श्रीरामकृष्ण परमहंस की मूर्ति की प्रतिष्ठा – विवेकानंद जी के संग में
विषय – नवगोपाल बाबू के भवन में श्रीरामकृष्ण परमहंस की मूर्ति की प्रतिष्ठा – स्वामी विवेकानंद की दीनता – नवगोपाल बाबू की सपरिवार श्रीरामकृष्ण में भक्ति – श्रीरामकृष्ण का प्रणाम मन्त्र।
स्थान – श्रीयुत नवगोपाल घोष का भवन, रामकृष्णपुर, हावड़ा।
वर्ष – १८९७ (जनवरी, फरवरी)
श्रीरामकृष्ण के प्रेमी भक्त श्रीयुत नवगोपाल घोष ने भागीरथी के पश्चिम तट पर हावड़े के अन्तर्गत रामकृष्णपुर में एक नयी हवेली बनवायी है। इसके लिए जमीन मोल लेते समय इस स्थान का नाम रामकृष्णपुर सुनकर वे विशेष आनन्दित हुए थे, क्योंकि इस गाँव के नाम की उनके इष्टदेव के नाम के साथ एकता थी। मकान बनाने के थोड़े ही दिन पश्चात् स्वामीजी प्रथम बार विलायत से कलकत्ते को लौटकर आये थे। घोषजी और उनकी स्त्री की बड़ी इच्छा थी कि अपने मकान में स्वामीजी से श्री रामकृष्ण परमहंस की मूर्ति स्थापना करायें। कुछ दिन पहले, घोषजी ने मठ में जाकर स्वामीजी से अपनी इच्छा प्रकट की थी और स्वामीजी ने भी स्वीकार कर लिया था। इसी कारण आज नवगोपाल बाबू के गृह में उत्सव है। मठ के संन्यासी और श्रीरामकृष्ण के गृहस्थ भक्त सब आज सादर निमन्त्रित हुए हैं। मकान भी आज ध्वजा और पताकाओं से सुशोभित है। फाटक पर सामने पूर्ण घट रक्खा गया है, कदली स्तम्भ रोपे गये हैं, देवदार के पत्तों के तोरण बनाये हैं और आम के पत्ते और पुष्पमाला की बन्दनवार बाँधी गयी है। रामकृष्णपुर ग्राम आज ‘जय रामकृष्ण’ की ध्वनि से गूँज रहा है।
मठ से संन्यासी और बालब्रह्मचारीगण स्वामीजी को साथ लेकर तीन नावों को किराये पर लेकर रामकृष्णपुर के घाट पर उपस्थित हुए। स्वामीजी के शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र था, सिर पर पगड़ी थी और पाँव नंगे थे। रामकृष्णपुर घाट से जिस मार्ग से होकर स्वामीजी नवगोपाल बाबू के घर जाने वाले थे, उसके दोनों ओर हजारों लोग उनके दर्शन के निमित्त खड़े हो गये। नाव से घाट पर उतरते ही स्वामीजी एक भजन गाने लगे जिसका आशय यह था – “वह कौन है जो दरिद्री ब्राह्मणी की गोद में चारों ओर उजाला करके सो रहा है? वह दिगम्बर कौन है, जिसने झोपड़ी में जन्म लिया है” इत्यादि। इस प्रकार गान करते और स्वयं मृदंग बजाते हुए वे आगे बढ़ने लगे। इसी अवसर पर दो तीन और भी मृदंग बजने लगे। साथ साथ सब भक्तजन एक ही स्वर से भजन गाते हुए उनके पीछे पीछे चलने लगे। उनके उद्दाम नृत्य और मृदंग की ध्वनि से पथ और घाट सब गूँज उठे। जाते समय यह मण्डली कुछ देर डाक्टर रामलाल बाबू के मकान के सामने खड़ी हुई। डॉक्टर महाशय भी जल्दी से बाहर निकल आये और मण्डली के साथ चलने लगे। सब लोगों का यह विचार था कि स्वामीजी बड़ी सजधज और आडम्बर से आयेंगे – परन्तु मठ के अन्यान्य साधुओं के समान वस्त्र धारण किये हुए और नंगे पैर मृदंग बजाते हुए उनको जाते देखकर बहुतसे लोग उनको पहचान ही न सके। जब औरों से पूछकर स्वामीजी का परिचय पाया तब वे कहने लगे, “क्या, यही विश्वविजयी स्वामी विवेकानन्दजी हैं?” स्वामीजी की इस नम्रता को देखकर सब एक स्वर से प्रशंसा करने और ‘जय श्रीरामकृष्ण’ की ध्वनि से मार्ग को गुँजाने लगे।
