स्वामी विवेकानंद के विचार – Swami Vivekanand Ke Vichar
स्वामी विवेकानंद के विचार तेजस्वी, शक्तिसंपन्न और बल देने वाले हैं। इनमें जीवन रूपांतरित करने की क्षमता है। पढ़ें स्वामी जी के ओजपूर्ण विचार (Swami Vivekanand Ke Vichar) तथा अपने जीवन को एक नई दिशा दें। इन्हें “विवेकानन्द–राष्ट्र को आह्वान” नामक पुस्तक से लिया गया है।
श्रद्धा और बल पर स्वामी विवेकानंद के विचार
जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों में कहा गया है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता वही नास्तिक है।
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त)
संसार का इतिहास उन थोड़े से व्याक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास अन्तःस्थित देवत्व को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता हैं सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अन्तःस्थ अमोघ शक्ति को अभिव्यक्त करने का यथेष्ट प्रयत्न नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है।
(भगवान बुद्ध का संसार को संदेश एवं अन्य व्याख्यान और प्रवचन, ११४-१५)
विश्वास-विश्वास! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गये तेंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर और विदेशियों ने बीच-बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो और अपने आप पर विश्वास न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते।
(भारत में विवेकानंद, १०९)
यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ असम्भव है। ऐसा कहना ही भयानक नास्तिकता है। यदि पाप नामक कोई वस्तु है तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि मैं दुर्बल हूँ अथवा अन्य कोई दुर्बल है।
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त – प्रथम भाग)
तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे।
(भारत में विवेकानंद, १०९)
मुक्त होओ; किसी दूसरे के पास से कुछ न चाहो। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यदि तुम अपने जीवन की अतीत घटनाएँ याद करो तो देखोगे कि तुम सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्टा करते रहे, किन्तु कभी पा नहीं सके; जो कुछ सहायता पायी है, वह अपने अन्दर से ही थी।
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त – द्वितीय भाग)
कभी ‘नहीं मत कहना, ‘मैं नहीं कर सकता’ यह कभी न कहना। ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश-काल भी कुछ नहीं है। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो।
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त – प्रथम भाग)
तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्द के भागीदार हो पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्य भूमि पर देवता हो। तुम भला पापी! मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानवस्वभाव पर घोर लांछन है। उठो! आओ! ऐ सिंहो! इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो, तुम तो जरा-मरण-रहित नित्यानन्दमय आत्मा हो।
(शिकागो वक्तृता २५-२६)
ये संघर्ष, ये भूलें रहने से हर्ज भी क्या? मैंने गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव यदि बार-बार असफल हो जाओ, तो भी क्या? कोई हानि नहीं, सहस्र बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो और यदि सहस्र बार भी असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो।
(ज्ञानयोग, २५७)
मनुष्य को सदैव दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दुर्बलता का प्रतिकार नहीं है–बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतिकार का उपाय है। उनमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उन्हें स्मरण कराओ।
(व्यावहारिक जीवन में वेदान्त – प्रथम भाग)
उपनिषदों में यदि कोई एक ऐसा शब्द है जो वज्र-वेग से अज्ञान-राशि के ऊपर पतित होता है, उसे बिलकुल उड़ा देता है, तो वह है ‘अभी:’–निर्भयता। (भारत में विवेकानंद, ७२)
