स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री बैकुंठनाथ सान्याल को लिखित (9 फरवरी, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री बैकुंठनाथ सान्याल को लिखा गया पत्र)
५४ डब्ल्यू. ३३ वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
९ फरवरी, १८९५
प्रिय सान्याल,
… परमहंस देव मेरे गुरु थे, अतः महानता के विचार से मैं उनके सम्बन्ध में चाहे जो कुछ सोचूँ, दुनिया मेरी तरह क्यों सोचे? यदि तुम इस बात के ऊपर अधिक बल दोगे, तो सारी बात बिगाड़ दोगे। गुरु को ईश्वर की भाँति पूजने का भाव बंगाल के बाहर और कहीं नहीं मिलता, क्योंकि अन्य लोग अभी उस आदर्श को स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं है।…
जब मैं माँ1 के लिए कुछ भूमि खरीदने में सफल हो जाऊँगा, अपने को एक ऋण से उऋण समझूँगा। उसके बाद मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं।
इस घोर जाड़े में मैंने आधी-आधी रातों में पर्वतों और बर्फ को पार करके कुछ अल्प धन संग्रह किया है और जब माँ के लिए एक भूमि-खण्ड प्राप्त हो जाएगा, तब मेरे मन को चैन मिलेगा।
आगे मेरे पत्र ऊपर के पते से भेजो। अब यही मेरा स्थायी निवास होगा। मुझे ‘योगवाशिष्ठ रामायण’ का कोई अंग्रेजी अनुवाद भेजने की चेष्टा करना। मैंने पहले जिन पुस्तकों को मँगवाया है, उन्हें न भूलना – संस्कृत में नारद एवं शांडिल्य सूत्र।
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम – ‘आशा सबसे बड़ा दुःख है और आशामुक्त होने में ही सबसे बड़ा आनन्द अन्तर्निहित है।’
तुम्हारा सस्नेह,
विवेकानन्द
- श्री माँ सारदा देवी।