रामकृष्ण परमहंस की जीवनी
Ramkrishna Paramhans Biography In Hindi
श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी को पढ़ना मानो किसी शास्त्र को पढ़ने के ही समान है। उनके जीवन की प्रत्येक घटना पाठक को कोई-न-कोई गहरी शिक्षा दे जाती है। रामकृष्ण परमहंस का जीवन परिचय और उनकी वाणी अज्ञान तिमिर को दूर कर भक्ति और ज्ञान का प्रकाश जीवन में लाते हैं।
यह जीवनी पण्डित विद्याभास्कर शुक्ल कृत “जगमगाते हीरे” नामक पुस्तक से ली गयी है।
आध्यात्मिक जीवन ही श्रेष्ठ और वास्तविक जीवन है, यह सिद्ध कर दिखाने वाले महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य भारतवर्ष को ही प्राप्त है। भारतीय महापुरुषों ने ही संसार को शान्ति का पाठ पढ़ाया है। ऐसे ही महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस भी थे।
रामकृष्ण परमहंस का बचपन
Ramkrishna Paramhans Ka Bachpan
परमहंस रामकृष्ण जी का जन्म सन् 1833 ई० में हुगली के समीपवर्ती कामारपूकर नामक गाँव में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम था श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय। खुदीराम जी के तीन पुत्र थे जिनमें हमारे चरित-नायक गदाधर सबसे छोटे थे। ईश्वरीय अवतारों के सदृश उनके जन्म-विषय में भी अनेक किम्वदन्तियाँ प्रसिद्ध हैं।
स्वामी जी बाल्यकाल से ही अत्यन्त नम्र स्वभाव के थे। वाणी बहुत ही मधुर और मनोहारिणी थी। इसी से अड़ोस-पड़ोस और गाँव के लोग उनसे बहुत प्रसन्न रहा करते थे और प्रायः अपने घरों में ले जाकर उन्हे भोजन कराया करते थे। उनका ध्यान कृष्ण चरित्र सुनने और उनकी लीला करने में बहुत लगता था। देव-पूजा में तो ऐसी श्रद्धा थी कि स्वतः पार्थिव पूजन किया करते थे और कभी-कभी भक्ति-भाव में तन्मय होकर अचेत हो जाते थे। समीपवर्ती अतिथि-शाला में जाकर प्रायः अभ्यागतों की सेवा, परिचर्या किया करते थे।
सोलह वर्ष की अवस्था में स्वामीजी का यज्ञोपवीत हुआ और वे तभी पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजे गए। चित्त पढ़ने में बिल्कुल न लगता था। संस्कृत पाठशाला में पंडितों के व्यर्थ के नित्य प्रति के वाद-विवाद सुनकर घबड़ा गए और दुःखी होकर एक दिन बड़े भाई से स्पष्ट बोले–
“भाई, पढ़ने-लिखने से क्या होगा? इस पढ़ने-लिखने का उद्देश्य तो केवल धन-धान्य पैदा करना है। मैं तो वह विद्या पढ़ना चाहता हूँ, जो मुझे परमात्मा की शरण में पहुँचा दे।” ऐसा कहकर उस दिन से पढ़ना छोड़ दिया। यदि आपकी हस्तलिखित रामायण न मिलती, तब तो लोगों को यही निश्चय न होता कि स्वामी जी बिलकुल ही पढ़े-लिखे थे या नहीं।
माँ काली के अनन्य उपासक
Ma Kali Ke Ananya Upasak
