स्वामी विवेकानंद के पत्र – मद्रासी शिष्यों को लिखित (24 जनवरी, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का मद्रासी शिष्यों को लिखा गया पत्र)
द्वारा जार्ज डब्ल्यू. हेल,
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२४ जनवरी, १८९४
प्रिय मित्रों,
मुझे तुम्हारे पत्र मिले। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मेरे सम्बन्ध में इतनी अधिक बातें तुम लोगों तक पहुँच गयीं। ‘इन्टीरियर’ पत्रिका की आलोचना के बारे में तुम लोगों ने जो उल्लेख किया है, उसे अमेरिकी जनता का रुख न समझ बैठना। इस पत्रिका के बारे में यहाँ के लोगों को प्रायः कुछ नहीं मालूम, और वे इसे ‘नील नाकवाले प्रेसबिटेरियनों’ की पत्रिका कहते हैं। यह बहुत ही कट्टर सम्प्रदाय है। किन्तु ये ‘नील नाकवाले’ सभी लोग दुर्जन हैं, ऐसी बात नहीं। अमेरिका के लोग एवं पादरियों में भी बहुत से लोग मेरा बहुत सम्मान करते हैं। लोग जिसे आसमान पर चढ़ा रहे हैं, उस पर कीचड़ उछालकर प्रसिद्धि लाभ करने के इरादे से ही इस पत्र में ऐसा लिखा था। ऐसे छल को यहाँ के लोग खूब समझते हैं; एवं इसे यहाँ कोई महत्त्व नहीं देता, किन्तु भारत के पादरी अवश्य ही इस आलोचना का लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। यदि वे ऐसा करें, तो उन्हें कहना – ‘हे यहूदी, याद रखो, तुम पर ईश्वर का न्याय घोषित हुआ है।’ उन लोगों की पुरानी इमारत की नींव भी ढह रही है; पागलों के समान उनके चीत्कार करते रहने के बाबजूद उसका नाश अवश्यम्भावी है। उन पर मुझे दया आती है कि यहाँ प्राच्य धर्मों के समावेश के कारण भारत में आराम से जीवन बिताने के उनके साधन कहीं क्षीण न हो जायें। किन्तु इनके प्रधान पादरियों में से एक भी मेरा विरोधी नहीं। खैर, जो भी हो, जब तालाब में उतरा हूँ, अच्छी तरह से स्नान करूँगा ही।
उन लोगों के समक्ष हमारे धर्म का जो संक्षिप्त विवरण मैंने पढ़ा था, उसे एक समाचारपत्र से काटकर भेज रहा हूँ! मेरे अधिकांश भाषण बिना तैयारी के होते हैं। आशा है, इस देश से वापस जाने के पहले उन्हें पुस्तक का आकार दे सकूँगा। भारत से किसी प्रकार की सहायता की मुझे आवश्यकता नहीं, सहायता यहाँ मुझे प्रचुर मात्रा में प्राप्त है। तुम लोगों के पास जो धन है, उससे इस संक्षिप्त भाषण को छपवाकर प्रकाशित करो, एवं देश की भाषाओं में अनुवाद कराकर चारों तरफ इसका प्रचार करो। यह हमें जनमानस के सामने रखेगा। साथ ही एक केन्द्रीय महाविद्यालय एवं उससे भारत की चारों दिशाओं में शाखाएँ स्थापित करने की हमारी योजना को न भूलना। सहायता लाभ करने के लिए यहाँ मैं प्राणपण से प्रयत्न कर रहा हूँ, तुम लोग भी वहाँ प्रयत्न करो। खूब मेहनत से कार्य करो।…
जहाँ तक अमेरिकी महिलाओं का प्रश्न है, उनकी कृपा के लिए अपनी कृतज्ञता प्रकट करने में मैं असमर्थ हूँ। प्रभु उनका भला करें। इस देश के प्रत्येक आन्दोलन की जान महिलाएँ हैं और वे राष्ट्र की समस्त संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं, क्योंकि पुरुष तो अपने ही शिक्षा-लाभ में अत्यधिक व्यस्त रहते हैं।
