के लिए बुद्धिमान को मूर्ख, दयावान को निर्दयीय, ईमानदार को बेईमान, धैर्यमान को अधीर, बलवान की बलहीन बना देती है। इसी का लाभ दीवान ने उठाया। कुछ समय बाद जब वह उसके बहकावे में आ गया तो उससे मिल कर कल विष्ट को मारने की योजना बनायी गयी। पहले तो लच्छम सिंह इस काम के लिए तैयार नही हुआ। तो दिवान ने देवड़ी को अग्रिम रूप में धनराशि दे दी। लछम सिंह देवड़ी धन के लालच में कल्याण विष्ट की हत्या की अचूक तरकीवे सोचने लगा। वह दिन में एक दिन गैराड़ के जंगल की ओर चल दिया। गैराड़ में जब वह कल्याण के पास पहुँचा तो उसने देखा कि आस-पास के गाँवों के महिला पुरूष, बच्चे, जवान वृद्ध सभी कल्याण को घेर कर बैठे है। और कल्याण सिंह अपने कन्धे में एक भैस को उठा कर मुरूली बजाते हुए एक पैर से नृत्य कर रहे है। इस दृश्य को देख कर उसके होश उड़ गये वह उल्टे पाँव वापस आ गया इस दृश्य के बारे में उसने पाण्डे को बताया और इस कार्य को करने के लिए मना करने लगा इसपर पाण्डे क्रोधित हो उठा। तब नौ लखिया पाण्डे ने कहा ताकत से तो उसे नही मारा जा सकता है। छल-कपट से तुम उसकी कुल्हाड़ी से उसका सर काट सकते हो। पाण्डे ने अचूक तरकीब बता कर देवड़ी से कहाँ उसका सिर काट कर मेरे पास लाना। लच्छम सिंह देवड़ी दिवान द्वारा बतायी गयी नायाब तरकीब पर तैयार हो गया और कल विष्ट को मारने की योजना बनाने लगा।
छल कपट से कलबिष्ट की हत्या
तदनुसार लच्छम सिंह देवड़ी एक दिन रात को चुपके से कल विष्ट के भैसों के खत्ते में जाकर एक भैंस के पैर में कील ठोक कर आ गया। और प्रातः काल दिन निकलते ही कल्याण सिंह के पास आ गया। कल विष्ट ने चरण स्पर्श प्रणाम किया तथा घर की कुशल पूछी और आने का कारण जाना। देवड़ी ने कहा बच्चों के लिए दूध नही है। एक भैंस कुछ दिनों के लिए माँगने आया हूँ। इस पर कालू ने कहा कि जो भैंस आपको पसन्द हैं। बागुड़े से छाँट कर ले जाओ। कल विष्ट ने तम्बाकू चिलम तैयार कर उसे तम्बाकू पिलाई पूरा आदर सत्कार किया। अब लच्छम सिंह उसी भैंस के पास गया जिसके पैर में कील ठोक कर गया था। कहने लगा भैस तो यही ठीक है पर इसके पैर में क्या हुआ है। यह तो पैर लचका रही है। इस पर कल बिष्ट ने उसके पैर को उठा कर देखा तो भैंस के पैर में कील चुभी हुई थी। लख देवड़ी उसी भैंस को ले जाने की बात कहने लगा। इस पर कल विष्ट झुक कर कील को दाँत से पकड़ कर जैसे ही निकाल रहे थे। तो लच्छिया देवड़ी ने उनकी कुल्हाड़ी उठाई और कल विष्ट के गर्दन पर वार कर दिया। घायल कालू ने मरने से पहले लच्छी देवड़ी के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उसे भी मौत के घाट उतार दिया और विश्वास घात करने पर श्राप दिया कि षडयन्त्रकारियों सहित तेरे वंश का नाश हो जाय। फिर अपने गले में कपड़ा बाँध कर जिससे खून की नदियाँ निकल रही थी खून को रोक कर सारी भैसों को आवाज देकर अपने पास बुलाया।
कल विष्ट एवं भैसों का आखिरी मिलन व विलाप
कुल विष्ट की आवाज सुनते ही भैंसे दौड़ती हुई अपने स्वामी के पास एकत्रित हो गयी। वेसुध पड़े कल्याण सिंह को देख भैसें अचंभित हो गयी। चनुवा, व्याला, भगुवा रांगो, नागुली, भागुली, विदुली भैंसे अपने स्वामी के समीप बैठ गयी। कल विष्ट उनके माथे पर हाथ फेर कर पलासने लगे और विलाप करने लगे कहने लगे “मेरा अन्त समय आ गया है मुझे तुम सबका भारी मलाल रह गया है”। अब तुम्हारा ख्याल कौन रखेगा। कौन तुम्हे घास सुतर काटकर खिलायेगा। कौन पानी पिलायेगा। कौन तुम्हारे साथ इस घन घोर जंगल में रहेगा। इस भयानक वन मे तुम किसके भरोसे रहोगे। मेरे साथ कितने जगह घूम कर आये अब कौन तुम्हे घुमायेगा, और कौन तुम्हारे सींगो पर तेल लगायेगा। कौन तुम्हे नहलायेगा-धुलायेगा। इस विहावान जंगल में शेर-वाघों से कौन तुम्हारी रक्षा करेगा। विकट रास्तों में कौन तुम्हारी पूँछ पकड़कर सहारा देगा। कौन तुम्हारा गोबर उठायेगा। अन्धेरी रातों में तुम्हारे साथ कौन रहेगा। कौन तुम्हे वन-वन, नदी नाले गाड़ गधेरे ऊँचे पर्वतों में ले जायेगा। मुझे इस बात का बहुत बड़ा मलाल रह गया है। कल विष्ट भैसों से कहते है कि मेरी भैंसों मेरे हृदय