रामकृष्ण परमहंस का चित्त पूजा में लगता ही था–काली देवी के मन्दिर के पुजारी बना दिए गए। वहाँ अनन्य भक्ति के साथ काली माँ की पूजा करने लगे, परन्तु यह प्रश्न हृदय में सदैव हिलोरें लेता रहता था कि “क्या वस्तुतः मूर्ति में कोई तत्त्व है? क्या सचमुच यही जगज्जननी आनन्दमयी माँ हैं या यह सब केवल स्वप्न-मात्र है?” इत्यादि। इस प्रश्न से उन्हें यथाविधि काली पूजा करना कठिन हो गया। कभी भोग ही लगाते रह जाते; कभी घंटों आरती ही करते रहते, कभी सब कार्य छोड़कर रोया ही करते और कहा करते, “माँ, ओ माँ, मुझे अब दर्शन दो। दया करो, देखो जीवन का एक दिन और वृथा चला गया। क्या दर्शन नहीं दोगी? नहीं, नहीं, दो जल्दी दर्शन।” अन्त में हालत इतनी बिगड़ती गयी कि उन्हें पूजा त्यागनी ही पड़ी।
परमहंस जी अपनी धुन में मस्त हो गए। दिन-रात उन्हें काली दर्शन का ही ध्यान रहने लगा। उन्होंने 12 वर्ष की कठिन तपस्या की, जिसमें खाना-पीना, सोना छोड़कर एक टक, एक ही ध्यान में रहे। इस समय स्वामी जी का भतीजा कभी-कभी जबरन उन्हें 2-4 ग्रास भोजन करा जाता था। 12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् उन्होंने अपूर्व शान्ति लाभ की।
काञ्चन भाव दूर करने के लिए स्वामी जी एक हाथ में रुपया और अशर्फ़ी तथा दूसरे में मिट्टी लेकर कहते थे–“ऐ मन, जिस पर विक्टोरिया की छाप लगी है यह वह वस्तु है जिससे मनुष्य भाँति-भाँति के पदार्थ भोगता है, ऐश करता है। इसमें बड़े आलीशान मकान बनाने की शक्ति है, परन्तु ज्ञान, सच्चा आनन्द या ब्रह्म को प्राप्त करने में यह कदापि सहायता नहीं दे सकती।” फिर दूसरे हाथ की ओर देख कर कहते–“देख, यह मिट्टी है। यह वह वस्तु है जिस से खाद्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिसके द्वारा बड़े-बड़े मकान बनते हैं, बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनती हैं। ऐ मन, ये दोनो ही जड़ पदार्थ हैं, समान हैं। तू इन्हें लेकर क्या करेगा? तू तो सच्चिदानन्द में लीन होने की चेष्टा कर।” ऐसा कहते हुए रुपया, अशर्फ़ी और मिट्टी तीनोंं को एक में मिलाकर गङ्गा जी में फेंक देते थे।
गुरु तोता पुरी के साथ
Guru Tota Puri Ke Sath
एक और पहुँचे हुए साधु थे जिनका नाम था तोता पुरी। रामकृष्ण जी इन्हें अपना गुरु, परन्तु तोता पुरी जी इन्हें अपना सखा मानते थे। रामकृष्ण परमहंस ने अद्वैत वेदांत की शिक्षा और अद्वैत तत्त्व की सिद्धि इन्हीं की संगत में प्राप्त की थी।
एक दिन दोनों में बैठे हुए कुछ बातचीत हो रही थी कि किसी व्यक्ति ने आकर तोतापुरी जी की धूनी से आग उठा कर चिलम में भर ली। तोता पुरी जी बड़े क्रुद्ध हो गए और उसे बहुत कुछ वके झके कि तूने मेरी अग्नि अपवित्र कर डाली। यह सुनकर रामकृष्ण परमहंस से न रहा गया। उन्होंने नम्रता पूर्वक कहा, “महाराज, क्या इसी प्रकार आप सब वस्तुओं को ब्रह्म मानते हैं? क्या यह आदमी और अग्नि ब्रह्म से भिन्न वस्तु हैं? ज्ञानियों को तो ऊँच-नीच समान है।” तोता पुरी जी शान्त होकर बोले, “भाई, तुम ठीक कहते हो। आज से मुझे क्रुद्ध न देखोगे।” इसके बाद उन को कभी क्रोध करते नहीं देखा गया।
