स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखित (7 अक्टूबर, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी जोसेफिन मैक्लिऑड को लिखा गया पत्र)
द्वारा कुमारी मूलर,
एयरली लॉज, रिजवे गार्डन्स,
विम्बलडन, इंग्लैण्ड,
७ अक्टूबर, १८९६
प्रिय ‘जो’,
पुनः उसी लन्दन में! और कक्षाएँ भी यथावत शुरू हो गयी हैं। मेरा मन आप-ही उस परिचित मुख को चारों ओर ढूँढ़ रहा था, जिसमें कभी निरुत्साह की एक रेखा तक नहीं दिखती थी; जो कभी परिवर्तित नहीं होता था और जिससे मुझे सदा सहायता मिलती थी तथा जो मुझमें शक्ति एवं उत्साह का संचार करता था और कई हजार मील की दूरी के बावजूद वही मुखमंडल मेरे मनश्चक्षु के सम्मुख उदित हुआ, क्योंकि उस अतीन्द्रिय भूमि में दूरत्व का स्थान ही कहाँ है? अस्तु, तुम तो अपने शान्तिमय तथा पूर्ण विश्रामदायक घर लौट चुकी हो – परन्तु मेरे समक्ष प्रतिक्षण कर्मों का तांडव बढ़ता ही जा रहा है! फिर भी तुम्हारी शुभ-कामनाएँ सदा ही मेरे साथ हैं – ठीक है न?
किसी गुफा में जाकर चुपचाप निवास करना ही मेरा स्वाभाविक संस्कार है; किन्तु पीछे से मेरा अदृष्ट मुझे आगे की ओर धकेल रहा है और मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ। अदृष्ट की गति को कौन रोक सकता है?
ईसा मसीह ने अपने ‘पर्वत पर उपदेश’ (Sermon on the Mount) में यह क्यों नहीं कहा – ‘जो सदा आनन्दमय तथा आशावादी हैं, वे ही धन्य हैं, क्योंकि उनको स्वर्ग का राज्य तो पहले ही प्राप्त हो चुका है।’ मेरा विश्वास है कि उन्होंने निश्चय ही ऐसा कहा होगा, यद्यपि वह लिपिबद्ध नहीं हुआ; कारण यह है कि उन्होंने अपने हृदय में विश्व के अनन्त दुःख को धारण किया था एवं यह कहा था कि साधु का हृदय शिशु के अन्तःकरण के सदृश है। मैं समझता हूँ, उनके हजारों उपदेशों में से शायद एकाध उपदेश, जो याद रहा, लिपिबद्ध किया गया है।
हमारे अधिकांश मित्र आज आये थे। गाल्सवर्दी परिवार की एक सदस्या – विवाहित पुत्री भी आयी थी। श्रीमती गाल्सवर्दी आज नहीं आ सकीं, सूचना बहुत देर से दी गयी थी। अब हमारे पास एक हॉल भी है, खास बड़ा जिसमें लगभग दो सौ व्यक्ति अथवा इससे अधिक भी आ सकते हैं। इसमें एक बड़ा सा कोना है जिसमें पुस्तकालय की व्यवस्था की जायगी। अब मेरी सहायता के लिए भारत से एक और व्यक्ति आ गया है।
मुझे स्विट्जरलैण्ड में बड़ा आनन्द आया, जर्मनी में भी। प्रोफेसर डॉयसन बहुत ही कृपालु रहे – हम दोनों साथ लन्दन आये और दोनों ने यहाँ काफी आनन्द लिया। प्रोफेसर मैक्समूलर भी बहुत अच्छे मित्र हैं। कुल मिलाकर इंग्लैण्ड का काम मजबूत हो रहा है और सम्माननीय भी, यह देखकर कि बड़े-बड़े विद्वान् सहानुभूति प्रदर्शित कर रहे हैं। शायद मैं अगली सर्दियों में कुछ अंग्रेज मित्रों के साथ भारत जाऊँगा। यह तो बात हुई अपने बारे में।
उस धार्मिक परिवार का क्या हाल है? मुझे विश्वास है कि सब कुछ बिल्कुल ठीक चल रहा है। अब तो तुम्हें फोक्स का समाचार सुनने को मिला होगा। मुझे डर है कि उसके जहाजी यात्रा शुरू करने के एक दिन पहले, मेरे यह कहने से कि तुम तब तक मेबेल से विवाह नहीं कर सकते, जब तक तुम काफी कमाने न लगो, वह कुछ निराश हो गया था! क्या मेबेल अभी तुम्हारे यहाँ है? उससे मेरा प्यार कहना। तुम अपना वर्तमान पता भी मुझको लिखना।