के टुकड़ों, जाते समय की मेरी बात सुन लो अब दिन होने के बाद भी तुम्हारे लिए रात हो गयी है। सबको पोछा-पलासा छण-छण, विलख-विलख कर आँसू गिराने लगे। और रह-रह कर जोर-जोर से विलाप करते हैं। दर्द से कराहते हुए कहते हैं कि उस दुश्मन का नाश हो जाय जिसने हमारा साथ तोड़ा है हे प्रभु अब हमारा मिलन किस जनम में होगा। भैसों को पुकारते तथा धीरे-धीरे उनकी सांसे थमने लगी। जब भैसों ने अपने स्वामी के गले से खून की धार बहती देखी तो सभी विचलित हो उठी सबकी आँसुओं की धार फूट पड़ी, वे सब रूदन मचाने लगी। भयंकर विपत्ति को भाँप कर सब विलाप करने लगे। इनके ऊपर दुःखों का ऐसा पहाड़ टूट पड़ा कि ये सब अनाथ हो गये चनुवा व्याला, नागुली, भागुली, भगुवा रांगो विदुली सभी अपने गुसांई से लिपट जाती है तथा ये विचलित होकर भयंकर विलाप करती है। ये व्याकुल भैसे इधर-उधर भाग कर रोते विलखते व रेभते हुए स्वामी को आवाज देते है। चनुवा व्याला तो अपने स्वामी से लिपट जाता है। और भयानक रूप से उसका व्याकुल हृदय काँप उठता है। जोर-जोर से रोता है। पर कल विष्ट जी का हंस उड़ जाता है। उनकी सांसे थम गयी। होनी को कौन टाल सकता है। भैसों के इस हृदय विदारक विचलित कर देने वाला विलाप को देख कर जंगल के पशु-पक्षी, पंछी जीव-जन्तुओं के भी आँसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी वे भी रोने लगे। तथा पेड़-पौधे भी रूदन मचाने लगे। इस कष्टकारी दुःखद घटना को देख सभी देवी-देवता, परी आँचरी, भूत-प्रेत, मषाण जड़ चेतन, पीर पैगम्बर सभी दुःखी हो गये। भैसों के हृदय में न जाने कैसी चोट लगी होगी उस पीड़ा का अनुभव कैसे किया जा सकता है। सतयुगी भैसे जिनका अपने स्वामी के प्रति अटूट प्रेम था को उनकी व्याकुलता, असामान्य विलाप से अनुमान लगाया जा सकता है। सभी सतयुगी भैंसे अपने सत को पुकारने लगी और ईश्वर से प्रार्थना करती है। कि हे प्रभु यदि हमारा स्वामी के प्रति सच्चा प्रेम है तो उन्ही के साथ हमारे प्राण पखेरू भी उड़ जाये अन्तर आत्मा से अपने गुसांई के प्रति लगाव, सच्चा प्यार उनके प्रति समर्पित और जिन्होंने सब कुछ त्याग कर घने जंगलों में हमारी सेवा की, रक्षा की हम उन्ही के साथ जाते है। हे भगवान अपने स्वामी के साथ इस जन्म में रहे तो उस जनम में भी हम उन्ही के साथ रहे। ऐसा वरदान दो। अब हमारा जीवित रहना व्यर्थ है। हमारे प्राण पखेरू भी उड़ जाय। ऐसी विचित्र घटना घटी स्वामी के प्रति वफादारी, और अपार प्रेम को देखते हुए यम देवता ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। और सारी भैंसे जो जहाँ खड़ी-बैठी थी। वही पर सबने दम तोड़ दिया। उनके भी प्राण पखेरू उड़ गये। यह कहानी युग युगान्तर तक अमर रहेगी।
कलविष्ट का धड़ तथा भैसें वनी पाषाण शीला
हरि विष्णु भगवान की लीला को कौन जान सकता है। प्रभु की लीला अपरमपार है। कलविष्ट के साथ सतयुगी भैंसो ने भी प्राण त्याग दिये। सारे भैसों का दंगल जो जहाँ पर बैठी थी या खड़ी थी उसी स्थान पर दम तोड़ दिया और पाषाण शीलाऐं वन गयी। उनका भैसा चनुवा व्याला, भगुवा रांका, खनुवा लाखा इनके बीच • में कलविष्ट जी का धड़ सिर से नीचे का हिस्सा शीला बन गया। और उनका सिर दो किमी हवा में उड़कर कपड़खान में जा गिरा। क्योकि पाण्डे ने लच्छी देवड़ी से कहा था। कि तू कलविष्ट का सिर काट पर मेरे पास लायेगा। देवड़ी तो कलविष्ट के हाथो मारा गया था उनका सिर चार किमी हवा में उड़ कर पाटिया गांव के ऊपर लोकपड़खान में अल्मोड़ा-ताकुला मोटर मार्ग के किनारे पर गिरा वहां मन्दिर बना दिया गया। सिर कटी लाश पर पहली नजर कईया लोहार की पड़ी। उसने सिर कटा हुआ देखा तो उसकी पहिचान की कलविष्ट को मारे जाने की खबर आग की तरह चारों तरफ फैल गयी। जिसने भी सुना वह दौड़ा चला आया। लोग नौलखा दिवान को गाली देने लगे। उसका सर्वनाश हो जाने का श्राप देने लगे। पूरे इलाके में शोक की लहर दौड़ गयी। पूरे क्षेत्र के लोग दुःखी हो गये पूरा जनमानस व्याकुल हो उठा। इस हृदय विदारक दुखद घटना ने सभी को रूला दिया। इधर कलविष्ट के मारे जाने की खबर भावर में उनकी माता-रमौता पारिवारिक जनों को दी