विभिन्न मार्गों से ईश्वर-दर्शन
Vibhinna Margo Se Ishwar Darshan
शास्त्र में बतलाया है कि भगवान की भक्ति के नौ प्रकार की है, जिसे नवधा भक्ति भी कहते हैं–श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य-भाव, सख्य-भाव और आत्म-निवेदन। स्वामी जी ने पृथक्-पृथक् प्रत्येक प्रकार की साधना करके पूर्ण भक्ति प्राप्त की।
यही नहीं, उन्होंने सिख पंथ स्वीकार करके उसमें पूर्ण भक्ति प्राप्त की। तीन-चार दिन एक मुसलमान के साथ रहकर मुहम्मदीय पंथ का भी निचोड़ देखा। ईसा मसीह के चित्र को ही देखकर कुछ समय के लिए आत्म-विस्मृत हो गए; कई दिन तक उन्हीं का ध्यान करते रहे।
इस प्रकार सब धर्मों व सम्प्रदायों का मंथन करके स्वामी जी ने निश्चित समझ लिया कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष पंथ की आवश्यकता नहीं, वह तो किसी भी सम्प्रदाय में प्राप्त किया जा सकता है।
ऐसा निश्चय करके वे तीर्थयात्रा को निकले और एक बार भारत में सर्वत्र घूमकर दक्षिणेश्वर में आकर ठहरे। यहीं रहकर लोगों को धर्मोपदेश करने लगे। लोग बड़ी दूर-दूर से धर्मोपदेश सुनने के लिए आया करते थे, जिनमें बड़े-बड़े विद्वान, धर्मनिष्ठ, धनवान आदि सभी श्रेणी के पुरुष होते थे। दिन रात दर्शनार्थ आए हुए लोगों को अच्छी ख़ासी भीड़ लगी रहा करती थी।
रामकृष्ण परमहंस ज्ञान, योग, वेदान्त शास्त्र अथवा अद्वैत मीमांसा का निरूपण किया करते थे। उनका कहना था, “ब्रह्म, काल-देश-निमित्त आदि से कभी मर्यादित नहीं हुआ, न हो सकता है। फिर भला मुख के शब्द द्वारा ही उसका यथार्थ वर्णन कैसे हो सकता है? ब्रह्म तो एक अगाध समुद्र के समान है, वह निरुपाधित, विकारहीन और मर्यादातीत है। तुमसे यदि कोई कहे कि महासागर का यथार्थ वर्णन करो, तो तुम बड़ी गड़बड़ी में पड़ कर यही कहोगे–अरे, इस विस्तार का कहीं अन्त है? असंख्य लहरें उठ रही हैं, कैसा गर्जन हो रहा है इत्यादि। इसी तरह ब्रह्म को समझो।”
“यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो, तो पहले अहम्भाव को दूर करो। क्योंकि जब तक अहंकार दूर न होगा, अज्ञान का परदा कदापि न हटेगा। तपस्या, सत्सङ्ग, स्वाध्याय आदि साधनों से अहङ्कार दूर कर आत्म-ज्ञान प्राप्त करो, ब्रह्म को पहचानो।”
जिस प्रकार पुष्प की सुगन्ध से आकृष्ट होकर भ्रमर समूह उस पुष्प को आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार परमहंस स्वामी रामकृष्ण जी के आत्मज्ञान-रूपी अबाधित प्रकाश से आकृष्ट भक्त रूपी पतङ्ग स्वामी जी को सदैव घेरे रहते थे। वे सदैव सब को धर्मोपदेश रूपी वचनामृत से तृप्त करते रहते थे। स्वतः तो हर समय ब्रह्मलीन रहते ही थे।
रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि
Ramkrishna Paramhans Ki MahaSamadhi
