स्वामी विवेकानंद के पत्र – अपने गुरुभाइयों को लिखित (1895)
(स्वामी विवेकानंद का अपने गुरुभाइयों को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
१८९५
प्रियवर,
सान्याल ने जो पुस्तकें भेजी थीं, वे मिल गयीं। मैं यह लिखना भूल गया। उसे यह समाचार बता देना। तुम लोगों को मैं निम्नलिखित बातें बतलाना चाहता हूँ –
१. पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना।अर्थात् यदि तुम किसीके प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो,उसीसे भविष्य में कलह का बीजारोपण होगा।
२. यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा।
३. दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना, लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना। यदि निःस्वार्थभाव से तुम सबसे प्रीति करोगे, तो उसका फल यह होगा कि सब कोई आपस में प्रीति करने लगेंगे। एक का स्वार्थ दूसरे पर निर्भर है, इसका विशेष रूप से ज्ञान होने पर सब लोग ईर्ष्या को त्याग देंगे; आपस में मिल-जुलकर किसी कार्य को सम्पादित करने की भावना हमारे जातीय चरित्र में सुलभ नहीं है; अतः इस प्रकार की भावना को जाग्रत करने के लिए तुम्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ेगा तथा उसके लिए हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा भी करनी होगी। सचमुच मैं तुम लोगों में किसीको छोटा-बड़ा नहीं देख पाता हूँ; मैं यह अनुभव करता हूँ कि आवश्यकता पड़ने पर प्रत्येक एक महान् शक्ति का परिचय दे सकता है। शशि का कितना सुन्दर व्यक्तित्व है, उसकी दृढ़निष्ठा महान् आधारस्वरूप है। काली तथा योगेन ने कैसे अच्छी तरह से ‘टाउन हॉल’ की मीटिंग को सफल बनाया। वास्तव में कितना कठिन कार्य था यह। निरञ्जन ने लंका आदि स्थानों में बहुत कुछ कार्य किया है। सारदा ने विभिन्न देशों में पर्यटन कर कितने ही महान् कार्यों का बीजारोपण किया। हरि के अद्भुत त्याग, दृढ़बुद्धि तथा तितिक्षा से मुझे नवीन प्रेरणा मिलती रहती है। तुलसी, गुप्त, बाबूराम, शरत् इत्यादि सभी के अन्दर एक विशाल शक्ति विद्यमान है। श्रीरामकृष्ण जौहरी थे, इस बारे में अब भी यदि किसीको सन्देह हो, तो उसमें तथा एक पागल में क्या अन्तर है? इस देश में सैकड़ों व्यक्तियों ने अपने प्रभु को सब अवतारों में श्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा करनी प्रारम्भ कर दी है। महान् कार्य धीरे-धीरे सम्पन्न होता है। बारूद के स्तरों को धीरे धीरे सजाना पड़ता है, फिर एक दिन सामान्य अग्नि ही पर्याप्त है – उसीसे चारों ओर ज्वालाएँ दौड़ने लगती हैं।
वे स्वयं कर्णधार हैं, फिर डरने की क्या बात है? तुम लोग अनन्त शक्ति के आधार हो – थोड़ी सी ईर्ष्या तथा अहन्ताबुद्धि को प्रशमित करने के लिए तुम्हें कितना समय चाहिए? जिस समय उस प्रकार की बुद्धि का उदय हो, तत्क्षण ही प्रभु की शरण लो । अपने शरीर तथा मन को उनके कार्यों में सौंप दो, देखोगे, सारी विपत्ति दूर हो जायगी।
इस समय तुम लोग जिस मकान में हो, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है। एक बड़े मकान की आवश्यकता है, अर्थात् एक कोठरी के अन्दर संकुचित रूप से सब कोई रहें, ऐसा आवश्यक नहीं है। सम्भव होने पर एक कोठरी में दो व्यक्तियों से अधिक लोगों का रहना उचित नहीं है। एक बड़ा कक्ष भी चाहिए, जहाँ पर पुस्तकादि रखी जा सकें।
मैं चाहता हूँ कि प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल काली, हरि, तुलसी, शशि आदि परस्पर कुछ शास्त्र-चर्चा करें एवं सायंकाल शास्त्र-चर्चा के बाद कुछ समय के लिए ध्यान-धारणा तथा संकीर्तन होना चाहिए। किसी दिन योग, किसी दिन भक्ति तथा किसी दिन ज्ञान सम्बन्धी आलोचनाएँ हों। इस प्रकार क्रम के अनुसार चलने पर बहुत कुछ लाभ होगा। सायंकालीन कार्यक्रम में साधारण लोगों को शामिल करना चाहिए तथा प्रति रविवार को दिन के दस बजे से रात्रि तक क्रमशः शास्त्र-चर्चा तथा कीर्तनादि होना चाहिए। यह अनुष्ठान साधारण जनता के लिए हो। इस प्रकार के नियमादि बनाकर कुछ दिन प्रयासपूर्वक आयोजन करने पर आगे चलकर अपने आप वह चलता रहेगा। अध्ययन-कक्ष में धूम्र-पान न करना चाहिए; इसके लिए कोई दूसरा स्थान निर्धारित कर देना। यदि परिश्रम कर धीरे धीरे तुम इस प्रकार की व्यवस्था कर सको, तो मैं समझूँगा कि बहुत कुछ कार्य सम्पन्न हुआ। किमधिकमिति –
विवेकानन्द
पुनश्च – मैंने सुना था कि हरमोहन एक पत्रिका प्रकाशित करने में लगा हुआ है। वह कार्य कहाँ तक अग्रसर हुआ? काली, शरत्, हरि, मास्टर, जी० सी० घोष आदि सब मिलकर यदि ऐसी व्यवस्था कर सकें, तो बहुत ही अच्छा हो।