स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज को लिखित (5 दिसम्बर, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी अल्बर्टा स्टारगीज को लिखा गया पत्र)
आर. एम. एस. ‘ब्रिटानिक’,
बृह्स्पतिवार, प्रातःकाल,
५ दिसम्बर, १८९५
प्रिय अल्बर्टा,
कल सायंकाल तुम्हारा सुन्दर पत्र मिला। तुमने मुझे याद किया, यह तुम्हारी कृपा है। मैं शीघ्र ही ‘दिव्य दम्पति’ देखने जा रहा हूँ। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, श्री लेगेट संत हैं और तुम्हारी माँ रोम रोम से जन्मना सम्राज्ञी हैं तथा उनका हृदय एक संत का है।
तुम आल्प्स का खूब आनन्द ले रही हो, यह जानकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अवश्य ही वह अद्भुत होगा। ऐसे ही स्थानों में आत्मा सदैव मुक्ति के लिए प्रेरित होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र होने पर भी राष्ट्र भौतिक स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा करता है। लन्दन में मैं एक स्विस नवयुवक से मिला। वह मेरी कक्षाओं में आया करता था। मैं लन्दन में बहुत सफल रहा और यद्यपि मैंने कोलाहलपूर्ण नगर की कोई चिंता नहीं की, मैं लोगों से बहुत ख़ुश हुआ। अल्बर्टा, प्रारम्भ में तुम्हारे देश में वेदान्त की विचारधारा का प्रवेश कुछ अज्ञानी ‘धूर्तों’ द्वारा हुआ और किसीको इस प्रकार के सूत्रपात से उत्पन्न कठिनाइयों के बीच कार्य करना है। तुमने देखा होगा कि उच्च वर्ग के बहुत कम लोग अमेरिका में मेरी कक्षाओं में आते थे। अमेरिका में उच्च वर्गों के धनी होने के कारण उनका सारा समय अपने धन के उपभोग और यूरोपवालों के अनुकरण (मूर्खतापूर्ण नकलचीपन?) में बीतता है। इसके विपरीत इंग्लैण्ड में वेदान्त के विचारों का प्रचार देश के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों द्वारा हुआ है, और इंग्लैण्ड में उच्च वर्गों में बहुत से लोग बड़े विचारशील हैं। इसलिए तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि मुझे बनी-बनायी पृष्ठभूमि मिल गयी और मुझे विश्वास है कि अमेरिका की अपेक्षा इंगलैण्ड में मेरा कार्य अधिक प्रभावशाली होगा। इसीके साथ अंग्रेजों की चारित्रिक दृढ़ता को लो और स्वयं निर्णय करो। इससे तुम्हें लगेगा कि मैंने इंग्लैण्ड सम्बन्धी अपनी धारणा को बहुत बदल दिया है, मुझे यह स्वीकार करने में हर्ष होता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम लोग जर्मनी में और भी अच्छा कार्य करेंगे। आगामी ग्रीष्म में मैं पुनः इंग्लैण्ड लौट रहा हूँ। इधर मेरा कार्य बड़े योग्य हाथों में है। जो जो जिस प्रकार अमेरिका में सहृदय और भली-सच्ची मित्र थी, उसी प्रकार यहाँ भी रही है, और तुम्हारे परिवार के प्रति तो मेरा ऋण विपुल ही है। होलिस्टर और तुम्हें मेरा स्नेह और आशीर्वाद! कुहरे के कारण जहाज लंगर डाले हुए है। जहाज के भंडारी ने मुझे एक पूरा कमरा केवल मेरे ही लिए दे दिया है। वह बड़ा शिष्ट है और समझता है कि प्रत्येक हिन्दू राजा होता है – लेकिन सारा जादू तब उड़ जायगा, जब उसे मालूम होगा कि राजा के पास कौड़ी भी नहीं है!
सस्नेह तुम्हारा,
विवेकानन्द