एक दिन श्री रामकृष्ण परमहंस के गले में कुछ पीड़ा होने लगी। शनैः-शनैः उसने गंडमाला का रूप धारण कर लिया। डाक्टर-वैद्यों ने औषधोपचार में कोई कमी न उठा रक्खी, पर स्वामी जी तो समझ चुके थे कि अब उन्हें इस संसार से जाना है। तीन मास बीमार रहे पर बराबर उत्साह-पूर्वक, पूर्ववत् धर्मोपदेश करते रहे। एक दिन अपने एक भक्त से पूछा, “आज श्रावणी पूर्णिमा है? तिथि-पत्र में देखो।” भक्त ने देख कर कहा, “हाँ”। बस, स्वामी जी समाधि-मग्न हो गए और प्रतिपदा को प्रातःकाल इह लीला समाप्त कर दी। घर-घर यह दुःखद समाचार फैल गया। बात-की-बात में सहस्रों नर-नारी एकत्रित हो गए। पञ्चतत्त्वमय शरीर पञ्चतत्त्व में मिला दिया गया।
स्वामी जी सदैव शान्त और प्रसन्न-मुख रहा करते थे। उन्हें उदास या क्रोध करते हुए तो कभी भी देखा ही नहीं गया। उनमें अद्भुत आकर्षण-शक्ति थी। मनुष्य उनके उपदेश से एकदम प्रभावान्वित हो जाता था। दूसरों की शंकाएँ वे छूमन्तर की तरह बात-की-बात में नष्ट कर देते थे। प्रत्येक बात के समझाने में वे अनेक उदाहरण देते थे, जिससे मनुष्य के हृदय पर उनकी बात पूरी तरह जम जाती थी।
उनके जीवन की अनेक घटनाएँ हैं।
प्रधान-शिष्य स्वामी विवेकानंद
Pradhan Shishya Swami Vivekananda
जगत-प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस जी के ही प्रधान शिष्य थे। आरंभ में वे रामकृष्ण परमहंस से बहुत तर्क-वितर्क किया करते थे, किंतु धीरे-धीरे गुरु की संगति में उन्हें आध्यात्मिक सत्यों की स्पष्ट अनुभूति होने लगी। साथ-ही-साथ श्री रामकृष्ण परमहंस के प्रति उनकी श्रद्धा और गुरु-भक्ति भी बढ़ती चली गई। स्वामी विवेकानंद सदैव कहा करते थे कि उनमें जो भी गुण और ज्ञान हैं वे उनके गुरु का है, जो भी कमी है वो ख़ुद उनकी है।
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अन्य महापुरुषों पर प्रभाव
Anya MahaPurusho Par Prabhaw
प्रसिद्ध श्री केशवचन्द्र सेन के जीवन के महान परिवर्तन के कारण परमहंस जी ही थे।
एक बार श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर परमहंस जी के दर्शनों की इच्छा से उनके पास गए। रामकृष्ण परमहंस कुछ देर टकटकी लगाए उनकी ओर देखते रहे। फिर बोले–
“आज तक मैंने बहुत से बम्बे, नाले, नहरें, नदी, नद देखे थे। पर सौभाग्य से आज सागर का दर्शन हो ही गया।”
विद्यासागर – पहले आप मीठे पानी के पास थे, अब आप को खारा पानी मिलेगा।
परमहंस – नहीं, आप खारे समुद्र नहीं, आप तो क्षीर-सागर हैं। अविद्या नहीं, विद्यासागर हैं।
विद्यासागर – (संकोच से हँसते हुए) आप जो चाहें, कहें।
परमहंस – आप का स्वभाव सतोगुणी है। जो सत्य ज्ञान की ओर ले जाने वाला है। हाँ, वह आपको स्वस्थ नहीं बैठने देता, सदा उद्योग में रखता है। पर आप सिद्ध पुरुष हैं; आपका अन्तःकरण बिलकुल मृदु और कोमल हो गया है जैसे आलू आदि शाक सिद्ध (तैयार) होने पर हो जाते हैं। जो आचरण निष्काम बुद्धि से होता है, उसके लिए क्या कहना।
विद्यासागर – परन्तु कुचैली दाल सिद्ध होने पर घोंटने से कठिन हो जाती है, मृदु नहीं रहती। क्या यह सच है ?
