स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (17 फरवरी, 1896)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
१७ फरवरी, १८९६
प्रिय आलासिंगा,
…काम बहुत कठिन है; जैसे जैसे काम की वृद्धि हो रही है, वैसे वैसे काम की कठिनता भी बढ़ती जा रही है। मुझे विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता मालूम पड़ रही है। परन्तु इंग्लण्ड में एक बड़ा काम मेरे सामने है।…वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ़ जायगा।… हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैकड़ों कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे।… न्यूयार्क को, जो अमेरिकन सभ्यता का एक प्रकार से हृदय है, जगाने में मैने सफलता प्राप्त की है। परन्तु यह एक बहुत ही भीषण संघर्ष रहा।… जो मुझमें शक्ति थी, मैंने उसे न्यूयार्क और इंग्लैण्ड पर प्रायः न्यौछावर कर दी। अब काम सुचारू रुप से चल रहा है।
हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, पेचीदी पौराणिक कथाएँ, और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से एक ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्कवालों को संतुष्ट कर सके – इस कार्य की कठिनाईयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गूढ़ सिद्धान्तों में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवनदायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है ; अत्यन्त उलझी हुई पौरीणिक कथाओं में से साकार नीति के नियम निकालने हैं; और बुद्धि को भ्रम में डालनेवाली योग-विद्या से अत्यंत वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है – और इन सबको एक ऐसे रूप में लाना पड़ेगा कि बच्चा बच्चा इसे समझ सके। मेरे जीवन का यही कार्य है। परमात्मा ही जानता है कि कहाँ तक यह काम मैं कर पाऊँगा। ‘कर्म करने का हमें अधिकार है, उसके फल का नहीं।’ परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम! काम-कांचन के इस चक्कर में अपने आपको स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय, निश्चय ही कठिन काम है। धन्य हैं परमात्मा कि अब तक बड़ी सफलता हमें मिलती रही है। मैं मिशनरी आदि लोगों को दोष नहीं दे सकता कि वे मुझे समझने में असमर्थ हुए। उन्होंने शायद ही कभी ऐसा पुरुष देखा होगा, जो धन और स्त्रियों की ओर आकृष्ट न हो। पहले तो वे इस बात का विश्वास ही नहीं करते थे, और करते भी कैसे! तुम्हें यह नहीं समझना चाहिये कि पश्चिमी देश में ब्रह्मचर्य और पवित्रता के वे ही आदर्श हैं, जो भारत में हैं। इन लोगों के सद्गुण और साहस उसके बदले में पूजित हैं।… मेरे पास अब लोगों के झुंड के झुंड आ रहे हैं। अब सैकड़ों मनुष्यों को विश्वास हो गया है कि ऐसे भी मनुष्य हो सकते हैं, जो अपनी शारीरिक वासनाओं को वशीभूत कर सकते हैं। इन आदर्शों के लिए अब सम्मान और प्रेम बढ़ते जा रहे हैं। जो प्रतीक्षा करता है, उसे सब चीजें मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो।
तुम्हारा सस्नेह,
विवेकानन्द