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स्वामी विवेकानंद के पत्र – कुमारी मेरी हेल को लिखित (3 जनवरी, 1897)

(स्वामी विवेकानंद का कुमारी मेरी हेल को लिखा गया पत्र)

डैम्पफर,
‘प्रिंस रीजेण्ट लियोपोल्ड’,
३ जनवरी, १८९७

प्रिय मेरी,

तुम्हारा पत्र मिला जो लन्दन पहुँचने के बाद रोम के लिए प्रेषित किया गया था। तुम्हारी कृपा थी जो इतना सुन्दर पत्र लिखा और उसका शब्द-शब्द मुझे अच्छा लगा। यूरोप में वाद्य-वृन्द के विकास के विषय में मुझे कुछ मालूम नहीं। नेपुल्स से चार दिनों की भयावह समुद्र-यात्रा के पश्चात् हम लोग पोर्ट सईद के निकट पहुँच रहे हैं। जहाज अत्यधिक दोलायित हो रहा है, अतएव ऐसी परिस्थितियों में अपनी खराब लिखावट के लिए तुमसे क्षमा चाहता हूँ।

स्वेज से एशिया महाद्वीप आरम्भ हो जाता है। एक बार फिर एशिया आया। मैं क्या हूँ? एशियाई, यूरोपीय या अमेरीकी? मैं तो अपने में व्यक्तित्वों की एक अजीब खिचड़ी पाता हूँ। तुमने धर्मपाल के बारे में, उनके आने जाने तथा कार्यों के विषय में कुछ नहीं लिखा। गाँधी की अपेक्षा उनके प्रति मेरी दिलचस्पी बहुत ज्यादा है।

कुछ ही दिनों में मैं कोलम्बो में जहाज से उतरूँगा और फिर लंका को थोड़ा देखने का विचार है। एक समय था, जब लंका की आबादी दो करोड़ से भी अधिक थी और उसकी राजधानी विशाल थी। राजधानी के ध्वंसावशेष का विस्तार लगभग एक सौ वर्ग मील है।

लंकावासी द्रविड़ नहीं हैं, बल्कि विशुद्ध आर्य हैं। ईसा के जन्म से ८ सौ वर्ष पूर्व बंगाल के लोग वहाँ जाकर बसे और तब से लेकर आज तक लंकावासियों ने अपना इतिहास बड़ा स्पष्ट रखा है। प्राचीन दुनिया का वह सबसे बड़ा व्यापार-केन्द्र था और अनुराधापुर प्राचीनों का लन्दन था।

पश्चिमी देशों के सभी स्थानों की अपेक्षा रोम मुझे ज्यादा अच्छा लगा और पाम्पियाई देखने के बाद तो तथाकथित आधुनिक सभ्यता के प्रति समादर की मेरी सारी भावना लुप्त हो गयी। वाष्प तथा विद्युत् शक्ति के अतिरिक्त उनके पास और सब कुछ था और कला सम्बन्धी उनके विचार तथा कृतियाँ तो आधुनिकों की अपेक्षा लाख गुनी अधिक थीं।

कृपया कुमारी लॉक (Miss Locke) से कहना कि मैंने उन्हें जो यह बताया था कि मानव-मूर्ति-कला का जितना विकास यूनान में हुआ था, उतना भारत में नहीं, वह मेरी गलती थी। फर्ग्युसन तथा अन्य प्रामाणिक लेखकों की पुस्तकों में मुझे यह पढ़ने को मिल रहा है कि उड़ीसा या जगन्नाथ में, जहाँ मैं नहीं गया हूँ, ध्वंसावशेषों में जो मानवीय मूर्तियाँ मिली हैं, वे सौन्दर्य तथा शारीरिक रचना-नैपुण्य में यूनानियों की किसी भी कृति की बराबरी कर सकती हैं। मृत्यु की एक महाकाय प्रतिमा है। उसमें मृत्यु को नारी के बृहदाकार अस्थि-पंजर के रूप में दिखाया गया है, जिसके चमड़े पर तमाम झुर्रियाँ पड़ी हुई हैं – शरीर-रचना की बारीकियों का इतना सच्चा प्रदर्शन परम भयावह और वीभत्स है। मेरे लेखक का मत है कि गवाक्ष में निर्मित एक नारी-मूर्ति बिल्कुल ‘वीनस डी मेडिसी’ से मिलती जुलती है, इत्यादि। पर तुम्हें याद रखना चाहिए कि प्रायः सब कुछ मूर्ति भंजक मुसलमानों ने नष्ट कर डाला, फिर भी जो कुछ बचा है, वह यूरोप के तमाम भग्नावशेषों की तुलना में श्रेष्ठ है! मैंने आठ वर्ष परिभ्रमण किया, किन्तु बहुत सी श्रेष्ठतम कलाकृतियों को नहीं देखा है।

बहन लॉक से यह भी कहना कि भारत के वन-प्रान्त में एक मन्दिर के खण्डहर हैं और उसके साथ यदि यूनान के ‘पार्थेनान’ की समीक्षा की जाय तो फर्ग्युसन का मत है कि दोनों ही स्थापत्य कला के चरम बिन्दु तक पहुँच गये हैं – दोनों अपने अपने ढंग के निराले हैं एक कल्पना में और दूसरा कल्पना एवं अलंकरण में। बाद की मुगलकालीन इमारतों आदि में भारतीय तथा मुस्लिम कलाओं का संकर है और वे प्राचीन काल की सर्वोत्कृष्ट स्थापत्य कला की आंशिक समता भी नहीं कर सकतीं।

तुम्हारा सस्नेह,
विवेकानन्द

पुनश्च – संयोग से फ्लोरेंस में ‘मदर चर्च’ और ‘फादर पोप’ के दर्शन हुए। इसे तुम जानती ही हो।

वि.

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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