परमहंस – परन्तु आप वैसे पण्डित नहीं है, आप का वह हाल नहीं है। पञ्चाङ्ग में लिखा रहता है कि अमुक-अमुक दिन इतनी-इतनी जल-वृष्टि होगी। लेकिन पञ्चाङ्ग निचोड़ने से एक बूँद भी जल नहीं निकलता। इसी तरह हम लोगों में पण्डित कहलाने वाले बहुत हैं जो बढ़-बढ़ कर बातें तो मारा करते हैं, पाण्डित्य तो बघारते हैं, पर अनुभव के साथ बोलने वाले बहुत कम हैं। आप अनुभव के साथ बोलते हैं।
इसी प्रकार बहुत देर बातचीत करने के अनन्तर प्रसन्न होते हुए विद्यासागर जी घर चले गए।
शारदा देवी के साथ
Sarada Devi Ke Sath
परमहंस जी के विवाह के समय उनकी स्त्री की अवस्था केवल 5 वर्ष की थी। ग्यारह वर्ष बाद स्वामी जी की इच्छा हुई कि ससुराल चलना चाहिए। बस, वे ससुराल जा पहुँचे और बिना पूछेताछे घर में घुसते चले गए। आंगन में जा खड़े हुए। उनकी स्त्री जो इस समय 16 वर्ष की थी, किसी कार्य में लगी थी। एक अपरिचित मनुष्य को पागल की तरह सामने खड़ा देख चिल्ला उठी–“माँ! देख, कोई पागल घर में घुस आया है।” माँ ने निकलकर देखा। कुछ देर तो पहचान न सकी, फिर “यह तो मेरा दामाद है, हाय! क्या मेरे भाग्य में यही बदा था?” कहते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ी। सचेत होने पर देखा कि रामकृष्ण परमहंस पूजा की सब सामग्री जुटाकर स्त्री से कह रहे हैं, “आ, इस चौकी पर बैठ।” सहज स्वभाव बाला आकर चौकी पर बैठ गई। परमहंस “माँ-माँ” कहकर उस के चरणों पर पुष्पाञ्जली चढ़ाने लगे और आरती करने लगे। उनकी सास यह दृश्य देखकर उन्हें कटु वाक्य कहने लगी। पर वे पूजा समाप्त कर वहाँ से चले गए।
रामकृष्ण के चले जाने के दो वर्ष बाद शारदा देवी ने–जो अब तक जानती थीं कि मेरा पति पागल है–अब जाना कि वह तो एक असाधारण ज्ञानी पुरुष हैं। निदान, एक दिन वे अपनी माता को साथ ले उनके दर्शनों को चल पड़ीं और 30-40 मील पैदल यात्रा कर दक्षिणेश्वर पहुँचीं।
परमहंस जी ने उसका बड़ा आदर करते हुए कहा, “तुम्हारा पति रामकृष्ण तो मर गया, यह नवीन रामकृष्ण है जो संसार की तमाम स्त्रियों को माँ समझ रहा है।” यह कहकर वे उसके पैरों में गिर पड़े। शारदा देवी भी स्वामी के मन का भाव समझ गई, बोली, “मेरी भी यही इच्छा है कि मैं अपने को आपके अनुरूप बनाने का प्रयत्न करूँ। मैं केवल यही चाहती हूँ कि आप की सेवा और ईश्वर भजन में अपना काल यापन करूँ।” वह वहीं मन्दिर में रहने लगी। एक दिन रामकृष्ण परमहंस के एक भक्त ने उन्हें दस हज़ार रुपया देना चाहा, पर साध्वी स्त्री ने कहा, “मैं इसका क्या करूँगी। मैं तो यथासम्भव अपने पति का अनुकरण करना चाहती हूँ।”
रामकृष्ण परमहंस जी के जीवन की ऐसी ही कितनी ही घटनाएँ हैं, जिनसे समझ में आ जाता है कि वे ईश्वर के कैसे अनन्य भक्त, धर्मोपदेष्टा और पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष थे।
प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न
श्री रामकृष्ण का वास्तविक नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था।
उनका जन्म सन् 1833 में हुगली के निकट कामारपूकर नामक गाँव में हुआ था।
श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में माँ काली के मंदिर में पुजारी का काम करते थे। वे रात-दिन भाव-समाधि में मग्न रहते थे। जो कोई आत्मज्ञान की तलाश में उनके पास आता था, वे उसका मार्गदर्शन भी करते थे।
उनके गुरु का नाम तोतापुरी था, जो एक नागा संन्यासी थे। तोतापुरी से उन्होंने अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया था।