गयी तो खबर सुनते ही माता बेहोश हो गयी उसके आंखो के सामने दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके कलेजे का टुकड़ा, आंखो का तारा बुढापे का सहारा छिन गया उनके जीवन में अंधकार छाः गया। इस भयानक दुःख की घड़ी में माता रमौता के आंखो में आंसुओं के सिवा अब शेष कुछ भी नही बचा था। उनकी माता अपनी सुध-बुध खो देती है। पुत्र वियोग में पागल हो जाती है। उसके विलाप को देखकर सभी का दिल विचलित हो उठता है। उनके मां के हृदय की पीडा को भला कैसे व्यक्त करें नजरों के सामने जवान पुत्र को खोने के बाद शेष बचा ही क्या था उनकी दुनिया उजड़ गयी थी। कलबिष्ट के शीश का अन्तिम संस्कार के लिए चाराहाट के लोग अपने यहां लाकर करना चाहते थे तो सिलौर, पाली पछाउ के लोग अपने यहां करना चाहते थे। वहां के स्थानीय लोगो ने उनके पैतृक विश्राम घाट में ही दाह संस्कार करने की पहल की। समय बीतता गया। अब कलविष्ट की पवित आजार या उनका आचरण सदव्यवहार उनके जनकल्याणकारी कदमों, उनके साहस को स्मृतियाँ शेष रह गयी थी। उधर दूसरी तरफ नौलखा दिवान एवं उसके सहयोगी खुश थे। कलबिष्ट रूपी रास्ते का कांटा जो उनके मार्ग का रोड़ा था हट जाने से प्रशन्नचित थे। इस खुशी में मदिरापान की दावतें परोसी जा रही थी और बिनसर अल्मोड़ा पाण्डे खोला का रहने वाला राज पुरोहित श्रीकृष्ण पाण्डे भी खुश था। जो कभी कलबिष्ट का अभिन्न मित्र रहा था। किन्तु पाण्डे के षडयन्त्रों का शिकार हो गया था। पाली-पछांऊ का दयाराम पछाई भी खुशियां मना रहा था। यहां तक कि दिवान के जितने भी हितैषी थे। सब इस बात को प्रचारित कर रहे थे। कि कलविष्ट जिस मार्ग में चल पड़ा था उसका परिणाम यही होना था। यह कह कर दिवान की तरफदारी कर रहे थे। और कलविष्ट का दुश्मन तो उसी का मित्र निकला। उसके लिए क्या किया जा सकता है। वही जनसाधारण जिन पर अत्याचार हो रहे थे। उससे निजात दिलाने के लिए कलविष्ट संघर्ष कर रहे थे। अब उनकी यह आस भी टूट गयी थी। दिवान के कारिन्दे अब बेखोफ होकर अत्याचार कर रहे थे। जनमानस पर और ज्यादा जुर्म होने लगे थे। दिवान के खिलाफ आवाज उठाने के लिए कोई आगे नही आ रहा था। कलविष्ट सदैव गरीबों की सहायता करते थे। उन्होने लोगों को उन्नति का मार्ग दिखाया। उनका जीवन व्यक्तित्व एवं कार्य निश्चित रूप से लोगों को प्रेरणा देते है। वक्त बदलते देर नही लगती है समय बदला होनी कुछ और ही थी।
दिव्य पवित्र आत्मा द्वारा पापियों का विनाश
कल विष्ट त्रिलोकी नारायण जिन्होने छल, कपट धोखाधड़ी, षड्यन्त्र, दुराचार, अत्याचारियों का अन्त करना था। अब भूताशण आ गये पाप के घोर अन्धकार में डूबे शक्तिशाली, गर्भ से भरा नौ लखिया दिवान के अत्याचार बढ़ते जा रहे थें। इस पौराणिक घटनाक्रम के आधार पर कल विष्ट अपने दिव्य स्वरूप में प्रकट होकर सर्वप्रथम पाटिया गाँव में दिवान के महल गये और उसके परिवार को श्रापित किया नौ लखिया दिवान का सारावंश मिटा दिया। किसी भी परिवार के सदस्य को जीवित नही छोड़ा। सारा महल खण्डहर में तब्दील हो गया एक-एक कर सभी को दण्ड देते गये। दिवान के कारण परिवार के अन्य सदस्यों को भी दण्ड भोगना पड़ा। इसके बाद लच्छी दयोड़ी के गाँव उसके घर गये शेष रहे सदस्यों को नही छोड़ा उसका पूरा खान-दान मिटा दिया। उसके परिवार में कोई बालक तक शेष नही रखा। यानि उसके परिवार में कान की कनज्योड़ी तक शेष नही रखी। अब श्री कृष्ण पाण्डे की बारी आयी। उसको भी समूल जड़ से मिटा दिया। इसके बाद पाली पछाँऊ में दयाराम पछाँऊ के घर गये उसकी भी नामेट कर दी। जिसने इनको सताया था या दिवान का हितैषी रहा था। अब उन्होने उसे भी नही छोड़ा उनके घरों मे जा कर मकान की छत जमीन पर फेंक दी तथा उनके आगे-पीछे अपना रौद्र रूप रख कर खड़े हो जाते। इन्हे अपने सामने खड़ा देख कर लोग भयभीत हो जाते थे। कलविष्ट अपना ऐसा विराट रूप दिखाते थे कि इन्हे देख कर कई तो दम तोड़ देते थे। इनके परिवारों में छोटे-बड़े सब नाचने वाले बना दिये। भाई-भाई आपस में झगड़ा-फिसाद करने लगे दूध-दही की पट्ट कर दी। खेतों की फसल चौपट होने लगी। कमाई में बरकत नही रही। हर क्षेत्र