स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (17 जून, 1900)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
१९२१ पश्चिम २१वीं स्ट्रीट,
लॉस एंजिलिस,
१७ जून, १९००
प्रिय मेरी,
यह सही है कि मैं पहले से काफी अच्छा हूँ, पर अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुआ हूँ। दुःख भोगनेवाले हर आदमी की मनःस्थिति एक जैसी होती है। न तो वह गैस है, न ही अन्य कोई वस्तु।
काली-पूजा किसी भी धर्म का आवश्यक साधन नहीं है। धर्म के विषय में जितना कुछ भी जानने योग्य है, उपनिषद् उसकी शिक्षा देते हैं। काली-पूजा मेरी अपनी विशिष्ट ‘सनक’ है। तुमने कभी भी उसके विषय में मुझे प्रवचन करते या भारत में उसकी शिक्षा देते हुए नहीं सुना होगा। मैं केवल उन्हीं चीजों की शिक्षा देता हूँ, जो विश्व-मानवता के लिए हितकर हैं। यदि ऐसी कोई विचित्र विधि है, जो केवल मुझी पर लागू होती है, तो मैं उसे गुप्त रखता हूँ, और यहीं सब बात ख़त्म हो जाती है। मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा कि काली-पूजा क्या है, क्योंकि कभी मैंने इसकी शिक्षा किसीको नहीं दी।
यदि तुम यह सोचती हो कि हिन्दू लोग बोस-परिवार का बहिष्कार करते हैं, तो तुम एकदम भ्रम में हो। अंग्रेज शासक उन्हें एक किनारे धकेल देना चाहते हैं। वास्तव में भारतीय जाति में वे उस प्रकार का विकास देखना पसन्द ही नहीं करते। वे उनका रहना यहाँ मुहाल किये दे रहे हैं, इसीसे वे बाहर जाना चाहते हैं।
‘एंग्लिसाइज़्ड’ (आंग्लीकृत) का मतलब उन लोगों से है, जो अपने रहनसहन तथा आचरण से यह प्रदर्शित करते हैं कि वे हमारे जैसे निर्धन पुराने ढंग के हिन्दुओं पर शर्म का अनुभव करते हैं। मैं अपनी जाति या जन्म अथवा जातीयता से शर्मिन्दा नहीं हूँ। मुझे आश्चर्य नहीं है कि इस प्रकार के लोगों को हिन्दू पसन्द नहीं करते।
हमारे धर्म में, जो उपनिषदों के सिद्धान्तों पर आधारित है, अनुष्ठानों तथा प्रतीकों के लिए कोई स्थान नहीं है। बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं कि अनुष्ठानों के सम्पन्न करने से धर्म का साक्षात्कार करने में सहायता मिलती है। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
धर्म वह है जो धर्म-ग्रन्थों या उपदेष्टाओं अथवा मसीहा या उद्धारक पर निर्भर नहीं रहता और जो हमें इस जीवन में या किसी अन्य जीवन में दूसरों पर आश्रित नहीं बनाता। इस अर्थ में उपनिषदों का अद्वैतवाद ही एकमात्र धर्म है। लेकिन धर्म ग्रन्थों, मसीहों, अनुष्ठानों आदि का अपना स्थान है। वे बहुतों की सहायता कर सकते हैं, जैसे कि काली-पूजा मेरे ऐहिक कार्यों में मेरी सहायता करती है। उन सबका स्वागत है।
पर गुरू का भाव एक दूसरी बात है। यह आत्मिक शक्ति तथा ज्ञान को सम्प्रेषित करनेवाले तथा उसे ग्रहण करनेवाले के बीच का सम्बन्ध है। शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष प्रकार (type) होता है। प्रत्येक दूसरों से निरन्तर विचार ग्रहण करते हुए, उन्हें अपने उसी ‘प्रकार’ के अनुरूप बना रहा है, अर्थात् अपनी जातीयता के आधार पर। इन ‘प्रकारों’ के विनष्ट होने का अभी समय नहीं आया है। सब प्रकार की शिक्षा चाहे उसका कोई भी स्रोत हो, प्रत्येक देश के आदर्शों के अनुकूल है, सिर्फ उन्हें अपनी राष्ट्रीयता के रंग में रँग लेना आवश्यक है, यानी उस प्रकार की शेष अभिव्यक्ति के साथ उनका तादात्म्य होना आवश्यक है।
त्याग प्रत्येक जाति का सदैव आदर्श रहा है; दूसरी जातियों को केवल इसका ज्ञान नहीं है, यद्यपि प्रकृति द्वारा अवचेतन रूप से वे इसका पालन करने को बाध्य हैं। युग युग तक एक उद्देश्य निश्चित रूप से चलता रहता है। और वह पृथ्वी तथा सूर्य के नाश के साथ ही समाप्त होगा। और वास्तव में विविध विश्व निरन्तर प्रगति कर रहे हैं! और फिर भी अभी तक असीम विश्वों में से कोई इतना विकास नहीं कर सका कि हमसे सम्बन्ध स्थापित कर सके! सब बकवास! उनमें भी प्राणी जन्मते हैं, हमारी जैसी प्रक्रियाएँ वहाँ भी घटित होती हैं और हमारे समान वे भी मरते हैं! उद्देश्य का विस्तार! बच्चे हैं! ओ बच्चों, स्वप्नलोक में ही रहो!
