स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (3 अगस्त, 1899)

(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)

दि लिन्स,
वुड साइड्स, विम्बिल्डन,
३ अगस्त, १८९९

प्रिय ‘जो’,

आखिर हमें चैन मिली। मुझे एवं तुरीयानन्द को यहाँ रहने का सुन्दर स्थान मिल गया है। सारदानन्द का भाई कुमारी नोबल के साथ है और अगले सोमवार को वह प्रस्थान कर रहा है।

समुद्र-यात्रा से मेरे स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ है। यह डम्बलों के साथ व्यायाम करने और मानसूनी तूफान के द्वारा लहरों में टक्कर खाते स्टीमर से ही हुआ। क्या यह विचित्र बात नहीं है? आशा है कि ऐसा ही चलेगा। हमारी माँ – भारत की पूज्या ब्राह्मणी गाय, कहाँ है? मैं समझता हूँ कि वह तुम्हारे साथ न्यूयार्क में है।

स्टर्डी, श्रीमती जॉनसन एवं और सब लोग बाहर हैं। इससे मार्गो चिन्तित है। वह अगले महीने तक अमेरिका (संयुक्तराज्य) नहीं आ सकती है। मैं धीरे-धीरे समुद्र से स्नेह करने लग गया हूँ। मत्स्यावतार मेरे ऊपर है, ऐसा मुझे भान होता है; मुझ बंगाली को ऐसा विश्वास है कि उसकी प्रचुर मात्रा मुझमें है।

अल्बर्टा के हाल-चाल क्या हैं… , बूढ़े लोग और अन्य लोग कैसे हैं? श्रीमती ब्रेर रैबिट का एक सुन्दर पत्र मुझे मिला था; वह हमसे लन्दन में नही मिल सकांी; हम लोगों के पहुँचने के पहले ही वह प्रस्थान कर चुकी थीं।

यहाँ पर मौसम सुहावना और गर्म है; या जैसा लोग कहते हैं, बहुत गर्म। मैं इस समय एक शून्यवादी हो गया हूँ, जो ‘शून्य’ या ‘कुछ नहीं’ में विश्वास करता है। कोई योजना नहीं, कोई अनुचिन्ता नहीं, किसी भी काम के लिए प्रयत्न नहीं, पूर्ण रूपेण मुक्त। अच्छा ‘जो’, स्टीमर पर जब कभी मैंने तुम्हारी या देव-गाय की निन्दा की, मार्गो ने सदा तुम्हारा पक्ष लिया। बेचारी बच्ची, उसको क्या पता! ‘जो’ इन सबका यही तात्पर्य है कि लन्दन में कोई कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि तुम यहाँ नहीं हो। तुम मेरा भाग्य जान पड़ती हो! पीसे जाओ, बूढ़ी देवी, यह कर्म है और कोई इससे बच नहीं सकता। कहा जा सकता है कि इस समुद्र-यात्रा से मैं वर्षों छोटा नजर आ रहा हूँ। केवल जब हृदय धक्का देता है, तभी मुझे अपनी अवस्था का भान होता है। हाँ, तो यह अस्थि-चिकित्सा (Osteopathy) क्या है? क्या मेरा उपचार करने के लिए वे एक-दो पसली काटकर अलग कर देंगे। मैं कभी नहीं होने दूँगा, निश्चित ही मेरी पसलियों से… की रचना नहीं होने की। मेरी हड्डियाँ गंगा में मूँगे बनने के लिए निर्मित हैं। अगर प्रतिदिन तुम मुझे एक पाठ पढ़ाओ, तो अब मैं फ्रेंच पढ़ सकता हूँ, लेकिन व्याकरण से कुछ वास्ता नहीं – मैं केवल पढ़ूँगा और तुम उसकी अंग्रेजी में व्याख्या करना। कृपया अभेदानन्द को मेरा स्नेह देना और तुरीयानन्द के स्थान पर तैयार रहने के लिए कहना। मैं उसके साथ प्रस्थान करूँगा। शीघ्र लिखना।

सस्नेह,
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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