स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
मठ, बेलूड़, हावड़ा,
बंगाल, भारत
प्रिय ‘जो’,
तुम्हारे जिस महान ऋण से मैं ऋणी हूँ, उसे चुकाने की कल्पना तक मैं नहीं कर सकता। तुम कहीं भी क्यों न रहो, मेरी मंगलकामना करना तुम कभी भी नहीं भूलती हो। और तुम्ही एकमात्र ऐसी हो, जो इन तमाम शुभेच्छाओं से ऊँची उठकर मेरा समस्त बोझ अपने ऊपर लेती हो तथा मेरे सब प्रकार के अनुचित आचरणों को सहन करती हो।
तुम्हारे जापानी मित्र ने बहुत ही दयालुतापूर्ण व्यवहार किया है; किन्तु मेरा स्वास्थ्य इतना ख़राब है कि मुझे यह डर है कि जापान जाने का समय मैं नहीं निकाल सकूँगा। कम से कम केवल अपने गुणग्राही मित्रों के समाचार जानने के लिए मुझे एक बार बम्बई प्रेसीडेन्सी होकर गुजरना पड़ेगा।
इसके अलावा जापान यातायात में भी दो महीने बीत जायँगे, केवल एक महीना वहाँ पर रह सकूँगा; कार्य करने के लिए इतना सीमित समय पर्याप्त नहीं है – तुम्हारा क्या मत है? अतः तुम्हारे जापानी मित्र ने मेरे मार्गव्यय के लिए जो धन भेजा है, उसे तुम वापस कर देना ; नवम्बर में जब तुम भारत लौटोगी, उस समय मैं उसे चुका दूंगा।
आसाम में मुझ पर पुनः मेरे रोग का भयानक आक्रमण हुआ था; क्रमशः मैं स्वस्थ हो रहा हूँ। बम्बई के लोग मेरी प्रतीक्षा कर हैरान हो चुके हैं; अब की बार उनसे मिलने जाना है।
इन सब कारणों के होते हुए भी यदि तुम्हारा यह अभिप्राय हो कि मेरे लिए जाना उचित है, तो तुम्हारा पत्र मिलते ही मैं रवाना हो जाऊँगा।
लन्दन से श्रीमती लेगेट ने एक पत्र लिखकर यह जानना चाहा है कि उनके भेजे हुए ३०० पौण्ड मुझे प्राप्त हुए हैं अथवा नहीं। उनका भेजा हुआ धन यथा-समय मुझे प्राप्त हुआ है तथा पूर्व निर्देश के अनुसार एक सप्ताह अथवा उससे भी पहले ‘मोनरो एण्ड कम्पनी, पेरिस’ – इस पते पर मैंने उनको सूचित कर दिया है।
उनका जो अन्तिम पत्र मुझे प्राप्त हुआ है, उस लिफाफ़े को न जाने किसने अत्यन्त भद्दे तरीक़े से फाड़ दिया है। भारतीय डाक विभाग मेरे पत्रों को थोड़ी शिष्टता के साथ खोलने का प्रयास भी नहीं करता!
तुम्हारा चिरस्नेहशील,
विवेकानन्द