स्वामी विवेकानंद के पत्र – मेरी हेल तथा हेरियट हेल को लिखित (26 जून, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का मेरी हेल तथा हेरियट हेल को लिखा गया पत्र)
द्वारा श्री जार्ज. डब्ल्यू. हेल,
५४, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
२६ जून, १८९४
प्रिय बहनों,
हिन्दू के महाकवि तुलसीदास ने अपने रामायण के स्वस्ति-वाचन में लिखा है – ‘मैं साधु तथा असाधु दोनों की ही चरणवन्दना करता हूँ, किन्तु हाय, मेरे लिए दोनों ही समान रूप से दुःखदायी हैं। असाधु व्यक्ति मेरे समीप आकर मुझे अत्यन्त दुःख पहुँचाते हैं और साधु व्यक्ति जब मुझे छोड़ जाते हैं, तब वे अपने साथ ही मेरे प्राणों को हर ले जाते हैं।’1
मैं इस बात को मानता हूँ। जिन भगवत्प्रिय साधु जनों के प्रति प्रेम तथा जिनकी सेवा ही मेरे लिए इस संसार में सुख व प्रेम का एकमात्र अवलंबन है, उनका विरह मेरे लिए मृत्यु यंत्रणा के समान है किन्तु ये सब आवश्यक हैं। हे मेरे प्रियतम के वेणुसंगीत, मुझे ले चलो – मैं तुम्हारा ही अनुसरण कर रहा हूँ। उदारमना, मधुर-प्रकृति, सहृदय, तुम जैसे पवित्र लोगों से वियुक्त होकर मुझे जो कष्ट हो रहा है, जो यातनाएँ मिल रही हैं, उसे व्यक्त करना मेरे लिए असम्भव है। हाय, यदि मैं स्टोइक (एूदग्म्) दार्शनिकों की तरह सुख-दुःख में निर्विकार रह सकता!
आशा है, तुम लोग सुन्दर ग्रामीण दृश्यों का आनन्द ले रही होगी।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
– ‘समस्त प्राणियों के लिए जो रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागते रहते हैं और जब प्राणिसमूह जागते रहते हैं, आत्मज्ञानी मुनि के लिए तब वह रात्रि स्वरूप है।2
इस जगत् की धूल तक भी तुम्हारा स्पर्श न कर सके, क्योंकि कवियों का ही कहना है कि यह जगत् फूल-मालाओं से ढका हुआ एक सड़ा मुर्दा है। यदि तुमसे हो सके, तो इसका स्पर्श तक न करना। तुम तो स्वर्गस्थ विहंगमों के शिशु शावक हो – इससे पहले कि तुम्हारे पैर इस दूषित पंकराशि को, इस संसार को स्पर्श करें, चले आओ, उड़कर आकाश की ओर चले आओ।
‘ओ तुम, जो जाग रहे हो, फिर से मत सो जाना।’
‘जागतिक प्राणियों के लिए प्रेम करने की अनेक वस्तुएँ हैं – उनको उनसे प्रेम करने दो। हमारे प्रेमास्पद तो एक ही हैं – और वे हैं हमारे प्रभु। वे क्या क्या कहते हैं, इसकी हमें कोई परवाह नहीं। किन्तु जब वे हमारे प्रेमास्पद पर विकट विशेषणों का आरोप कर उन्हें रंगना चाहते हैं, हमें भय लगता है। उन लोगों की जो मर्जी हो करते रहें, हमारे लिए तो वे केवल प्रेमास्पद ही हैं – मेरे प्रियतम, प्रियतम, प्रियतम, और कुछ भी नहीं।’
‘यह कौन जानना चाहता है कि उनमें कितनी शक्ति तथा कितने गुण हैं और हमारी भलाई करने का कितना सामर्थ्य उनमें विद्यमान है? हम निश्चित रूप से यही कहेंगे कि उनसे हमारा प्रेम धन के लिए नहीं है। हम अपने प्रेम का विक्रय नहीं करते। हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। हम तो उसका वितरण करते हैं।’
‘हे दार्शनिक! क्या तुम हमसे उनके स्वरूप की, उनके ऐश्वर्य तथा गुण की बातें करना चाहते हो? मूर्ख! उनके अधर के एक चुम्बन मात्र के लिए यहाँ हमारे प्राण निकल रहे हैं। तुम अपनी उन व्यर्थ की वस्तुओं को अपने घर वापस ले जाओ और मेरे लिए मेरे प्रियतम का एक चुम्बन भेज दो – क्या तुम यह कर सकते हो?’
‘मूर्ख! किसके सम्मुख भय तथा आतंक से तुम अपने लड़खड़ाते घुटने टेक रहे हो? मैंने अपने गले के हार को उनके गले में डाल दिया है तथा उस में एक धागा बाँधकर उनको मैं अपने साथ लिवा ले जा रही हूँ – इस डर से कि कहीं क्षण भर के लिए भी वे मुझे छोड़कर अन्यत्र न चले जायें। वह हार प्रेम का हार है और वह धागा प्रेमोल्लास का धागा है। मूर्ख, तुम इस रहस्य को नहीं जानते कि वह असीम मेरे प्रेम के बन्धन में बँधकर मेरी मुट्ठी भर में आ जाता है। क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि विश्व के वे नियन्ता वृन्दावन की गोपियों की नूपुर-ध्वनि के साथ साथ नाचते फिरते थे?
उन्मत्त की तरह यह जो कुछ मैं लिख गया, उसे क्षमा कर देना। अव्यक्त को व्यक्त करने के प्रयास की मेरी इस धृष्टता को माफ कर देना – वह सिर्फ अनुभव का ही विषय है। सदा मेरा शुभाशीर्वाद लेना।
तुम्हारा भाई,
विवेकानन्द
- बन्दौं सन्त असन्तन चरता । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥ बिछुरत एक प्रान हर लेई । मिलत एक दारुन दुख देई ॥
- गीता ॥२।६९॥