स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती ओलि बुल को लिखित (21 मार्च, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती ओलि बुल को लिखा गया पत्र)
५४ डब्ल्यू. ३३वीं स्ट्रीट,
न्यूयार्क,
२१ मार्च, १८९५
प्रिय श्रीमती बुल,
रमाबाई की मित्र-मण्डली मेरी जो निन्दा कर रही है, उसे सुनकर मैं अत्यन्त चकित हूँ। आप देखती हैं न, श्रीमती बुल, कि मनुष्य चाहे कैसा ही शुद्ध आचरण क्यों न करे, कुछ लोग ऐसे अवश्य रहेंगे, जो उसके बारे में कोई महा झूठ खोज निकालेंगे। शिकागो से प्रति दिन मेरे बारे में इसी तरह की बातें कहीं जाती थीं।
और ये महिलाएँ निश्चित रूप से ईसाइयों में आदर्श ईसाई होती हैं!…मैं अपने नीचे के कमरों में जहाँ सौ आदमी बैठ सकते हैं, क्रम से सशुल्क व्याख्यान करवाने जा रहा हूँ, उससे खर्च निकल आयेगा। भारत रुपया भेजने की मुझे जल्दी नहीं है। मैं प्रतीक्षा करूँगा। क्या कुमारी फार्मर आपके यहाँ हैं? क्या श्रीमती पीक शिकागो में हैं? जोसेफिन लॉक क्या आपको दिखायी पड़ी हैं? कुमारी हैमलिन ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की है और भरसक मेरी सहायता करती हैं।
मेरे गुरु कहते थे कि हिन्दू, ईसाई आदि नाम मनुष्य-मनुष्य में भ्रातृ-प्रेम के होने में बहुत रुकावट डालते हैं। पहले हमें इन्हें तोड़ने का यत्न करना चाहिए। उनकी कल्याण करने वाली शक्ति अब नष्ट हो गयी है और अब केवल उनका घातक प्रभाव रह गया है, जिसके जादू-टोने के कारण हममें से सर्वश्रेष्ठ मनुष्य भी राक्षसों का सा व्यवहार करने लगते हैं। खैर, हमें बहुत परिश्रम करना पड़ेगा और सफलता जरूर मिलेगी।
इसीलिए एक केन्द्र स्थापित करने की मेरी इतनी प्रबल इच्छा है। संगठन में निस्सन्देह अवगुण होते हैं, पर उसके बिना कुछ काम नहीं हो सकता। मुझे डर है कि यहाँ पर मैं आपसे सहमत नहीं हूँ – किसी ने आज तक समाज को सन्तुष्ट रखने के साथ साथ किसी बड़े काम में सफलता प्राप्त नहीं की। अन्तः प्रेरणा से मुनष्य को काम करना चाहिए और यदि वह काम शुभ और कल्याणप्रद है, तो समाज की भावना में परिवर्तन अवश्य होगा, चाहे ऐसा उसकी मृत्यु के शताब्दियों बाद ही क्यों न हो, तन-मन से हमें काम में लग जाना चाहिए। और जब तक हम एक और एक ही आदर्श के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार न रहेंगे, तब तक हम कदापि आलोक नहीं देख पाएँगे।
जो मनुष्य-जाति की सहायता करना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि वे अपना सुख और दुःख, नाम और यश एवं सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक दें और सब ईश्वर के समीप आएँ। सभी गुरुजनों ने यही कहा और किया है।
मैं पिछले शनिवार को श्रीमती कार्बिन के पास गया और कहा कि मैं अब कक्षाएँ न ले सकूँगा। क्या कभी संसार के इतिहास में धनवानों ने कुछ काम किया है? काम हमेशा हृदय और बुद्धि से होता है, धन से नहीं। मैंने अपने एक विशिष्ट विचार के लिए सारा जीवन उत्सर्ग किया है। भगवान् मेरी सहायता करेगा, मैं और किसी की सहायता नहीं चाहता। सफलता प्राप्त करने का यही एकमात्र रहस्य है। मुझे विश्वास है कि इसमें आप और हम एकमत हैं। श्रीमती थर्सबी और श्रीमती एडम्स को मेरा स्नेह।
कृतज्ञ प्रेम से सदैव आपका,
विवेकानन्द