स्वामी विवेकानंद के पत्र – प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित (मई, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का प्रोफेसर जॉन हेनरी राइट को लिखित)
१७, बेकन स्ट्रीट, बोस्टन,
मई, १८९४
प्रिय अध्यापक जी,
अब तक आपको पुस्तिका एवं पत्र मिल गये होंगे। अगर आप चाहें, तो मैं शिकागो से भारतीय राजाओं एवं मंत्रियों के कुछ पत्रों को आपके पास भिजवाऊँ। उनमें से एक मन्त्री तो अफीम कमीशन के सदस्य भी रह चुके हैं, जो शाही कमीशन के अधीन बैठा था। अगर आप चाहेंगे, तो मैं उनसे मेरे एक प्रतारक न होने का विश्वास दिलाते हुए आपको पत्र लिखवा दूँगा। पर भाई, हमारे जीवन का आदर्श तो गोपनीयता, दमन व वर्जन का है।
हम लोग त्यागने के लिए हैं, ग्रहण करने के लिए नहीं। अगर मेरे सिर पर यह धुन सवार न होती, तो मैं यहाँ कभी आता ही नहीं। मैं इसी आशा से यहाँ आया था कि धर्म-महासभा में सम्मिलित होने से मेरे कार्य को सहायता मिलेगी; अन्यथा जब भी मेरे अपने लोग मुझे यहाँ भेजना चाहते, तब मैं हमेशा उन्हें मना करता रहा। मैं उनसे यही कहकर आया हूँ, “अगर आप मुझे भेजना चाहें, तो भेजें, किन्तु महासभा में सम्मिलित होना न होना मेरे ऊपर निर्भर करता है।” उन्होंने मुझे स्वतन्त्रता देकर ही यहाँ भेजा है।
शेष कार्य आपके द्वारा सम्पन्न हुआ।
मेरे कृपालु मित्र, मैं नैतिक रूप से बाध्य हूँ कि मैं आपको पूर्णरूपेण संतुष्ट रखूँ। लेकिन बाकी दुनिया की मैं चिन्ता नहीं करता कि वह मेरे बारे में क्या कहती है। संन्यासी को आत्म-रक्षा की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अतः मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप उस पुस्तिका एवं उन पत्रों को न तो प्रकाशित ही करें और न किसी अन्य को ही दिखायें। पुरानी मिशनरी की कोशिशों की मैं चिन्ता नहीं करता, पर ईर्ष्या के जिस ज्वर का शिकार मजूमदार हुए थे, उसे देखकर मुझे बड़ा आघात लगा, और मैं प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें सद्बुद्धि प्राप्त हो, क्योंकि वे एक महान् और उत्तम व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन सत्कार्य में ही लगाया है। इससे मेरे गुरुदेव का यह कथन सिद्ध हो जाता है कि ‘काजल की कोठरी में कैसा ही सयाना क्यों न जाय, काजल की एक रेख लगेगी।’1 इसलिए कोई कितनी भी पवित्र और सदाशय बनने की चेष्टा क्यों न करे, जब तक वह इस संसार में है, उसकी प्रकृति का कुछ न कुछ अंश निम्नगामी हो ही जाता है!
ईश्वर का पथ संसार के पथ का विपरीत है। ईश्वर और कुबेर की साथ-साथ सिद्धि बहुत कम लोगों को होती है।
मैं कभी मिशनरी नहीं रहा, और न कभी बनूँगा! मेरा स्थान तो हिमालय में है। अब तक मैंने अपने को संन्तुष्ट रखा है और पूर्ण संतोष के साथ मैं कह सकता हूँ, “मेरे प्रभु! मैंने अपने भाइयों को भयानक दुःख के बीच देखा; मैंने इससे उनकी मुक्ति का मार्ग खोज निकाला, – मैंने उस उपाय के प्रयोग करने का पूरा यत्न किया, पर असफल रहा। अब तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।”
आप लोगों पर प्रभु की कृपा सर्वदा बनी रहे।
आपका स्नेही,
विवेकानन्द
५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो, कल या परसों मैं शिकागो चला जाऊँगा।
आपका ही,
विवेकानन्द
- काजल की कोठरी में, कैसी हू सयानो जाय ।
काजल की एक लीक, लागिहै पै लागिहै ॥