स्वामी विवेकानंद के पत्र – पण्डित शंकरलाल को लिखित (20 सितम्बर, 1892)
(स्वामी विवेकानंद का पण्डित शंकरलाल को लिखा गया पत्र)
बम्बई,
२० सितम्बर, १८९२
प्रिय पण्डितजी महाराज,
आपका कृपापत्र मुझे यथासमय मिला। प्रशंसा का पात्र न होने पर भी न जाने क्यों मेरी इतनी अधिक प्रशंसा हो रही है। ईसा मसीह का कहना है कि ‘एक ईश्वर को छोड़कर कोई भला नहीं।’ बाकी सब उसके हाथ की कठपुतली हैं। ‘महतो महीयान्’ परम धाम में विराजमान ईश्वर की अथवा अधिकारी पुरुषों की जयजयकार हो, न कि मुझ जैसे अनाधिकारी की। यह दास भाड़े के मोल का भी नहीं। और विशेषतः एक फकीर तो किसी प्रकार की प्रशंसा पाने का अधिकारी ही नहीं। क्या केवल अपना कर्तव्य पालन करनेवाले सेवक की आप प्रशंसा करेंगे?
आशा है, आप सपरिवार कुशलपूर्वक होंगे। पण्डित सुन्दरलालजी और मेरे अध्यापकजी ने मुझे अनुग्रहपूर्वक स्मरण किया है, इसके लिए मैं उनके प्रति अपनी चिर कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
अब आपसे एक दूसरी बात कहना चाहता हूँ –
हिन्दू मस्तिष्क का झुकाव सदा निगमनीय अथवा साधारण सत्य के सहारे विशेष सत्य तक पहुँचने की ओर रहा है, न कि आगमनिक अथवा विशेष सत्य के सहारे साधारण सत्य की ओर। अपने समस्त दर्शनों में हम सदैव किसी एक साधारण सिद्धान्त को लेकर बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति पाते हैं, फिर चाहे वह सिद्धान्त पूर्णतया भ्रमात्मक एवं बालकोचित ही क्यों न हो। इन साधारण सिद्धान्तों में कहाँ तक तथ्य है, इस बात के खोजने या जानने की किसीमें उत्कण्ठा नहीं। स्वतंत्र विचार का हमारे यहाँ अभाव सा रहा है। यही कारण है कि हमारे यहाँ पर्यवेक्षण और सामान्यीकरण (generalisation – विशेष विशेष सत्यों से एक साधारण सिद्धान्त में उपनीत होना) प्रक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होनेवाले विज्ञानों की इतनी कमी है। ऐसा क्यों हुआ? इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि यहाँ के जलवायु की भयंकर गर्मी हमें क्रियाशील होने की अपेक्षा आराम से बैठकर विचार करने के लिए बाध्य करती है, और दूसरे यह कि पुरोहित और ब्राह्मण दूर देशों की यात्रा या समुद्र-यात्रा न करते थे। दूर देश की यात्रा जल से या स्थल से करनेवाले यहाँ थे तो अवश्य, पर वे प्रायः व्यापारी थे – अर्थात् वे लोग जिनका बुद्धि-विकास पुरोहितों के अत्याचारों एवं स्वयं के धनलोभ के कारण रुद्ध हो गया था। अतः उनके पर्यवेक्षणों से मानवीय ज्ञान का विस्तार तो न हो पाया, उल्टे उसकी अनवति ही हुई, क्योंकि उनके निरीक्षण इतने दोषयुक्त थे तथा विभिन्न देशों के उनके वर्णन इतने अत्युक्तिपूर्ण और काल्पनिक एवं विकृत थे कि उनके द्वारा असलियत तक पहुँचना असम्भव था।
इसलिए हम लोगों को यात्रा करनी चाहिए और विदेशों में जाना चाहिए। यदि वास्तव में हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं, तो हमें यह जानना चाहिए कि दूसरे देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है और साथ ही उनके मनोभाव जानने के लिए हमें उन्मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से विचारविनिमय करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर अत्याचार करना एकदम बन्द कर देना चाहिए। किस हास्यास्पद दशा को हम पहुँच गये हैं! यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है – वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो – तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विडम्बना की बात क्या हो सकती है? आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गजब कर रहे हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या में ईसाई बना रहे हैं। त्रिवांकुर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष भर में सबसे अधिक हैं, जहाँ एक एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं और जहाँ राजघरानों की महिलाएँ तक ब्राह्मणों की उपपत्नी बनकर रहने में गौरव मानती हैं, वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ? हे भगवन्, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा?
आपका ही,
विवेकानन्द