हे मेरे युवकबंधुगण! तुम बलवान बनो–यही तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है। गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबॉल खेलने से ईश्वर के अधिक समीप पहुँचोगे। मैंने अत्यन्त साहसपूर्वक ये बातें कहीं हैं और इनको कहना अत्यावश्यक है, कारण मैं तुमको प्यार करता हूँ। मैं जानता हूँ कि कंकड़ कहाँ चुभता है। मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। बलवान शरीर से और मजबूत पुट्ठों से तुम गीता को अधिक समझ सकोगे।
(भारत में विवेकानंद, १७६)
हरएक से यही एक प्रश्न करता हूँ–“क्या तुम बलवान हो? क्या तुम्हें बल प्राप्त होता है?” क्योंकि मैं जानता हूँ, एकमात्र सत्य ही बल प्रदान करता है। बल ही भवरोग की दवा है।
(ज्ञानयोग, ३१०-११)
यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, चिरन्तन और शाश्वत जीवन है और दुर्बलता ही मृत्यु।
(आत्मानुभूति तथा उसके मार्ग, १२१)
सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसशील साधक कहता है, “मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर-चूर हो जायेंगे।” इस प्रकार का उत्साह, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो। उस परमपद की प्राप्ति अवश्य होगी।
(राजयोग – प्रत्याहार और धारणा)
केवल मनुष्यों की आवश्यकता है; और सब कुछ हो जायगा, किन्तु आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासम्पन्न और अन्त तक कपटरहित नवयुवकों की। इस प्रकार के सौ नवयुवकों से संसार के सभी भाव बदल दिये जा सकते हैं।
(भारत में विवेकानंद, १५२)
दुन्दुभी नगाड़े क्या देश में तैयार नहीं होते? तुरही भेरी क्या भारत में नहीं मिलती? वही सब गुरु-गम्भीर ध्वनि लड़कों को सुना। बचपन से जनाने बाजे सुन-सुनकर, कीर्तन सुन-सुनकर, देश लगभग स्त्रियों का देश बन गया है।
(विवेकानंद जी के संग में, ३४१)
केवल खा-पीकर आलसी जीवन जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है; पराजित होकर जीने की अपेक्षा युद्ध-क्षेत्र में मरना श्रेयस्कर है।
(ज्ञानयोग, १३१-३२)
सभी के आन्तरिक प्रयास के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है? “उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः” (उद्योगी पुरुषसिंह ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है) इत्यादि। पीछे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है – forward (आगे बढ़ो)। अनन्त शक्ति, अनन्त उत्साह, अनन्त साहस तथा अनन्त धैर्य चाहिए, तब कहीं महान् कार्य सम्पन्न होता है।
(पत्रावली, २, ६१)
निराश मत होओ; मार्ग बड़ा कठिन है – छूरे की धार पर चलने के समान दुर्गम; फिर भी निराश मत होओ। उठो, जागो और अपने परम आदर्श को प्राप्त करो।
(ज्ञानयोग, १३२)
तू क्यों रोता है, भाई? तेरे लिए न मृत्यु है, न रोग। तू क्यों रोता है, भाई? तेरे लिए न दुःख है, न शोक। तू क्यों रोता है, भाई? तेरे विषय में परिणाम या मृत्यु की बात कही ही नहीं गयी। तू तो सत्स्वरूप है। अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जा।
(ज्ञानयोग, ६७-६८)
हमारी उन्नति का एकमात्र उपाय यह है कि हम पहले वह कर्तव्य करें, जो हमारे हाथ में है। और इस प्रकार धीरे धीरे शक्तिसंचय करते हुए क्रमशः हम सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। किसी भी कर्तव्य को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। मैं पुनः कहता हूँ, जो व्यक्ति अपेक्षाकृत निम्न कार्य करता है, वह किसी उच्चतर कार्य करनेवाले की अपेक्षा निम्नतर श्रेणी का नहीं हो जाता। केवल मनुष्य के कर्तव्य का रूप देखकर उसकी उच्चता-नीचता का विचार करने से नहीं बनेगा, देखना तो यह होगा कि वह उस कर्तव्य का पालन किस ढंग से करता है। कार्य करने की उसकी शक्ति और ढंग से ही उसकी जाँच की जानी चाहिए।
(कर्मयोग – कर्तव्य क्या है)
सभी विविधताएँ उसी एक में हैं, किन्तु हमें यह सीखना चाहिए कि जो कुछ हम करें उससे अपना तादात्म्य न कर दें, और जो अपने हाथ में हो, उसके अतिरिक्त, अन्य कुछ न देखें, न सुनें और न उसके विषय में बात करें। हमें अपने पूरे जी-जान से जुट जाना और प्रखर बनना चाहिए। दिन-रात अपने से यही कहते रहो – सोऽहं, सोऽहं।
