नारद मुनि की कथा
नारद जी पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिये आये। नारदजी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गये। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें मनुष्य योनि में पैदा होने का शाप दे दिया।
उस शाप के प्रभाव से देवर्षि नारद का जन्म एक शूद्र कुल में हुआ। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगी। एक दिन इनके गाँव में कुछ महात्मा आये और चातुर्मास्य बिताने के लिये वहीं ठहर गये। नारद जी बचपन से ही अत्यन्त सुशील थे। वे खेलकूद छोड़कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी से छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो ये तन्मय होकर सुना करते थे। संतलोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिये दे देते थे।
साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गये। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान् नारायण के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
एक दिन साँप के काटने से इनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद मुनि (Narad Muni) इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान् का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन जब देवर्षि नारद वन में बैठकर भगवान् के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान् प्रकट हो गये और थोड़ी देर तक अपने दिव्यस्व रूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गये। भगवान् का दुबारा दर्शन करनेके लिये नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गयी। वे बार बार अपने मन को समेट कर भगवान् के ध्यान का प्रयास करने लगे, किन्तु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशवाणी हुई, “हे दासी-पुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुनः प्राप्त करोगे।”
समय आने पर देवर्षि नारद का पाञ्चभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान् के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिये अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए निरन्तर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत नारद भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुन्दर व्याख्या है।
अब भी ये अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मङ्गलमय जीवन संसार के मङ्गल के लिये ही है। ये ज्ञान के स्वरूप, विद्या भण्डार, आनन्द के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।