में भारी नुकसान होने लगा। एक के बाद एक विपदा आने लगी। सबकी हाड़ सूखने लगी और इनके ऊपर विपदाओं का पहाड़ टूटने लगा। कोई घर ऐसा नही था जहाँ कलेश न होता था। हर घर में अशान्ति थी। कई परिवारों के सदस्यों को अल्प आयु में ही मौत के आगोश में सुला दिया। अत्याचारियों का सर्वनाश कर दिया तो दैवीय प्रकोप की जानकारी के लिए बड़े-बड़े जानकार गणंतू। पुछेरों को दूर-दूर से बुलाकर उनके द्वारा बताये गये विधान को भी किया गया। परन्तु आपने किसी की भी नही मानी और न ही आप प्रकट हुए। जब सभी से अपना बदला ले लिया न्याय कर दिया। नारायण स्वरूप कल विष्ट देव को दया आ गयी क्योंकि ये दया के सागर है। दया के रूप में पूजे जाने वाले देवता है। अपना रौद्ररूप को शान्त किया। ये प्रकट होने लगे और घर घरों में अवतार लेने लगे। देवताओं के वर्गीकरण में ये भूतांगी वर्ग में लोक देवता की श्रेणी में विराजमान होकर पुरातन काल से लेकर कुमाऊँ में आज भी अधिकाधिक मान्यता वाले पूजित देवता हुए। आज ये बहुमान्य बहुपूजित तत्काल न्याय करने वाले देवता हैं।
न्याय के देवता के रूप में प्रथम स्थापना
कल विष्ट की प्रेत आत्मा ने जब सभी से बदला लेकर न्याय कर लिया था। तो अब वारी राजा की आयी। उनकी आत्मा राजमहल पहुँच गयी। सर्वप्रथम राजा की पकड़ की उसे कई तरह की यातनाएं दी राज महल में आये दिन कुछ न कुछ घटना होने लगी। राजा उदास रहने लगे उसका मन भी चंचल हो गया उसकी रातों की नींद उड़ गयी। किन्तु राजा समझ नही पाया। तब कल विष्ट ने रानी को पकड़ा रानी बहुत बीमार हो गयी। पूरे राज्य से नामी-ग्रामी बैद्य, हकीम बुलाकर इलाज कराया गया किन्तु रानी ठीक नही हुई। फिर गाँतू पुछेर बुलाये गये। हवन यज्ञ पूजा पाठ कराये गये परन्तु रानी को आराम नही मिला बल्कि उसका स्वास्थ्य और बिगड़ता गया। अन्त में कल विष्ट ने एक गरीब वृद्ध व्यक्ति का रूप रख कर फटे-पुराने मैले-कुचैले कपड़े पहने दुबला-पतला शरीर हाथ मे लाठी सिर पर फटी पगड़ी पहने राज महल पहुँचे महल के गेट पर उस व्यक्ति को सिपाहियों ने रोक लिया। वृद्ध ने अपने आपको जानकार होने का परिचय देकर रानी को देखने के लिए कहा। सिपाही वृद्ध व्यक्ति को महल के आँगन तक ले गये। आँगन के चबूतरे में वह बैठ गया। महल के अन्दर जाने की अनुमति उसकी भेष-भूषा को देख कर नहीं दी गयी। तो उस व्यक्ति ने कहा एक तांगा रानी के वाँये हाथ में बाँध कर मुझे यही पर दे दो। मैं यही से देख लूंगा। रानी के पास बैठे लोगों ने तागा हाथ में न बाँधकर रानी के पलंग के पाँव में बाँधकर वाहर उस व्यक्ति को थमा दिया। वृद्ध व्यक्ति ने तांगा हाथ में लेते ही कहा आप लोगों ने तांगा हाथ में न बाँध कर चारपायी के पैर में बाँध दिया है। इसे रानी के हाथ में बाँधो सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी दूर बैठे इस व्यक्ति ने सच वता दिया। तत्काल तांगा रानी के हाथ में बांधा गया। तब वृद्ध ने कहाँ रानी को तो कल विष्ट की पकड़ हो गयी है। क्योकि राजा सच्चाई जानते हुए भी सामन्त के अत्याचारों से अनजान वने रहे। राजा ने सामंत को गरीब जनता का शोषण करने की खुली छूट दी थी। यहाँ तक कि एक बार निर्दोश कल्याण को पाण्डे के दवाब में दोषी करार दिया था। अब यह तभी मानेगा जब तक कि कल विष्ट का चौबाट (चौराहा) में मन्दिर बना कर सभी पूजा-पाठ नही करते है। मैं 15 दिनों का कौल करार करता हूँ। इतना कहकर वह वृद्ध व्यक्ति अर्न्तध्यान हो गया। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह वृद्ध व्यक्ति के रूप में आखिर कौन था। इधर रानी धीरे-धीरे 15 दिनों में स्वस्थ्य हो गयी। तब जाकर राजा ने कपड़खान में मन्दिर बनाने की योजना बनायी। राजा के आदेश पर कपड़खान में स्थापना की तैयारी हुई।
सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ गैराड़धाम
