यथार्थ उपासना
कुछ समय बाद स्वामी विवेकानन्द श्रीरामेश्वर-मन्दिर में गये, वहाँ एकत्र जनता को दो शब्द कहने के लिए उनसे प्रार्थना की गयी। उस अवसर पर स्वामी विवेकानंद ने निम्नलिखित शब्दों में यथार्थ उपासना विषयक भाषण दिया–
धर्म प्रेम में ही है, अनुष्ठानों में नहीं, और वह भी हार्दिक प्रेम जो शुद्ध तथा निष्कपट हो। यदि मनुष्य शरीर तथा मन दोनों से शुद्ध नहीं है तो उसका मन्दिर में जाकर शिवोपासना करना व्यर्थ ही है। उन्हीं लोगों की प्रार्थना को, जो शरीर तथा मन में शुद्ध हैं, शिव सुनते हैं और इसके विपरीत जो लोग अशुद्ध होकर भी दूसरों को धर्म की शिक्षा देते हैं वे अन्त में निश्चय ही असफल रहेंगे। बाह्यपूजा मानस-पूजा का प्रतीक मात्र है – असल में मानस-पूजा तथा चित्त की शुद्धि ही सच्ची चीज़ें हैं। इनके बिना बाह्यपूजा से कोई लाभ नहीं। इसका सदैव मनन करना चाहिए। अतः तुम सभी को यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए।
आजकल कलियुग में लोगों का इतना अधिक मानसिक पतन हो गया है कि वे यह समझ बैठे हैं कि वे चाहे जितना भी पाप करते रहें, परन्तु उसके बाद यदि वे किसी पुण्यतीर्थ में चले जाएँ, तो उनके सारे पाप नष्ट हो जाएँगे। पर यदि कोई मनुष्य अशुद्ध मन से मन्दिर में जाता है तो उसका पाप और भी अधिक बढ़ जाता है तथा वह अपने घर निम्नतर स्थिति में वापस जाता है। तीर्थ वह स्थान है, जहाँ शुद्ध पवित्र लोग रहते हैं तथा जो पवित्र वस्तुओं से परिपूर्ण है। किसी स्थान पर पवित्र लोग रहने लगें और यदि वहाँ कोई मन्दिर न भी हो, तो भी वह स्थान तीर्थ बन जाता है। इसी प्रकार किसी ऐसे स्थान में जहाँ सैकड़ों मन्दिर हों, यदि अशुद्ध लोग रहने लगें तो यह समझ लेना चाहिए कि उस स्थान का तीर्थत्व नष्ट हो गया है। अतएव किसी तीर्थस्थान में रहना भी बड़ा कठिन काम है, क्योंकि यदि किसी साधारण स्थान पर कोई पाप किया जाता है तो उससे तो छुटकारा सरलता से हो सकता है, परन्तु किसी तीर्थस्थान में किया हुआ पाप कभी भी दूर नहीं किया जा सकता। समस्त उपासनाओं का यही धर्म है कि मनुष्य शुद्ध रहे तथा दूसरों के प्रति सदैव भला करे। वह मनुष्य जो शिव को निर्धन, दुर्बल तथा रुग्ण व्यक्ति में भी देखता है वही सचमुच शिव की उपासना करता है, परन्तु यदि वह उन्हें केवल मूर्ति में ही देखता है तो कहा जा सकता है कि उसकी उपासना अभी नितान्त प्रारम्भिक ही है। यदि किसी मनुष्य ने किसी एक निर्धन मनुष्य की सेवा-शुश्रूषा बिना जाति-पाँति अथवा ऊँच-नीच के भेदभाव के यह विचारकर की है कि उसमें साक्षात् शिव विराजमान हैं, तो शिव उस मनुष्य से, दूसरे एक मनुष्य की अपेक्षा जो कि उन्हें केवल मन्दिर में देखता है, अधिक प्रसन्न होंगे।
