स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (19 अगस्त, 1897)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
बेलूड़ मठ,१
१९ अगस्त, १८९७
प्रिय श्रीमती बुल,
मेरा शरीर विशेष अच्छा नहीं है; यद्यपि मुझे कुछ विश्राम मिला है, फिर भी आगामी जाड़े से पूर्व पहले जैसी शक्ति प्राप्त होने की सम्भावना नहीं है। ‘जो’ – के एक पत्र से पता चला कि आप दोनों भारत आ रही हैं। आप लोगों को भारत में देखकर मुझे जो खुशी होगी, उसका उल्लेख अनावश्यक है; किन्तु पहले से ही यह जान लेना आवश्यक है कि यह देश समग्र पृथ्वी में सबसे अधिक गन्दा तथा अस्वास्थ्यकर है। बड़े शहरों को छोड़कर प्रायः सर्वत्र ही यूरोपीय जीवन-यात्रा के अनुकूल सुख-सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं।
इंग्लैण्ड से समाचार मिला है कि श्री स्टर्डी अभेदानन्द को न्यूयार्क भेज रहे हैं। मेरे बिना इंग्लैण्ड में कार्य चलना असम्भव सा प्रतीत हो रहा है। इस समय एक पत्रिका प्रकाशित कर श्री स्टर्डी उसका संचालन करेंगे। इसी ऋतु में इंग्लैण्ड रवाना होने की मैंने व्यवस्था की थी; किन्तु चिकित्सकों की मूर्खता के कारण वह सम्भव न हो सका। भारत में कार्य चल रहा है।
यूरोप अथवा अमेरिका के कोई व्यक्ति इस देश के किसी कार्य में इस समय आत्मनियोग कर सकेंगे – मुझे ऐसी आशा नहीं है। साथ ही यहाँ की जलवायु को सहन करना किसी भी पाश्चात्य देशवासी के लिए नितान्त कष्टप्रद है। एनी बेसेन्ट की शक्ति असाधारण होने पर भी वे केवल थियोसॉफिस्टों में ही कार्य करती हैं; फलस्वरूप म्लेच्छों को जिस प्रकार इस देश में सामाजिक परिवर्जनादि विविध असम्मानों का सामना करना पड़ता है, उन्हें भी उसी प्रकार करना पड़ रहा है। यहाँ तक कि गुडविन भी बीच-बीच में अत्यन्त उग्र हो उठता है तथा मुझको उसे शान्त करना पड़ता है। गुडविन बहुत अच्छी तरह से कार्य कर रहा है, पुरुष होने के कारण लोगों से मिलने में उसे किसी प्रकार की बाधा नहीं है। किन्तु इस देश के पुरुष-समाज में नारियों का कोई स्थान नहीं है, वे केवल मात्र अपने लोगों में ही कार्य कर सकती है। जो अंग्रेज मित्र इस देश में आए हैं, अभी तक किसी कार्य में उनका उपयोग नहीं हो सका है, भविष्य में हो सकेगा अथवा नहीं, यह भी पता नहीं। इन सब विषयों को जानकर भी यदि कोई प्रयास करने के लिए प्रस्तुत हों तो उन्हें मैं सादर आह्वान करता हूँ।
यदि सारदानन्द आना चाहे तो आ जाय; मेरा स्वास्थ्य इस समय खराब हो चुका है; अतः उसके आने से समूचे कार्यों की व्यवस्था में विशेष सहायता मिलेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
स्वदेश लौटकर इस देश के लिए कार्य करने के उद्देश्य से कुमारी मार्गरेट नोबल नाम की एक अंग्रेज युवती भारत आकर यहाँ की परिस्थिति के साथ प्रत्यक्ष रूप में परिचित होने के लिए विशेष उत्सुक हैं। आप लोग यदि लन्दन होकर आए तो आपके साथ आने के लिए मैं उन्हें पत्र दे रहा हूँ। सबसे बड़ी असुविधा यह है कि दूर रहकर यहाँ की परिस्थिति का सम्यक् ज्ञान होना असम्भव है। दोनों देशों की रीति-रिवाज में इतनी भिन्नता है कि अमेरिका अथवा लन्दन से उसकी धारणा नहीं की जा सकती।
आप लोग अपने मन में यह सोचें कि आपको अफ्रीका के आभ्यन्तरिक देश में यात्रा करनी है; यदि दैवयोग से कहीं उत्कृष्टतर कुछ दिखायी पड़े तो उसे अच्छा ही समझना चाहिए।
भवदीय,
विवेकानन्द
- यह पत्र वस्तुतः अम्बाला से ही लिखा गया है, स्थायी पते के कारण ‘बेलुड़’ का उल्लेख किया गया है।