कपड़खान के बाद कल विष्ट के शीर्ष रहित धड़ और भैसों की शीलाएँ जहाँ पर स्थित है। यही प्रमुख शक्तिपीठ है। उनका प्रमुख भैसों का खरक गैराड़ नामक स्थान पर था। जहाँ पर इनको मार दिया गया था। इसी स्थान पर भैसें पत्थर बन गयी थी। वही पर इनका शीर्ष रहित धड़ भी शीला बन गया था। यही मन्दिर की स्थापना हुई। पत्थर (शीला) बने शीर्ष रहित धड़ की पुरातनकाल से पूजा होती चली आ रही है। यही कल विष्ट देवता की प्रमुख शक्ति पीठ है। लम्बोत्तर पाषाण शीला मानव आकृति सिर रहित दिखायी पड़ती है। जिसमें कुल्हाड़े से मारे घाव स्पष्ट रूप में उभरे हुए दिखायी देते है। इस पाषाण शीला के अगल बगल तीनों ओर बड़े-बड़े पाषाण शीलाएँ है। जो कल विष्ट के अति प्रिय भैसा चनुवा व्याला, नागुली, भागुली भैंस की है। ये शीलाएँ भैंसनुमा आकृति की विराजमान है। इन शीलाओं के ऊपर इनको बिना तोड़े मन्दिर बनाया गया है। सन् 1980 के दशक तक टिनों से मन्दिर की छत बनायी गयी थी। किन्तु आज भव्य मन्दिर का निर्माण हो गया है। मन्दिर के समीप छोटी-बड़ी सैकड़ों पाषाण शीलाएँ स्थापित है।
सुप्रसिद्ध शक्तिपीठ गैराड़धाम :- कपड़खान के बाद कल विष्ट के शीर्ष रहित धड़ और भैसों की शीलाएँ
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जहाँ पर स्थित है। यही प्रमुख शक्तिपीठ है। उनका प्रमुख भैसों का खरक गैराड़ नामक स्थान पर था। जहाँ पर इनको मार दिया गया था। इसी स्थान पर भैसें पत्थर बन गयी थी। वही पर इनका शीर्ष रहित धड़ भी शीला बन गया था। यही मन्दिर की स्थापना हुई। पत्थर (शीला) बने शीर्ष रहित धड़ की पुरातनकाल से पूजा होती चली आ रही है। यही कल विष्ट देवता की प्रमुख शक्ति पीठ है। लम्बोत्तर पाषाण शीला मानव आकृति सिर रहित दिखायी पड़ती है। जिसमें कुल्हाड़े से मारे घाव स्पष्ट रूप में उभरे हुए दिखायी देते है। इस पाषाण शीला के अगल बगल तीनों ओर बड़े-बड़े पाषाण शीलाएँ है। जो कल विष्ट के अति प्रिय भैसा चनुवा व्याला, नागुली, भागुली भैंस की है। ये शीलाएँ भैंसनुमा आकृति की विराजमान है। इन शीलाओं के ऊपर इनको बिना तोड़े मन्दिर बनाया गया है। सन् 1980 के दशक तक टिनों से मन्दिर की छत बनायी गयी थी। किन्तु आज भव्य मन्दिर का निर्माण हो गया है। मन्दिर के समीप छोटी-बड़ी सैकड़ों पाषाण शीलाएँ स्थापित है। यही कलबिष्ट देवता यहाँ आकर वन में विचरण कर रहे हो। गैराड़ धाम अल्मोड़ा-ताकुला मोटर मार्ग (बागेश्वर मार्ग) में गैराड़ बैण्ड से आधा किमी अन्दर धौलछीना मार्ग में स्थित है। गैराड़ बैण्ड पर विशाल प्रवेश द्वार निर्मित है। यह पावन धरती कल विष्ट की कर्मस्थली रही है। उनका बचपन बाल्यकाल, किशोरावस्था, युवा तथा जीवन के आखिरी दिन भी यही गुजरे थे। ऐतिहासिक व्यक्ति कल विष्ट उनसे सम्बद्ध कतिपय घटनाओं एवं मानव से देवत्व को प्राप्त स्वरूप इस युग में अति प्रसिद्ध बहुपूजित, बहुमान्य मन्दिर यहाँ स्थापित है। सन् 2010 तक मन्दिर की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कोई संस्था नही थी किन्तु आज पूरे कुमाऊँ मण्डल स्तर पर मन्दिर कमेटी संचालित है। जिसके द्वारा मन्दिर का रख-रखाव व्यवस्थाओं को सुचारू रखने का कार्य किया जाता है। तथा श्रद्धालु भक्तजनों की सहायता में कमेटी तत्पर रहती है वहीं प्रवेश द्वार से पहले दुकाने लगती है। जहाँ पर पूजा पाठ चढ़ावे की सभी सामग्री उपलब्ध रहती है। और मन्दिर में पूजा अर्चना को पुजारी द्वारा श्री सम्पन्न कराया जाता है। विगत वर्षों से मन्दिर सामिति द्वारा अपार जनसहयोग से गैराड़ में विशाल भव्य मन्दिर का निर्माण कार्य गतिमान है, गैराड़ धाम में मन्दिर की सुन्दरता बढ़ाने के लिए खूबसूरत तरासे गये पत्थरों, पौराणिक परम्परागत नक्काशी की गयी। लकड़ी की चौखट, दरवाजें का प्रयोग कर मन्दिर की शोभा बढ़ रही है। अब मन्दिर के नवीनीकरण का कार्य पूर्णताः की ओर है।
गैराड़ में कल विष्ट देवता की भव्य मूर्ती की स्थापना
