स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्रीमती सरला घोषाल को लिखित (16 अप्रैल,1899)
(स्वामी विवेकानंद का श्रीमती सरला घोषाल लिखा गया पत्र)
बेलूड़ मठ,
१६ अप्रैल, १८९९
श्रीमती जी,
आपका कृपापत्र पाकर मुझे अति हर्ष हुआ। यदि किसी ऐसे विषय के त्याग से, जिससे मुझे या मेरे गुरु-भाइयों को विशेष प्रेम है, अनेक सच्चे और शुद्ध-चित्त देशभक्त हमारे कार्य में आकर सहायता करेंगे, तो विश्वास रखिए कि हम ऐसे त्याग से तनिक भी न झिझकेंगे, आँसू की एक भी बूँद न बहायेंगे – और यह हम अपने व्यवहार में चरितार्थ करके दिखा सकते हैं। परन्तु अभी तक ऐसे किसी व्यक्ति को सहायता करने के लिए अग्रसर होते हुए मैंने नहीं देखा। कुछ लोगों ने केवल अपने प्रिय शौक को हमारे से बदलने का प्रयत्न किया है – बस, इतना ही है। यदि हमारे देश की अथवा मनुष्य जाति की वास्तविक सहायता होती हो तो गुरु-पूजा त्यागने की क्या बात है, हम कोई भी घोर पाप करने को या ईसाइयों की ‘अनन्तकाल तक नरक-यातना’ भोगने को भी तैयार हैं। परन्तु मनुष्य का अध्ययन करते-करते मेरे सिर के बाल सफेद हो गये हैं। यह संसार एक अत्यन्त दुःखप्रद स्थान है। बहुत दिनों से एक ग्रीक दार्शनिक के समान दीपक हाथ में लेकर मैंने घूमना आरम्भ कर दिया है। एक सर्वप्रिय गीत, जो मेरे गुरु सदैव गाते थे, मुझे इस समय याद आ रहा है :
दिल जिससे मिलता है,
वह जन अपने नयनों से परिचय देता।
हैं तो ऐसे दो-एक जन,
जो करते विचरण, जग की अनजानी राहों पर।
इतना ही कहना है। कृपया यह जानिये कि इसमें एक शब्द की भी अतिशयोक्ति नहीं है – आप भी इसे यथार्थ रूप में पायेंगी।
परन्तु मुझे उन देशभक्तों पर कुछ सन्देह है, जो हमारा साथ तभी देने को तैयार हैं, जब अपनी गुरु-पूजा त्याग दें। अच्छा, यदि वे अपने देश की सेवा में सचमुच इतना उद्योग और परिश्रम कर रहे हैं कि प्रायः मृतप्राय से हुए जाते हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि सिर्फ गुरु-पूजा की ही एक समस्या से उनका सारा काम कैसे रुक जाता है।…
क्या वह प्रबल तरंगशालिनी नदी, जिसके वेग से मानो पहाड़, पर्वत बहे जा रहे थे, गुरु-पूजा मात्र से हिमालय की ओर लौटायी जा सकती थी? क्या आप समझती हैं कि इस प्रकार की स्वदेश-भक्ति से कोई महान् कार्य सिद्ध हो सकता है या इस तरह की सहायता से कोई विशेष उपकार हो सकता है? शायद आप ही लोग इसको समझती हों। मैं तो कुछ नहीं समझता। एक प्यासे को इतना जल-विचार, भूख से मृतप्राय व्यक्ति का यह अन्न-विचार एवं यह नाक-भौं सिकोड़ना! मुझे ऐसा लगता है कि वे लोग ‘ग्लास-केस’ के अन्दर रखने योग्य हैं; कार्य के समय वे लोग जितना ही पीछे रहें, उतना ही उनका कल्याण है।
प्रीत न माने जात कुजात।
भूख न माने बासी भात॥
किन्तु इसमें सब मेरी भूल हो सकती है। यदि गुरु-पूजा रूपी गुठली के गले में फँसने से सब मरने लगें, तो यही अच्छा है कि गुठली को ही छोड़ दिया जाय।
खैर, इस विषय पर विस्तारपूर्वक आपसे बातचीत करने की मेरी अत्यन्त अभिलाषा है। ये सब बातें करने के लिए रोग, शोक एवं मृत्यु ने मुझको अब तक अवसर दिया है – एवं विश्वास है कि वे आगे भी देंगे।
इस नववर्ष में आपकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हों।
किमधिकमिति,
विवेकानन्द