किडी के पत्र मिले। जातियाँ रहेंगी या जायेंगी, इस प्रश्न से मेरा कोई मतलब नहीं। मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है, उनकी शिक्षा गरीब से गरीब और हीन से हीन को दी जाय और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाय। जात-पाँत रहनी चाहिए या नहीं, महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए या नहीं, मुझे इससे कोई वास्ता नहीं। ‘विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है।’ जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी।
जात-पाँत रहे या न रहे, सम्प्रदाय रहे या न रहे, परन्तु जो मनुष्य या वर्ग, जाति, राष्ट्र या संस्था किसी व्यक्ति के स्वतंत्र विचार या कर्म पर प्रतिबन्ध लगाती है – भले ही उससे दूसरों को क्षति न पहुँचे, तब भी – वह आसुरी है और उसका नाश अवश्य होगा।
जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके द्वारों तक पहुँचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों में भी जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो। रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार वे कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे। परिश्रम करो, अटल रहो और भगवान् पर श्रद्धा रखो। काम शुरू कर दो। देर-सबेर मैं आ ही रहा हूँ। ‘धर्म को बिना हानि पहुँचाये जनता की उन्नति’ – इसे अपना आदर्श-वाक्य बना लो।
याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु शोक! उन लोगों के किए कभी किसी ने कुछ किया नहीं। हमारे आधुनिक सुधारक विधवाओं के पुनर्विवाह कराने में बड़े व्यस्त हैं। निश्चय ही मुझे प्रत्येक सुधार से सहानुभूति है; परन्तु राष्ट्र की भावी उन्नति उसकी विधवाओं को मिले पति की संख्या पर निर्भर नहीं, वरन् ‘आम जनता की अवस्था’ पर निर्भर है। क्या तुम जनता की उन्नति कर सकते हो? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक आध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये, उन्हें वापस दिला सकते हो? क्या समता, स्वतंत्रता, कार्य-कौशल, पौरुष में तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो? क्या तुम उसी के साथ-साथ स्वाभाविक आध्यात्मिक अंतःप्रेरणा व अध्यात्म-साधनाओं में एक कट्टर सनातनी हिन्दू हो सकते हो? यह काम करना है और हम इसे करेंगे ही। तुम सबने इसी के लिए जन्म लिया है। अपने आप पर विश्वास रखो। दृढ़ धारणाएँ महत् कार्यों की जननी हैं। हमेशा बढ़ते चलो। मरते दम तक गरीबों और पददलितों के लिए सहानुभूति – यही हमारा मंत्र है। वीर युवकों! बढ़े चलो!
शुभाकांक्षी
विवेकानन्द
पुनश्च – इस पत्र को प्रकाशित न करना-परन्तु एक केन्द्रीय महाविद्यालय खोलकर साधारण लोगों की उन्नति के विचार का प्रसार करने में कोई हर्ज नहीं। इस महाविद्यालय के शिक्षित प्रचारकों द्वारा गरीबों की कुटियों में जाकर उनमें शिक्षा एवं धर्म का प्रचार करना होगा। सभी लोग इस कार्य में दिलचस्पी रखें – ऐसा प्रयत्न करो।
तुम लोगों के पास मैं यहाँ के कुछ सर्वोत्तम तथा प्रसिद्ध अखबारों की कुछ कतरनें भेज रहा हूँ। इन सभी में डॉ. टॉमस का लेख विशेष मूल्यवान है, क्योंकि वे चाहे सर्वाग्रणी न हों पर यहाँ के श्रेष्ठ पादरियों में से एक हैं। ‘इन्टीरियर’ पत्रिका की कट्टरता एवं मुझे गाली देकर खुद की प्रसिद्धि लाभ करने के प्रयत्न के बाबजूद उसे यह स्वीकार करना पड़ा कि मैं सर्वप्रिय वक्ता था। उसमें का भी कुछ अंश मैं काटकर भेज रहा हूँ।
वि.