अस्तु, अब अपने बारे में। हैरियट से तुम आग्रह करो कि वह मुझे कुछ डालर प्रतिमास देती रहे। ऐसा ही करने को मैं दूसरे मित्रों से भी कहूँगा। यदि मैं सफल हो गया, तो भारत को चल दूँगा। जीविका के लिए इस मंच-कार्य से मैं बेतरह थक गया हूँ। इसमें अब मुझे कुछ भी आनन्द नहीं आता। मैं अवकाश लेकर, यदि कर सका तो, कुछ विद्वत्तापूर्ण लेखन कार्य करना चाहता हूँ।
शिकागो मैं शीघ्र ही आ रहा हूँ, आशा है दो-चार दिनों के भीतर ही वहाँ पहुँच जाऊँगा। यह बताओ कि क्या श्रीमती एडम्स मेरे लिए किसी कक्षा का प्रबन्ध नहीं कर सकेंगी, जिसकी आमदनी से मैं अपने वापस जाने का भाड़ा चुका सकूँ?
मैं विभिन्न स्थानों में कोशिश करूँगा। मुझमें इतना आशावाद आ गया है मेरी, कि यदि मेरे पंख होते तो मैं हिमालय उड़ जाता।
अपने सारे जीवन में मेरी, मैंने इस संसार के लिए काम किया, पर यह मेरे शरीर की आध सेर बोटी लिए बिना मुझे रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं देता।
यदि मुझे रोटी का एक टुकड़ा रोज मिल जाय, तो मैं बिल्कुल अवकाश ले लूँ। किन्तु यह असंभव है। यही शायद उस उद्देश्य का बढ़ता हुआ विस्तार है, जो, जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती जाती है, वैसे वैसे सब घृणित आन्तरिकताओं का उद्घाटन करता जा रहा है!
चिर प्रभुपदाश्रित,
विवेकानन्द
पुनश्च – यदि कभी भी किसीको सांसारिक वस्तुओं की व्यर्थता का बोध हुआ है, तो इस समय मुझे हो चुका है। यह संसार घृण्य, जघन्य मुर्दे के समान है। जो इसकी मदद करने की सोचता है, वह मूर्ख है। पर हमें अच्छा या बुरा करते हुए ही अपनी मुक्ति के लिए प्रयत्न करना होगा। मुझे आशा है कि मैंने ऐसा किया है। प्रभु मुझे उस मुक्ति की ओर ले चलें। एवमस्तु। मैंने भारत या किसी भी देश पर विचार करना त्याग दिया है। अब मैं स्वार्थी बन गया हूँ, अपना उद्धार करना चाहता हूँ!
“जिसने ब्रह्मा को वेद प्रकट किये, जो प्रत्येक के हृदय में व्यक्त है, बन्धन से मुक्ति पाने की आशा से मैं उसीकी शरण लेता हूँ।”1
वि.
- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥ – श्वेताश्वतरोपनिषद्॥६।१८॥