एक धनी व्यक्ति का एक बग़ीचा था जिसमें दो माली काम करते थे। एक माली बड़ा सुस्त तथा कमज़ोर था; परन्तु जब कभी वह अपने मालिक को आते देखता तो झट उठकर खड़ा हो जाता और हाथ जोड़कर कहता, “मेरे स्वामी का मुख कैसा सुन्दर है!” और उसके सम्मुख नाचने लगता। दूसरा माली ज़्यादा बातचीत नहीं करता था, उसे तो बस अपने काम-से-काम था। और वह बड़ी मेहनत से बगीचे में तरह तरह के फल-साग पैदा करके उन्हें स्वयं अपने सिर पर रखकर मालिक के घर पहुँचाता था, यद्यपि मालिक का घर बहुत दूर था। अब इन दो मालियों में से मालिक किसको अधिक चाहेगा? बस ठीक इसी प्रकार यह संसार एक बग़ीचा है, जिसके मालिक शिव हैं। यहाँ भी दो प्रकार के माली हैं – एक तो वह जो सुस्त, अकर्मण्य तथा ढोंगी है और कभी-कभी शिव के सुन्दर नेत्र, नासिका तथा अन्य अंगों की प्रशंसा कर देता है। और दूसरा ऐसा है जो शिव की सन्तान की, सारे दीन-दुःखी प्राणियों की और उनकी समस्त सृष्टि की चिन्ता रखता है। इन दो प्रकार के लोगों में से कौन शिव को अधिक प्यारा होगा? निश्चय ही, वही जो उनकी सन्तान की सेवा करता है। जो व्यक्ति अपने पिता की सेवा करना चाहता है, उसे अपने भाइयों की सेवा सब से पहले करनी चाहिए, इसी प्रकार जो शिव की सेवा करना चाहता है, उसे उनकी सन्तान की, विश्व के प्राणिमात्र की पहले सेवा करनी चाहिए। शास्त्रों में कहा भी गया है कि जो भगवान् के दासों की सेवा करता है वही भगवान् का सर्वश्रेष्ठ दास है। यह बात सर्वदा ध्यान में रखनी चाहिए।
मैं यह फिर कहे देता हूँ कि तुम्हें स्वयं शुद्ध रहना चाहिए तथा यदि कोई तुम्हारे पास सहायतार्थ आए, तो जितना तुमसे बन सके, उतनी उसकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। यही श्रेष्ठ कर्म कहलाता है। इसी श्रेष्ठ कर्म की शक्ति से तुम्हारा चित्त शुद्ध हो जाएगा और फिर शिव, जो प्रत्येक हृदय में वास करते हैं, प्रकट हो जाएंगे। प्रत्येक हृदय में उनका वास है। यह यों समझ लो कि यदि शीशे पर धूल पड़ी है, तो उसमें हम अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते। अज्ञान तथा पाप ही हमारे हृदय-रूपी शीशे पर धूल की भाँति जमा हो गये हैं। स्वार्थीपन ही अर्थात् स्वयं के सम्बन्ध में पहले सोचना ही सब से बड़ा पाप है। जो मनुष्य यह सोचता रहता है कि मैं ही पहले खा लूँ, मुझे ही सबसे अधिक धन मिल जाए तथा मैं ही औरों से पहले सीधा स्वर्ग को चला जाऊँ, वही स्वार्थी है। निःस्वार्थ व्यक्ति तो यह कहता है, ‘मुझे अपनी चिन्ता नहीं है, मुझे स्वर्ग जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं है, यदि मेरे नरक में जाने से भी किसी को लाभ हो सकता है, तो भी मैं उसके लिए तैयार हूँ।’ यह निःस्वार्थता ही धर्म की कसौटी है। जिसमें जितनी ही अधिक निःस्वार्थता है वह उतना ही आध्यात्मिक है, तथा उतना ही शिव के समीप। चाहे वह पण्डित हो या मूर्ख, शिव का सामीप्य दूसरों की अपेक्षा उसे ही अधिक प्राप्त है, उसे चाहे इसका ज्ञान हो अथवा न हो। परन्तु इसके विपरीत यदि कोई मनुष्य स्वार्थी है, तो चाहे उसने संसार के सब मन्दिरों के ही दर्शन क्यों न किये हों, सारे तीर्थ क्यों न गया हो और रंग-भभूत रमाकर अपनी शक्ल चीता जैसी क्यों न बना ली हो, शिव से वह बहुत दूर है।
यथार्थ उपासना पर स्वामी विवेकानंद का यह व्याख्यान मूल अंग्रेज़ी में यहाँ पढ़ा जा सकता है – Address at the Rameswaram Temple on Real Worship