गैराड़ मन्दिर में कल विष्ट की भव्य मूर्ती स्थापित हो चुकी है। अष्ट कोण मन्दिर में विराजमान मूर्ती कल विष्ट के स्वरूप को प्रदर्शित कर रही है। भगवान कल विष्ट के शीर्ष रहित धड़शीला जो शक्ति पीठ है। ठीक उसी के आगे यह भव्य मूर्ती स्थापित की गयी है। मूर्ती में भगवान कल विष्ट के वास्तविक स्वरूप अलौकिक रूप राशि बाँये हाथ से कन्धे में कुल्हाड़ा पकड़े हुए कमर पर रस्सी बंधी जिसमें दरात व बाँसुरी लटकी है। कानों में कुण्डल, हाथों में कड़े, सिर पर पगड़ी, रेशम की धोती, कुर्ता, पहने, दाहिनें कर से आर्शीवाद देते अद्भुत आकर्षण, असमान्य, अलौकिक दिव्य स्वरूप देदिप्यमान हो रहा है। इस दिव्याकृति मूर्ती में साक्षात कल विष्ट देवता का स्वरूप झलक रहा है। मूर्ती प्राण प्रतिष्ठा के बाद यहाँ भक्तजनों, दशर्नाधियों की भारी भीड़ उमड़ रही है। साथ ही साथ इनका सहयोगी मशाँण भरड़ी की भी मूर्ति स्थापित की गयी है। जो कि इनका परम सहयोगी है तथा इनका प्रमुख कारिन्दा है। और उनके निर्देशों का पालन करता है।
कल विष्ट डाना गोलू नाम से सर्व विख्यात
गैराड़ कल विष्ट देवता की स्थापना के बाद इनके कई ऐसे चमत्कार देखने में आये। जिससे पूरे जनमानस में आस्था बढ़ती गयी। इनके भक्तगण बढ़ते गये। जगह-जगह थापना भी होने लगी इन्होने दीन-दुखियों, असहाय, दुर्बलों, पीड़ित व्यक्ति की पुकार को सुनकर दुध का दुध, पानी का पानी न्याय किया इन्होने कई चमत्कार दिखायें। चौघाणीं गोलू देवता के समान इन्होने भी तत्काल न्याय किया। इसलिए इन्हे गोलू देवता का दूसरा अवतार माना जाता है। ऊँचे डानों, पहाड़ियों, जंगल में इनके मन्दिरों की स्थापना की जाती है। इसलिए भी इन्हे डाना गोलू देवता कहा जाता है। जिस प्रकार गोलू देवता अपनी करामती शक्ति को दिखाकर अपने भक्तों से खुशी से पूजा लेते है। उसी प्रकार कल विष्ट भी अपनी चमत्कारी शक्ति दिखा कर जन-जन की पुकार को सुन कर पूजा लेते है। इसलिए भी इनका नाम डाना गोलू देवता से प्रसिद्ध हुआ। कल विष्ट जीवन पर्यन्त ऊँचे पहाड़ों में, सघन वनों में भैसों को लेकर खत्तो में रहे। पहाड़ी डानो में रहने से इनकी स्थापना भी सघन वनों के बीच तथा डानों में, ऊँचे टीले में ही हुई है। इनके अधिकांश मन्दिरों की स्थापना डानों में है। इसलिए डाना और गोलू देवता के सामन न्याय करने से इनका नाम “डाना गोलू” पड़ गया। श्री कृष्ण भगवान का कलयुगी अवतार कल विष्ट का माना जाता है। श्री कृष्ण ने द्वापर में जिस प्रकार अपनी माया दिखायी उसी प्रकार कल विष्ट ने भी कई चमत्कार दिखाऐ। ये अन्याय करने वाले या जिसके द्वारा पीड़ित को सताया गया हो उसके घमण्ड का नाश कर पीड़ित व्यक्ति के पाँव में गिरने के लिए उसे मजबूर कर देते हैं। अभिमानी इनके चरणों में सात हाथ लम्बा हो जाता है। कल विष्ट अपने भक्तों की रक्षा करते है। और मनोवांछित फल देते है। भक्तजन अपनी सभी प्रकार की अधिभौतिक तथा अधिदैविक विपत्तियों के
निराकरण के लिए इनकी शरण में आते है। धन या जन की हानि होने कोई दुर्घटना घटिन होने, अग्नि प्रकोप, अवर्षण अतिवषर्ण भूत-प्रेत, बाधा, फसल की हानि कारोबार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने, नौकरी, स्वास्थ्य बिमारी शादी-व्यापार आदि सभी के निराकरण के लिए इन्ही के शरण में जाते है। इसी प्रकार घर-परिवार में कोई शुभ कार्य हो, पशु प्रसव हो नयी फसल का नया अन्न या फल फूल हो सर्वप्रथम उसका अंश इनको अर्पित किया जाता है। ईष्ट देवता या कुल देवता न्याय के देवता के रूप में पूजित डाना गोलू देवता का गहन प्रभाव है।
एकल व सामूहिक न्याय व्यवस्था
कल विष्ट देवता के मन्दिरों में हजारों लोगो का समूह प्रतिदिन मनौती माँगने आता है। जब किसी व्यक्ति को न्याय नही मिलता है। उसका विषय जो भी रहे और वह चाहे किसी भी जाति समुदाय धर्म का हो तो उसके द्वारा कलविष्ट देवता को कही से भी पुकारने पर उसकी माँग को सुनकर कलविष्ट देवता उसे न्याय दिलाते है। उसका फैसला अवश्य होता है। फैसला होने का समय निश्चित नही है। पर अधिकाशतः देखने में आता है। फैसला तीन दिन, तीन माह, तीन साल के भीतर हो जाता है। पीड़ित को न्याय मिलने पर उसके द्वारा कल विष्ट के मन्दिर में भेंट-पूजा एकल या सपरिवार देनी होती है। कभी-कभी दोनो पक्षों द्वारा आपस में मिलकर बतौर राजीनामा के रूप में भी भेंट-पूजा देनी होती है। जिसका विधान रात्रि में जागर लगाकर दोनो तरफ के पारिवारिक सदस्यों की पीठ झाड़ कर प्रातः काल कल विष्ट देवता के मन्दिर में सामुहिक रूप से पशुबलि या जटा-नारियल, घन्टी, ध्वजा, वस्त्र चढ़ावें के रूप में पूजा करनी होती