स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी तथा हैरियट हेल को लिखित (28 नवम्बर, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी तथा हैरियट हेल को लिखा गया पत्र)
३९, विक्टोरिया स्ट्रीट,
लन्दन,
२८ नवम्बर, १८९६
प्रिय बहनो,
चाहे जिस कारण से भी हो, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम चारों से ही मैं सबसे अधिक स्नेह करता हूँ एवं मुझे अत्यन्त गर्व के साथ यह विश्वास है कि तुम चारों भी मुझसे वैसा ही स्नेह करती हो। इसलिए भारत रवाना होने से पूर्व तुम लोगों को यह पत्र स्वयं ही आत्मप्रेरित होकर लिख रहा हूँ। लन्दन में हमारे कार्य को जबरदस्त सफलता मिली है। अंग्रेज लोग अमेरिकनों की तरह उतने अधिक सजीव नहीं हैं, किन्तु यदि कोई एक बार उनके हृदय को छू ले तो फिर सदा के लिए वे उसके गुलाम बन जाते हैं। धीरे-धीरे मैं उन पर अपना अधिकार जमा रहा हूँ। आश्चर्य है कि छः माह के अन्दर ही सार्वजनिक भाषणों के अलावा भी मेरी कक्षा में १२० व्यक्ति नियमित रूप से उपस्थित हो रहे हैं। अंग्रेज लोग अत्यन्त कार्यशील हैं, अतः यहाँ के सभी लोग क्रियात्मक रूप से कुछ करना चाहते हैं। कैप्टन तथा श्रीमती सेवियर एवं श्री गुडविन कार्य करने के लिए मेरे साथ भारत रवाना हो रहे हैं और उसका व्यय-भार भी वे स्वयं उठायेंगे। यहाँ पर और भी बहुत से लोग इस प्रकार कार्य करने को प्रस्तुत हैं। प्रतिष्ठित स्त्री-पुरुषों के मस्तिष्क में एक बार किसी भावना को प्रवेश करा देने पर, उसे कार्य में परिणत करने के लिए वे अपना सब कुछ त्याग करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं! और सबसे अधिक आनन्दप्रद समाचार (यह कोई साधारण बात नहीं) यह है कि भारत में कार्य प्रारम्भ करने के लिए हमें आर्थिक सहायता प्राप्त हो गयी है एवं आगे चलकर और भी प्राप्त होगी। अंग्रेज जाति के सम्बन्ध में मेरी धारणा पूर्णतया बदल चुकी है। अब मुझे यह पता चल रहा है कि अन्यान्य जातियों की अपेक्षा प्रभु ने उन पर अधिक कृपा क्यों की है। वे दृढ़ संकल्प तथा अत्यन्त निष्ठावान हैं; साथ ही उनमें हार्दिक सहानुभूति है – बाहर उदासीनता का केवल एक आवरण रहता है। उसको तोड़ देना है, बस फिर तुम्हें अपनी पसन्द का व्यक्ति मिल जायगा।
इस समय कलकत्ता तथा हिमालय में मैं एक एक केन्द्र स्थापित करने जा रहा हूँ। प्रायः ७००० फुट ऊँची एक समूची पहाड़ी पर हिमालय-केन्द्र स्थापित होगा। वह पहाड़ी गर्मी की ऋतु में शीतल तथा जाड़े में ठंडी रहेगी। कैप्टन तथा श्रीमती सेवियर वहीं रहेंगे एवं यूरोपीय कार्यकर्ताओं का वह केन्द्र होगा, क्योंकि मैं उनको भारतीय रहन-सहन अपनाने तथा निदाघतप्त भारतीय समतल भूमि में बसने के लिए बाध्य कर मार डालना नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि सैकड़ों की संख्या में हिन्दू युवक प्रत्येक सभ्य देश में जाकर वेदान्त का प्रचार करें और वहाँ से नर-नारियों को एकत्र कर कार्य करने के लिए भारत भेजें। यह आदान-प्रदान बहुत ही उत्तम होगा। केन्द्रों को स्थापित कर मैं ‘जॉब का ग्रन्थ’१ में वर्णित उस व्यक्ति की तरह ऊपर-नीचे चारों ओर घूमूँगा।
आज यहीं पर पत्र को समाप्त करना चाहता हूँ – नहीं तो आज की डाक से रवाना न हो सकेगा। सभी ओर से मेरे कार्यों के लिए सुविधा मिलती जा रही है – तदर्थ मैं अत्यन्त सुखी हूँ एवं मैं समझता हूँ कि तुम लोगों को भी मेरी तरह सुख का अनुभव होगा। तुम्हें अनन्त कल्याण तथा सुख-शान्ति प्राप्त हो। अनन्त प्यार के साथ –
शुभाकांक्षी,
विवेकानन्द
पुनश्च – धर्मपाल का क्या समाचार है? वह क्या कर रहा है? उससे भेंट होने पर मेरा स्नेह कहना।
वि.