(ज्ञानयोग पर प्रवचन – प्रथम प्रवचन)
जिसका जो जी चाहे कहे, आपे में मस्त रहो – दुनिया तुम्हारे पैरों तले आ जाएगी, चिन्ता मत करो। लोग कहते हैं इस पर विश्वास करो, उस पर विश्वास करो; मैं कहता हूँ – पहले अपने आप पर विश्वास करो। अपने पर विश्वास करो सब शक्ति तुममें है–इसकी धारणा करो और शक्ति जगाओ–कहो, हम सब कुछ कर सकते हैं। “नहीं-नहीं कहने से साँप का विष भी असर नहीं करता।”
(पत्रावली १, १७९)
एक बार में काशी में किसी जगह जा रहा था। उस जगह एक तरफ भारी जलाशय और दूसरी तरफ ऊँची दीवाल थी। उस स्थान पर बहुत से बन्दर रहते थे। काशी के बन्दर बड़े दुष्ट होते हैं। अब उनके मस्तिष्क में यह विचार पैदा हुआ कि वे मुझे उस रास्ते पर से न जाने दें। वे विकट चीत्कार करने लगे और झट आकर मेरे पैरों से जकड़ने लगे। उनको निकट देखकर मैं भागने लगा, किन्तु मैं जितना ज्यादा जोर से दौड़ने लगा, वे उतनी ही अधिक तेजी से आकर मुझे काटने लगे। अन्त में उनके हाथ से छुटकारा पाना असम्भव प्रतीत हुआ। ठीक ऐसे ही समय एक अपरिचित मनुष्य ने आकर मुझे आवाज दी, “बन्दरों का सामना करो।” मैं भी जैसे ही उलटकर उनके सामने खड़ा हुआ, वैसे ही वे पीछे हटकर भाग गये। समस्त जीवन में हमको यह शिक्षा लेनी होगी – जो कुछ भी भयानक है, उसका सामना करना पड़ेगा। साहसपूर्वक उसके सामने खड़ा होना पड़ेगा।
(धर्मरहस्य, ११-१२)
मन की शक्तियाँ
आइए, अब देखते हैं मन की अपरिमित शक्तियों पर स्वामी विवेकानंद के विचार–
एक भाव लेकर सदा उसी में विभोर होकर रहो। सोते-जागते सब समय उसी को लेकर रहो। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। … यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें और भी भीतर प्रवेश करना होगा। (राजयोग – प्रत्याहार और धारणा)
संसार के सभी महापुरुष, साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया है? उन्होंने एक जन्म में ही, समय को कम करके, उन सब अवस्थाओं का भोग कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है। एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बात के लिए एक निमिषमात्र भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। इस प्रकार उनकी मुक्ति का समय घट जाता है। एकाग्रता का यही अर्थ है कि शक्तिसंचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना।
(राजयोग का तृतीय अध्याय – प्राण)
यह एकाग्रता जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक मनुष्य ज्ञानलाभ करेंगे, कारण, यही ज्ञानलाभ का एकमात्र उपाय है “नान्यः पन्था विद्यते अयनाय”। मोची यदि जरा अधिक मन लगाकर काम करे, तो वह जूतों को अधिक अच्छी तरह से पालिश कर सकेगा। रसोईया एकाग्र होने से भोजन को अच्छी तरह से पका सकेगा। अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद् आराधना हो – जिस काम में जितनी एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा। द्वार के निकट जाकर बुलाने से या खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुलकर प्रकाश बाढ रूप में बाहर आता है।
(धर्मरहस्य, ४६)
मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं? यदि प्रकृति के द्वार पर आघात करना मालूम हो गया–उस पर कैसे धक्का देना चाहिए? यह ज्ञात हो गया, तो बस प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है। मानव-मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर आती है, बस यही रहस्य है।
(राजयोग प्रथम अध्याय – अवतरणिका)
कोई शक्ति उत्पन्न नहीं की जाती, फिर भी उसको ठीक ठीक रास्ते में लगाया जा सकता है। इसलिए जो अद्भुत शक्तियाँ हम लोगों के हाथ में हैं उनको वश में करना हमें सीखना है और तत्पश्चात् प्रबल इच्छा-शक्ति द्वारा इस शक्ति को पशुशक्ति न होने देकर देवमय बना देना है। इसीसे मालूम पड़ता है कि पवित्रता ही समस्त धर्म और नीति की भित्ति है।
(सरल राजयोग – राजयोग पर तृतीय पाठ)