है। पूजा को मन्दिर का पुजारी श्री सम्पन्न कराता है। पर्वतीय आँचल के सांस्कृतिक वातावरण का यह परिदृश्य एक अभिन्न अंग है। इसी के अनुसार इसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक स्तर का आँकलन किया जा सकता है। यह व्यवस्था यहाँ की रीति रिवाज एवं सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को दर्शाती है। डाना गोलू की पूजा, फूल-बतासे, धूप-अगरबत्ती फल, मेवा, मक्खन, दूध घी तेल की भेंट देकर भी की जाती है। जिसमें कोई ऐसा बन्धन नही होता है। मनौतिया माँगने से लेकर कामनापूर्ति तक सरल और सुविधा जनक तरीके से पूजा का विधान है। आज के इस आधुनिक युग में भी वृद्धिजीवी से लेकर राजनेता अधिकारी से मजदूर तक कल विष्ट के दरबार में न्याय के लिए आते है। अधिकाशतः सम्पति एवं सन्तान की कामना, क्लेश, कष्ट तथा मानसिक विकृति से पीड़ित, नौकरी, चुनाव, स्वास्थ्य, रोग, व्यवसाय, लम्बी आयु, विवाह, तलाक, गृह निर्माण, खोयी वस्तु, खोया हुआ व्यक्ति, जमीन जायदाद का विवाद, पारिवारिक विवाद, पानी, सड़क, सरद, भूमि बंटवारा, झगड़ा-फिसाद, मार-पीट, महिला उत्पीड़न, प्रेम, लेन-देन, चोरी, गलत अभियोग, संजायत व्यवसाय, दुर्व्यवहार, प्रशासनिक उत्पीड़न, न्यायालय से उचित न्याय न मिल पाना तक का इन्साफ करने की गुहार लगाने इनके दरबार में पीड़ित आते है। यह पुकार मन्दिर में चावल डाल कर, स्टाम्प लिखकर, सादे कागज में लिख कर मन्दिर में टाँगने से लेकर आवाज देकर व्यथा दूर करने के लिए कही से भी पीड़ित न्याय की माँग करता है। और जिसका प्रतिफल उसको मिलता भी है। इसी लिए प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक यह धार्मिक व्यवस्था प्रचलित है। आज भी कल विष्ट देवता की चमत्कारिक शक्ति पर लोगो की अटूट आस्था कायम है। इनके दरबार में जो भी आता है। वह खाली हाथ नही लौटता है। उसको कल विष्ट अदृश्य रूप में किसी न किसी रास्ते से लाभ पहुँचाते है। प्राय: ऐसा भी देखने में आता है कि यदि किसी व्यक्ति द्वारा अन्याय करने के उपरान्त इनके मन्दिर में पुकार लगायी जाती है तो ये उसे भी नही छोड़ते है। बल्कि सच्चा न्याय करते है। और प्रतिज्ञानुसार फरियादी को भी भेंट-पूजा देनी होती है। आज सरकार द्वारा पशुबलि में रोक लगा दी गयी है। जिससे इनके फरियादी नारियल, घण्टी, ध्वजा, वस्त्र, फूल-बतासे आदि भेंट में पूजा लेकर आते है। और श्रद्धाभाव से पूजा-अर्चना करते है। इनके मन्दिरों में प्रायः प्रार्थनायें सामान्यतः उनके आर्शीवाद प्राप्ति के लिए की जाती है।
दिव्य पाषाणं शीलाओं की विशेषता
गैराड़ मन्दिर के समीप स्थापित सैकड़ों पाषाणं शीलाओं का अनोखा चमत्कार कल विष्ट के भक्तजनों को समय-समय पर दिखायी दिया है। कहा जाता है कि भैंस नुमा आकृति की इन धरम शीलाओं को तोड़ने या क्षति पहुँचाने पर उसका प्रतिफल बहुत बुरा मिलता है। इसलिए इन्हे तोड़ा नही जाता है। जैसा कि एक बार मोटर मार्ग निमार्ण के समय एक मजदूर ने एक शीला को तोड़ने के लिए सब्बल चलाया तो सब्बल की चोट पड़ते ही पाषाण शीला से रक्तधारा फूट पड़ी और एक टुकड़ा पत्थर का निकल गया जिससे यह सब देख सारे मजदूरों को आश्चर्य हुआ और वह कार्य बन्द कर ठेकेदार के पास पहुँचे। सारा वृतान्त ठेकेदार को सुनाया। उसी रात ठेकेदार के सपने में कल विष्ट देवता आये और उन्होने बताया कि तुने मेरे एक भैंस की पसली पर चोट मार दी है। जिससे वह घायल हो गया है। तब ठेकेदार को हिदायत दी कि ये सारी शीलायें मार्ग के ऊपर नीचे मेरी भैसे है। इनको नुकसान पहुँचाने वालो को में माफ नहीं करता हूँ। इतना कहने के बाद कल विष्ट भगवान अर्न्तध्यान हो गये। ठेकेदार प्रातः काल नींद से जागने के बाद गैराड़ मन्दिर में आया और उसने पूजा-पाठ कर क्षमा याचना की तथा उस स्थान से निर्माण कार्य रोक कर शीलाओं से हटकर मोटर मार्ग का निर्माण पहाड़ी काट कर दूसरी तरफ से किया गया। जिसे आज भी देखा जा सकता है। गैराड़ मन्दिर कपड़खान से 4 किमी दूर घने जंगल के बीच स्थित है। जहाँ पर ये पाषाण शीलाएँ आज भी विद्यमान हैं। ये विचित्र शीलाओं को गौर से देखने पर इनमें भैसों की