आदर्श गृहस्थ नवगोपाल बाबू का मन आनन्द से पूर्ण है और वे श्रीरामकृष्ण की सांगोपांग सेवा के लिए बड़ी सामग्री इकट्टी कर चारों ओर दौड़-धूप कर रहे हैं। कभी कभी प्रेमानन्द में मग्न होकर ‘जयराम जयराम’ शब्द का उच्चारण कर रहे हैं। मण्डली के उनके द्वार पर पहुँचते ही, भीतर से शंखध्वनि होने लगी तथा घड़ियाल बजने लगे। स्वामीजी ने मृदंग को उतारकर बैठक में थोड़ा विश्राम किया। तत्पश्चात् ठाकुरघर देखने के लिए ऊपर दुमंजिले पर गये। यह ठाकुरघर श्वेत संगमर्मर का था। बीच में सिंहासन के ऊपर श्रीरामकृष्ण की पोरसिलेन (चिनी) की बनी हुई मूर्ति विराजमान थी। हिन्दुओं में देव-देवी के पूजन के लिए जिन सामग्रियों की आवश्यकता होती है, उनके उपार्जन करने में कोई भी त्रुटि नहीं थी। स्वामीजी यह सब देखकर बड़े प्रसन्न हुए।
नवगोपाल बाबू की स्त्री ने अन्य स्त्रियों के साथ स्वामीजी को साष्टांग प्रणाम किया और पंखा झलने लगीं। स्वामीजी से सब सामग्री की प्रशंसा सुनकर गृहस्वामिनी उनसे बोलीं, “हमारी क्या शक्ति है कि श्रीगुरुदेव की सेवा का अधिकार हमको प्राप्त हो? गृह छोटा और धन सामान्य है। आप कृपा करके आज गुरुदेव श्रीरामकृष्ण परमहंस की मूर्ति की प्रतिष्ठा कर हमको कृतार्थ कीजिये।”
स्वामीजी ने इसके उत्तर में हास्यभाव से कहा, “तुम्हारे गुरुदेव तो किसी काल में भी ऐसे श्वेत-पत्थर के मन्दिर में चौदह पीढ़ी से नहीं बसे! उन्होंने तो गाँव के फूस की झोपड़ी में जन्म लिया था और येनकेनप्रकारेण अपने दिन व्यतीत किये। ऐसी उत्तम सेवा पर प्रसन्न होकर यदि यहाँ न बसेंगे तो फिर कहाँ?” स्वामीजी की बात पर सब हँसने लगे। अब विभूतिभूषित स्वामीजी साक्षात् महादेवजी के समान पूजक के आसन पर बैठकर, श्रीरामकृष्ण का आवाहन करने लगे।
स्वामी प्रकाशानन्द जी स्वामीजी के निकट बैठकर मन्त्रादि उच्चारण करने लगे। क्रमशः पूजा सर्वांग सम्पूर्ण हुई और आरती का शंख, घण्टा बजा। स्वामी प्रकाशानन्द जी ने ही इसका सम्पादन किया।
आरती होने पर स्वामीजी ने उस पूजा-स्थान में बैठकर ही श्रीरामकृष्णदेव के एक प्रणाम मन्त्र की मौखिक रचना की-
स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।
अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः॥
सब लोगों ने इस श्लोक को पढ़कर प्रणाम किया। फिर शिष्य ने श्रीरामकृष्ण का एक स्तोत्र पाठ किया। इस प्रकार पूजा समाप्त हुई। इसके पश्चात् नीचे एकत्रित भक्त मण्डली ने कुछ भोजन करके गाना आरम्भ कर दिया। स्वामीजी ऊपर ही ठहरे। गृह की स्त्रियाँ स्वामीजी को प्रणाम करके धर्मविषयों पर उनसे नाना प्रश्न करने और उनका आशीर्वाद ग्रहण करने लगीं।
शिष्य इस परिवार को श्रीरामकृष्ण में लीन देखकर विस्मित हो खड़ा रहा और इनके सत्संग से अपना मनुष्यजन्म सफल मानने लगा। इसके बाद भक्तों ने प्रसाद पाकर आचमन किया और नीचे आकर थोड़ी देर के लिए विश्राम करने लगे। सायंकाल को वे छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर अपने अपने घर लौटे। शिष्य भी स्वामीजी के साथ गाड़ी में रामकृष्णपुर के घाट तक गये। वहाँ से नाव में बैठकर बहुत आनन्द से नाना प्रकार का वार्तालाप करते हुए बागबाजार की ओर चले।