स्वामी विवेकानंद के पत्र – मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखित (अगस्त, 1899)
(स्वामी विवेकानंद का मेरी हेल्बॉयस्टर को लिखा गया पत्र)
द्वारा कुमारी नोबल,
२१ए, हाई स्ट्रीट, विम्बलडन,
अगस्त, १८९९
प्रिय मेरी,
मैं फिर लन्दन में हूँ। इस बार कोई व्यस्तता नहीं, किसी चीज के लिए उतावलापन नहीं; एक कोने में शान्तिपूर्वक बैठ गया हूँ – अवसर मिलते ही अमेरिका प्रस्थान करने की प्रतीक्षा में हूँ। मेरे प्रायः सभी मित्र लन्दन से बाहर हैं – ग्रामों या अन्य स्थानों में, एवं मेरा स्वास्थ्य भी पर्याप्त रूप से ठीक नहीं है।
हाँ, तो तुम कनाडा के अपने एकान्त, झीलों एवं उपवनों के मध्य सुखपूर्वक हो। यह जानकर कि तुम पुनः अपने उत्कर्ष की चोटी पर हो, मैं खुश हूँ, बहुत खुश। तुम सतत वहाँ बनी रहो!
तुम अब तक ‘राजयोग’ का अनुवाद समाप्त न कर सकीं – ठीक है, कोई जल्दी नहीं है। तुम जानती हो कि अगर इसे पूरा होना है, तो समय एवं अवसर अवश्य आयेगा, अन्यथा हम व्यर्थ ही प्रयत्न करते हैं।
अपने लघु किन्तु प्रबल ग्रीष्म में कनाडा आजकल अवश्य ही सुन्दर हो रहा होगा, और स्वास्थप्रद भी।
कुछ सप्ताह में मैं न्यूयार्क में होने की आशा करता हूँ और इसके आगे क्या होगा मुझे मालूम नहीं। आगामी बसन्त में मैं इंग्लैण्ड फिर आने की आशा करता हूँ।
यह मेरी उत्कट अभिलाषा है कि कोई आपदा किसी के पास न फटके, लेकिन आपदा ही एक ऐसी वस्तु है, जो हमें अपने जीवन की गहराइयों में अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है। क्या यह ऐसा नहीं करती?
अन्तर्वेदना के क्षणों में सदा के लिए जकड़े द्वार खुलते प्रतीत होते हैं और प्रकाश का एक प्रवाह अन्दर प्रविष्ट होता प्रतीत होता है।
अवस्था के साथ-साथ हम सीखते चलते हैं। खेद की बात है कि यहाँ हम अपने ज्ञान का उपयोग नहीं कर पाते। जिस क्षण हमें लगता है कि हम सीख रहे हैं, उसी क्षण रंगमंच से जल्दी से हटा दिये जाते हैं और यह माया है!
यदि हम ज्ञानी खिलाड़ी हों, तो नकली संसार की यहाँ कोई सत्ता नहीं होगी, यह खेल आगे चले ही न। आँखों में पट्टी बाँधे हमें खेलना होगा। हममें से किसी ने इस नाटक में खलनायक की भूमिका ली है और किसी ने नायक की – कदापि चिन्ता न करो, यह सब एक नाटक है। यही एक सान्त्वना है। रंगमंच पर क्या नहीं है – वहाँ दैत्य हैं, सिंह हैं, चीते हैं, लेकिन उन सबका मुँह बँधा है। वे उछलते हैं, लेकिन काट नहीं सकते। संसार हमारी आत्मा का स्पर्श नहीं कर सकता है। यदि तुम चाहो, तो टुकड़े-टुकड़े हो गये एवं रक्त बहते शरीर में भी तुम अपने मन में महत्तम शान्ति का आनन्द लेती रह सकती हो।
और इसकी यही एक मार्ग है कि आशाहीनता को प्राप्त किया जाय। क्या उसका तुम्हें ज्ञान है? यह नैराश्य की जड़-बुद्धि नहीं है, यह तो एक विजेता की उन वस्तुओं के प्रति अवज्ञा है, जिनको उसने प्राप्त कर लिया है, जिनके लिए उसने संघर्ष किया है और फिर जिनको अपने महत्व की तुलना में नगण्य समझ कर ठुकरा दिया है। इस आशाहीनता, इच्छाहीनता, उद्देश्यहीनता का ही प्रकृति के साथ सामंजस्य है। प्रकृति में कोई सामंजस्य नहीं, कोई तर्क नहीं, कोई क्रम नहीं; उसमें पहले भी अस्तव्यस्तता थी, अब भी है।
निम्नतम मनुष्य भी अपने पार्थिव मन के द्वारा प्रकृति के साथ एकलय है; उच्चतम भी अपने पूर्ण ज्ञान के साथ वैसा ही है। ये तीनों ही उद्देश्यहीन, स्वच्छन्द एवं आशारहित हैं – तीनों ही सुखी हैं।
तुम एक गप्पी पत्र की आशा करती हो, है न यह बात? गप्पों के लिए मेरे पास कोई अधिक सामग्री नहीं है। अन्तिम दो दिन श्री स्टर्डी आये थे। कल वे वेल्स – अपने घर जा रहे हैं।
दो-एक दिन में न्यूयार्क – यात्रा के लिए मुझे टिकट लेने हैं।
कुमारी साउटर एवं मैक्स गिसिक के सिवा अब तक यहाँ लन्दन में जो पुराने मित्र हैं, उनमें किसी से भी मैं नहीं मिला हूँ। वे सदा की भाँति बहुत ही सहृदय रहे हैं।
चूँकि अब तक लन्दन के विषय में मुझे कुछ भी महसूस नहीं, इसलिए मेरे पास तुम्हारे लिए कोई समाचार नहीं है। मुझे पता नहीं कि गरट्रुड आर्चार्ड कहाँ है, अन्यथा मैंने उसे लिखा होता। कुमारी केट स्टील भी बाहर है। वह बृहस्पति या शनिवार को आने वाली है।
मुझे पेरिस में ठहरने के लिए एक मित्र का निमन्त्रण मिला है, वे एक अच्छे पढ़े-लिखे भद्र फ़्रान्सीसी हैं, लेकिन इस बार में मैं नहीं जा सका। कभी फिर, कुछ दिन के लिए मैं उनके साथ रहने की आशा करता हूँ। मैं अपने कुछ पुराने मित्रों से मिलने एवं उनसे नमस्कार-प्रणाम करने की आशा करता हूँ।
निश्चय ही तुमसे अमेरिका में मिलने की आशा है। या तो अपने पर्यटन के सिलसिले में मैं अप्रत्याशित ही ओटावा आ सकता हूँ या तुम्हीं न्यूयार्क आ जाओ।
शुभेच्छा, तुम्हारा मंगल हो।
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द