आकृति उनका स्वरूप मुँह पूँछ, सींगे, पीठ उभरे हुए दिखायी पड़ते है। इन शीलाओं को देख कर मन में शान्ति प्राप्त होती है। इनके दर्शन मात्र से ही सारे कष्ट दूर हो जाते है। तथा मनोकामना पूरी होती है। इन पाषाण शीलाओं में अंधेरी रातों में प्रकाश दिखायी पड़ता है। ये चमकते दिखायी देते है। जिन्हे ये दिखायी दें तो कहाँ जाता है उसका बेड़ा पार हो जाता है। सब प्रकार के संकटों से मुक्त होकर सभी प्रकार से धन-धान्य से सम्पन्न हो जाता है। जिसके लिए स्वच्छ मन श्रद्धा भाव से नियत विधि-विधान के अनुसार पूजा-प्रतिष्ठा करनी होती है। वर्ष भर गैराड़ मन्दिर में विदेशी सैलानियों का भी आना-जाना लगा रहता है। यहाँ पहुँचने पर हिमालय की प्रखरता गंगा की पवित्रता का सुन्दर समनवय का समागम देखने को मिलता है। कल विष्ट की सतयुगी भैंसो के ये पाषाण शीलाएँ देखने मे साधारण पत्थरों जैसे लगते है पर ये चमत्कारिक शीलाएँ है।
विशिष्ट अराधना का विधान – कल विष्ट देवता की आराधना में प्रत्येक ग्राम समुदाय या परिवार का इनके प्रति अटूट आस्था होती है। वह अपने घर पर आये सभी प्रकार के कष्टों के इनके प्रार्थ अथवा आने वाले कष्टों के प्रतिवारणार्थ अपने क्षेत्र से दूरस्थ प्रदेशों में निष्यरत रहने पर भी समय-समय पर सपरिवार अपने गाँव/क्षेत्र में आकर ऐकल अथवा सामूहिक रूप में भेंट पूजा देता है तथा हर प्रकार के संकटों से रक्षा के लिए इनसे प्रार्थना करता है और कुछ प्राप्ति के लिए मनौतियाँ भी करता है। कल किए देवता की विशिष्ट आराधना जागर, धौंसी, ख्याला, नौर्त लगाकर की जाती है। इसमें ढोल, दमाऊ, हुड़का डमरू, कंस की थाली, बांसूरी, नौगूरी, तुतुरी, मशकवीन आदि वाध्ययन्त्रों का प्रयोग किया जाता है। जागर गायक जिसे जगरिया दास, गुरू कहा जाता है। जो मगलामंगल करण समर्थ देव शक्ति को जागृत कर इनकी जीवन गाथा का गान करता है। जन्म से लेकर पूरे जीवन पर्यन्त की मुख्य चमत्कारिक घटनाओं को गुरू द्वारा गान किया जाता है और डंगरिया के माध्यम से अवतरण कराता है। एक रात से लेकर दो तीन रातों की जागर लगती है। चार दिन लगने वाली जागर को चौरास कहा जाता है। पांच रातों का महाभारत लगता है। यानि पाँच रात जागर में भारत गान दास द्वारा इनके जीवन का पूरा वृतान्त गाकर सुनाया जाता है। ये जागर 22 दिन की वैसी लगाकर छःमाह की छःमासी लेकर पूजा की जाती है। तथा अराधना एक रात की भी होती है। जो व्यक्तिगत एवं सामूहिक भी होती है। हर वर्ष चैत्र और असोज के नव रात्रियों में इनके मन्दिरों में भारी भीड़ रहती है। देव भवन के अन्तर्गत धूनी की रचना होती है। 3-4 फिट का अग्नि कुण्ड बना होता है। जिसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है। कल विष्ट का डर्गरिया देवतावतरण होने पर इस धुनी के चारो तरफ चक्कर लगाते हुए नाचता है। फरियादी लोगों द्वारा दुलैंच पर रखे हुए चावलों से निराकरण करता है। और अपने भक्तों को गुपटोली राख की वभूती लगाता है। कल विष्ट देवता न्याय के देवता है। जिनका अवतार घर-घरों में है। पूरे कुमाऊँ मण्डल में इनकी आराधना होती है। तथा गढ़वाल के कई हिस्सों में भी इनकी पूजा होती है। कल विष्ट की विशिष्ट विधि-विधान से भेंट पूजा में घाण्ट घटियां, रोली
सिन्दूर, कुमकुम, धूप, तेल, रूई, लाल काला पीला सफेद कपड़े का निशाण, दूध, दही, मक्खन, हलवा रोट, खीर खिचड़ी एवं त्रिशूल, वंशी, मोचंग, कुल्हाड़ी, दरात, तम्बाकू, बीड़ी सिगरेट, पान का बीडा, लौंग, सुपारी, हवन सामग्री, अगरबत्ती, धूप, बतासे, अष्ट वलि, नारियल, बिजेसार, ढोल नांगरी, तुतुरी, लोहे के दीपधर आदि का चढ़ावा करते है। पूजा-अर्चना विधिवत तरीके से मन्दिर का पुजारी करवाता है। न्याय के देवता के रूप में बहुपूजित कल विष्ट देवता के मन्दिरों में सामूहिक रूप में लोग बड़ी दूर-दूर से पूजा-अर्चना करने के लिए आते है। कल विष्ट पराशक्तियों से सम्पन्न लोक मान्य बहुपूजित फलदायी एवं वरदायी तुरन्त न्याय करने वाले देवता है।
अटूट आस्था व न्याय
कल विष्ट देवता के चमत्कार और उनके न्याय की अनेकानेक कहानियाँ, किस्से है जिनका वर्णन करना मुश्किल काम है।