स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (28 अगस्त, 1898)
(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)
श्रीनगर, काश्मीर
२८ अगस्त, १८९८
प्रिय मेरी,
तुम्हें और पहले लिखने के लिए मुझे अवसर नहीं मिल सका और यह जानकर कि तुम्हें पत्र पाने के लिए कोई विशेष जल्दी नहीं थी, मैं क्षमा-याचना भी नहीं करने जा रहा हूँ। मैंने सुना है कि कुमारी मैक्लिऑड द्वारा श्रीमती लेगेट को लिखित पत्र से तुम हमारे और काश्मीर के विषय में सारी बातें जान लेती हो। इसलिए व्यर्थ में लम्बी-चौड़ी बकवास करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
काश्मीर में हेनशोल्ड (Heinsholdt) के महात्माओं की खोज करना एकदम व्यर्थ है; और अभी तो यही निश्चित होना है कि ये सब बातें विश्वस्त सूत्र से प्राप्त हुई हैं या नहीं, अतः अभी यह प्रयत्न करना जल्दबाजी होगा। ‘मदर चर्च’ और ‘फादर पोप’ कहाँ और कैसे हैं? तुम सब तरुण और वृद्ध महिलाओं, कैसी हो? एक व्यक्ति के साथ छोड़ देने के कारण अधिक उत्साह से काम कर रही हो या नहीं? फ्लोरेन्स की एक मूर्ति सदृश प्रतीत होने वाली उस महिला का क्या हाल है? (नाम भूल गया हूँ)। जब तुलनात्मक ढंग से सोचता हूँ, मैं सदा ही उसकी बाँहों की प्रशंसा करता हूँ।
कुछ दिन मैं बाहर रहा। अब मैं महिलाओं का साथ देने जा रहा हूँ तब हमारी पार्टी, पहाड़ी के पीछे स्थित कलकल ध्वनि करती एक धारा से युक्त जंगल में एक शांतिपूर्ण स्थान में बुद्ध की तरह पद्मासन लगाकर देवदारु तरुओं के नीचे गम्भीर और दीर्घ ध्यानाभ्यास करने जायगी। यह करीब एक महीने तक चलेगा। तब तक हमारे पुण्य कर्म क्षीण हो गए होंगे और हम लोग इस स्वर्ग से पुनः पृथ्वी पर पतित होंगे। तत्पश्चात् कुछ महीने अपने-अपने कर्म सम्पादित करेंगे और तब अपने बुरे कर्मों के भोग के लिए नरक सदृश चीन देश को जाना पड़ेगा और हमारे दुष्कर्म कैण्टन तथा अन्य शहरों में हमें संसार के साथ दुर्गन्ध में डुबो देंगे। तत्पश्चात् जापान शोधन-स्थान बनेगा और फिर एक बार संयुक्त राज्य अमेरिका में स्वर्ग की प्राप्ति होगी। ‘कुम्हड़ा स्वामी’ के भाई ‘भतुआ स्वामी’ यही भविष्यवाणी करते हैं। वे अपने हाथों से बड़े दक्ष है। वास्तव में उनके हाथों को यह दक्षता कई बार उनको बड़ी विपत्ति में डाल चुकी है।
मैं तुमको कई सुन्दर वस्तुएँ भेजना चाहता था, लेकिन खेद है कि चुंगी का ध्यान आते ही ‘स्त्री के यौवन एवं याचक के स्वप्न’ की तरह मेरी इच्छाएँ भग्न हो जाती हैं।
हाँ, तो अब मैं खुश हूँ कि धीरे-धीरे मेरे बाल सफेद होते जा रहे हैं। अगली बार जब तुमसे मेरी भेंट होगी, मेरा सिर पूर्ण रूप से विकसित श्वेत कमल की भाँति हो जायगा।
आह मेरी, काश, तुम काश्मीर देख सकतीं – केवल काश्मीर; कमल एवं हंसखचित अद्भुत सरोवर (वहाँ हंस नहीं, बतखें हैं – कवि का स्वच्छन्द प्रयोग) एवं वायुचालित कमलों पर बैठने के लिए बड़े काले भौरों का प्रयास (यहाँ कमल मानो भौरों को चुम्बन देने से इन्कार कर रहे हैं – कविता), तब तुम अपनी मृत्यु-शय्या पर शांति प्राप्ति कर सकती हो। चूँकि यह एक भू-स्वर्ग है और चूँकि बुद्धिमत्ता की बात है, नौ नगद न तेरह उधार, इसलिए इसकी एक झाँकी पा लेना अधिक बुद्धिमानी है; किन्तु आर्थिक दृष्टि से दूसरा (स्वर्ग) इससे अधिक अच्छा है; कोई झंझट नहीं, कोई श्रम नहीं, कोई व्यय नहीं, गुड़िया की तरह एक क्षुद्र चंचल जीवन और सब की इतिश्री।
मेरा पत्र ‘बोर’ होता जा रहा है… अतः लिखना बन्द करता हूँ (यह मात्र आलस्य है)। शुभ रात्रि।
सदैव मेरा पता यह है :
मठ, बेलूड़, जिला हावड़ा, बंगाल, भारत।
भगवत्पदाश्रित,
विवेकानन्द