मुक्त! हम एक क्षण तो स्वयं अपने मन पर शासन नहीं कर सकते, यही नहीं, किसी विषय पर उसे स्थिर नहीं कर सकते और अन्य सब से हटाकर किसी एक बिन्दु पर उसे केन्द्रित नहीं कर सकते ! फिर भी हम अपने को मुक्त कहते हैं। जरा इस पर गौर तो करो! अनियन्त्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा – हमें चीथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियन्त्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। (भगवान बुद्ध का संसार को संदेश एवं अन्य व्याख्यान और प्रवचन, ५८-५९)
मनुष्य और पशु में मुख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है। किसी भी प्रकार के कार्य में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम है। एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न होता है। छोटे से छोटे आदमी की तुलना ऊँचे से ऊँचे आदमी से करो। अन्तर मन का एकाग्रता की मात्रा होता है।
(भगवान बुद्ध का संसार को संदेश एवं अन्य व्याख्यान और प्रवचन, ६९)
साधारण मनुष्य अपनी विचार-शक्ति का नब्बे प्रतिशत अंश व्यर्थ नष्ट कर देता है और इसलिए वह निरन्तर भारी भूलें करता रहता है। प्रशिक्षित मनुष्य अथवा मन कभी कोई भूल नहीं करता।
(भगवान बुद्ध का संसार को संदेश एवं अन्य व्याख्यान और प्रवचन, १३८)
शुभ और अशुभ विचार, प्रत्येक ही प्रबल शक्ति है, और वे जगद्व्यापी हैं। स्पन्दन बना रहता है, इसलिए कार्यरूप में परिणत होते तक विचार के रूप में बना रहता है। दृष्टान्त के तौर पर मनुष्य की भुजा में शक्ति तब तक अव्यक्त रहती है, जब तक वह कोई प्रहार नहीं करता; प्रहार करने पर वह शक्ति को क्रियाशीलता के रूप में परिणत करता है। हम शुभ और अशुभ विचारों के उत्तराधिकारी हैं। यदि हम अपने को निर्मल बना लें और अशुभ विचारों का निमित्त बना लें, तो ये हममें प्रवेश कोंगे। पवित्रात्मा व्यक्ति अशुभ विचारों को ग्रहण नहीं कर सकता।
(भगवान बुद्ध का संसार को संदेश एवं अन्य व्याख्यान और प्रवचन, १५४)
हमें दिखेगा कि मानवजाति के इतिहास में विश्व के कल्याण के लिए जो अवतार हुए हैं, उनका जीवनव्रत प्रारम्भ से ही निश्चित रहा है। अपने जीवन का सारा नक्शा, सारी योजना उनकी आँखों के सामने थी, और उनसे वे एक इंच भर भी न डिगे। इसका कारण यह है कि वे अपने जीवन में विश्व के लिए एक सन्देश लेकर आये थे।… जब वे बोलते हैं, तो एक एक शब्द सीधे हृदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट पड़ता है और सुननेवाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। निरी वाणी में क्या है, यदि वाणी के पीछे वक्ता की प्रचण्ड शक्ति न हो? तुम किस भाषा में बोलते हो और किस प्रकार अपनी भाषा में शब्दविन्यास करते हो- इससे किसीको क्या मतलब? तुम अच्छी, लच्छेदार, ओजपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हो, तुम किस या व्याकरण-सम्मत भाषा बोलते हो, अथवा तुम्हारी भाषा अलंकारपूर्ण है या नहीं इससे भी किसी का क्या प्रयोजन? प्रश्न तो है तुम्हारे पास लोगों को देने के लिए कुछ है या नहीं? यहाँ केवल कहानी-किस्से सुनने की बात नहीं है, बात है देने और लेने की। तुम्हारे पास देने के लिए कुछ है? यही पहला और मुख्य प्रश्न है। यदि है, तो दो।
(महापुरुषों की जीवनगाथाएँ, ७८-८१)
कुछ भी करो, अपना पूरा मन, जी और प्राण उसमें लगा दो। मेरी एक बार एक संन्यासी से भेंट हुई थी – बड़े संन्यासी थे। वे अपने भोजन बनाने के पीतल के बर्तन ऐसे चमकाते थे कि सोने जैसे दमकने लगते थे। और यह कार्य वे उतनी ही सावधानी एवं तन्मयता से करते थे जैसे अपना पूजन और जप-ध्यान।
(स्वामी विवेकानंद की जीवनी, २८४)
स्वामी विवेकानंद का जीवन और उनके विचार अग्नि की तरह हैं, तो अज्ञान और संशय को जलाकर भस्म कर देते हैं। जो स्वामी विवेकानंद के विचार (Swami Vivekanand Ke Vichar) यहाँ प्रस्तुत किए गए हैं, वे स्वामी विवेकानंद के संपूर्ण साहित्य से संकलित हैं। आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा था और आप आगे किन विषयों पर स्वामी जी के विचार पढ़ना चाहेंगे, कृपया टिप्पणी करके हमें अवश्य बताएँ।