स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (26 जून, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
द्वारा कुमारी डचर,
सहस्रद्वीपोद्यान,
न्यूयार्क
२६ जून, १८९५
प्रिय बहन,
भारत से आयी डाक के लिए बहुत धन्यवाद। उससे मुझे सारे अच्छे समाचार मिले। आत्मा की अमरता पर प्रो० मैक्स मूलर के निबन्धों का, जिसे मैंने मदर चर्च के पास भेजा था, तुम आनन्द तो ले रही होगी। उस वृद्ध आदमी ने वेदान्त की सभी प्रमुख बातों पर विचार किया है और साहसपूर्वक सामने आया है। दवाओं के पहुँचने की बात जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। क्या उसके लिए कुछ चुंगी देनी पड़ी? अगर वैसा है, तो मैं उसका मूल्य चुकाऊँगा, ऐसा मेरा आग्रह है। कुछ शाल (दुशाला), जरीदार कपड़ा और छोटे-मोटे सामानों का एक बड़ा पैकेट खेतड़ी के राजा के यहाँ से आयेगा। मैं विभिन्न मित्रों को उन्हें उपहारस्वरूप देना चाहता हूँ। किन्तु मैं निश्चय जानता हूँ कि उसके आने में कुछ महीने लग जायँगे।
मुझे बार बार भारत आने को कहा जा रहा है, जैसा कि तुम भारत से आये पत्रों से जान जाओगी। वे हतोत्साह हो रहे हैं। अगर मैं यूरोप जाता हूँ, तो न्यूयार्क के श्री फांसिस लेगेट के अतिथि के रूप में जाऊँगा। वे छः सप्ताह तक पूरा जर्मनी, इंग्लैण्ड, फ्रांस और स्विटजरलैड़ का भ्रमण करेंगे। वहाँ से मैं भारत जाऊँगा या अमेरिका लौट आ सकता हूँ। मैंने यहाँ बीजारोपण किया है और चाहता हूँ कि वह फले-फूले। इस शरद् में न्यूयार्क का कार्य शानदार रहा और अगर मैं अचानक भारत चला जाता हूँ, तो वह बिगड़ जायगा। अतः मैं शीघ्र भारत जाने के विषय में निश्चित नहीं हूँ।
इस बार के सहस्रद्वीपोद्यान के अल्पवास में कुछ भी उल्लेख्य नहीं घटित हुआ है। दृश्य बहुत सुन्दर हैं और यहाँ कुछ मित्र हैं, जिनसे आत्मा-परमात्मा पर खुलकर बातें होती हैं। मैं फल खाता हूँ, दूध पीता हूँ और इसी तरह की अन्य चीजें और वेदान्त पर संस्कृत में विशद पुस्तकें पढ़ता हूँ, जिनको लोगों ने कृपापूर्वक भारत से भेजा है।
अगर मैं शिकागो आता हूँ, तो कम से कम छः सप्ताह या उससे कुछ अधिक के अन्दर नहीं आ सकता। मेरे लिए बच्ची को अपनी योजना में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। प्रस्थान करने से पहले किसी भी तरह तुम सबों से मिल लूँगा।
मद्रास भेजे गये उत्तर के सम्बन्ध में तुमने बहुत शोर मचाया, किन्तु उसका वहाँ जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। मद्रास क्रिशिचयन कॉलेज के अध्यक्ष श्री मिलर के इधर के एक भाषण में मेरे विचार ही बहुत बड़े परिमाण में सन्निहित हैं। और उन्होंने घोषित किया है कि पश्चिम को भगवान् और मनुष्य सम्बन्धी विचारों के लिए हिन्दू-विचार की आवश्यकता है और युवकों से जाकर प्रचार करने का भी आग्रह किया है। वास्तव में मिशन में उससे खलबली मच गयी है। तुमने जो ‘एरेना’ में प्रकाशित होने के सम्बन्ध में संकेत किया है, उसका कुछ भी अंश मैने नहीं देखा। न्यूयार्क में मेरे सम्बन्ध में तो स्त्रियाँ कोई कोलाहल नहीं मचातीं । तुम्हारे मित्र ने अवश्य कल्पना से बात गढ़ी होगी। वे थोड़ा भी ‘बॉसिंंग टाइप’ या प्रभुत्व जमानेवाले नहीं हैं। आशा है, फादर पोप, और मदर चर्च भी यूरोप जायँगी। यात्रा करना जीवन में सबसे अच्छी चीज है। अगर एक स्थान पर बहुत लम्बे समय तक रहना पड़ा, तो भय है कि मेरी तो मृत्यु हो जायगी। यायावरी वृत्ति से अच्छा कुछ भी नहीं है।
जीवन-अंधकार जितना ही चारों तरफ बढ़ता है, लक्ष्य उतना ही निकट आता है, उतना ही अधिक आदमी जीवन का सही अर्थ समझता है कि यह एक स्वप्न है; और तब हम इसका अनुभव करने में प्रत्येक की व्यर्थता को समझने लगते हैं, क्योंकि उन्होंने किसी अर्थहीन वस्तु से अर्थ प्राप्त करने का प्रयत्न भर किया था। स्वप्न से सत्य पाने की इच्छा एक बालोचित उत्साह है। ‘प्रत्येक वस्तु क्षणिक है’, ‘प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है’ – यह जानकर, संत सुख और दुःख, दोनों का परित्याग कर देता है और किसी भी वस्तु के लिए आसक्ति न रखकर इस (विश्व), परिदृश्य का एक द्रष्टा बन जाता है।
‘सचमुच उन लोगों ने इसी जीवन में स्वर्ग को जीत लिया है, जिनका मन समत्व में स्थित हो गया है।’
‘भगवान् पवित्र है और सबके लिए समान है, इसीलिए वे भगवान् में स्थित कहे जाते हैं।’ (गीता ५।१९)
इच्छा, अज्ञान और असमानता, यही बंधन के त्रिविध द्वार हैं।
जीने की इच्छा का निषेध, ज्ञान तथा समदर्शिता मुक्ति के त्रिविध द्वार हैं।
मुक्ति विश्व का ध्येय है।
‘न प्रेम, न घृणा, न सुख, न दुःख, न मृत्यु, न जीवन, न धर्म, न अधर्म; कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं।’
सदा तुम्हारा,
विवेकानन्द