माँ कैसी है? मुझे विश्वास है कि फ्रान्सिस पूर्ववत् पक्के खरे सोने की तरह है। अल्बर्टा तो संगीत और भाषाएँ सीख रही होगी, पूर्ववत खूब हँसती होगी और खूब सेब खाती होगी? हाँ, आजकल फल-बादाम ही मेरा मुख्य आहार है एवं वे मुझे काफी अनुकूल जान पड़ते हैं। यदि कभी उस अज्ञात ‘उच्च देशीय’ बूढ़े डॉक्टर के साथ तुम्हारी भेंट हो तो यह रहस्य उन्हें बतलाना। मेरी चर्बी बहुत कुछ घट चुकी है; जिस दिन भाषण देना होता है, उस दिन अवश्य पौष्टिक भोजन करना पड़ता है। हासिल का क्या समाचार है? उसकी तरह के मधुर स्वभाव का कोई दूसरा बालक मुझे दिखायी नहीं दिया। उसका समग्र जीवन सर्वविध आशीर्वाद से पूर्ण हो।
मैंने सुना है कि जरथुष्ट्र के मतवाद के समर्थन में तुम्हारे मित्र कोरा भाषण दे रहे हैं? इसमें सन्देह नहीं कि उनका भाग्य विशेष अनुकूल नहीं है। कुमारी एण्ड्रीज तथा हमारे योगानन्द का क्या समाचार है? ‘ज ज ज’ गोष्ठी की क्या खबर है? और हमारी श्रीमती (नाम याद नहीं है) कैसी हैं? ऐसा सुना जा रहा है कि हाल ही में आधा जहाज भरकर हिन्दू, बौद्ध, मुसलमान तथा अन्य और न जाने कितने ही सम्प्रदाय के लोग अमेरिका आ पहुँचे हैं; तथा महात्माओं की खोज करने वालों, ईसाई धर्म प्रचारकों आदि का दूसरा दल भारत में घुसा है। बहुत खूब! भारतवर्ष तथा अमेरिका – ये दोनों देश धर्म-उद्योग के लिए बने जान पड़ते हैं! किन्तु ‘जो’, सावधान! विधर्मियों की छूत खतरनाक है। श्रीमती स्टर्लिंग से आज रास्ते में भेंट हुई। आजकल वे मेरे भाषण सुनने नहीं आतीं। यह उनके लिए उचित ही है, क्योंकि अत्यधिक दार्शनिकता भी ठीक नहीं है। क्या तुम्हें उस महिला की याद है जो मेरी हर सभा में इतनी देर से आती थी कि उसको कुछ भी सुनने को न मिलता था, किन्तु तुरन्त बाद में वह मुझे पकड़कर इतनी देर तक बातचीत में लगाये रखती कि भूख से मेरे उदर में ‘वाटरलू’ का महासंग्राम छिड़ जाता था। वह आयी थी। लोग आ रहे हैं तथा और भी आयेंगे। यह आनन्द का विषय है।
रात बढ़ती जा रही है, अतः ‘जो’ विदा – (न्यूयार्क में भी क्या ठीक-ठीक अदब-कायदे का पालन करना आवश्यक है?) प्रभु, निरन्तर तुम्हारा कल्याण करें!
‘मनुष्य के प्रवीण रचयिता ब्रह्मा को एक ऐसे निर्दोष रूप की रचना करने की इच्छा हुई जिसका अनुपम सौष्ठव सृष्टि की सुन्दरतम कृतियों में सर्वोत्तम हो। इसके लिए उसने महाकांक्षा से समस्त सुन्दर वस्तुओं का एक साथ आवाहन कर अपने शाश्वत मन में एकत्र किया और उनको एक चित्र की भाँति उत्कृष्ट तथा आदर्श रूप दिया। ऐसे दिव्य, ऐसे आश्चर्यजनक आदि रूप से उस सौन्दर्य राशि की रचना हुई।’ (कालिदास कृत अभिज्ञानशाकुन्तलम्)
‘जो’, ‘जो’ तुम वह हो, मैं केवल इतना और जोड़ देना चाहता हूँ कि उसी रचयिता ने समस्त पवित्रता, समस्त उदाराशयता तथा अन्य समस्त गुणों को भी एकत्र किया और तब ‘जो’ की रचना हुई।
शुभाकांक्षी
विवेकानन्द
पुनश्च – सेवियर दम्पत्ति तुम्हें अपनी शुभकामनाएँ भेज रहे हैं। उनके निवासस्थान से ही मैं यह पत्र लिख रहा हूँ।
विवेकानन्द