स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (1894)

(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)

५४१, डियरबोर्न एवेन्यू, शिकागो,
१८९४

प्रिय आलासिंगा,

तुम्हारा पत्र अभी मिला।… मैंने तुम्हें अपने भाषण के जो अंश भेजे थे, उन्हें प्रकाशित करने के लिए कहकर मैंने भूल की। यह मेरी भयंकर भूल थी। यह मेरी एक क्षण की दुर्बलता का परिणाम था। इस देश में दो-तीन वर्ष तक व्याख्यान देने से धन संग्रह किया जा सकता है। मैंने कुछ यत्न किया है, और यद्यपि यहाँ जनसाधारण में मेरे काम का बहुत सम्मान है, फिर भी मुझे यह काम अत्यन्त अरुचिकर और नीति भ्रष्ट करने वाला प्रतीत होता है। इसलिए मेरे बच्चे, मैंने यह निश्चय किया है कि इस ग्रीष्म ऋतु में ही यूरोप होते हुए भारत वापस लौट जाऊँगा। इसके खर्च के लिए मेरे पास यथेष्ट धन है – ‘उसकी इच्छा पूर्ण हो।’

भारतीय समाचार पत्रों के विषय में जो तुम कहते हो, वह मैंने पढ़ा तथा उसकी आलोचना भी। उनका यह छिद्रान्वेषण स्वाभाविक ही है। प्रत्येक दास-जाति का मुख्य दोष ईर्ष्या होता है। ईर्ष्या और मेल का अभाव ही पराधीनता उत्पन्न करता है और उसे स्थायी बनाता है। इस कथन की सच्चाई तुम तब तक नहीं समझ सकते हो, जब तक तुम भारत से बाहर न जाओ। पाश्चात्यवासियों की सफलता का रहस्य यही सम्मिलनशक्ति है, और उसका आधार है परस्पर विश्वास और गुणग्राहकता। जितना ही कोई राष्ट्र निर्बल या कायर होगा, उतना ही उसमें यह अवगुण अधिक प्रकट होगा।… परन्तु मेरे बच्चे, तुम्हें पराधीन जाति से कोई आशा न रखनी चाहिए। हालाँकि मामला निराशाजनक सा ही है, फिर भी मैं इसे तुम सभी के समक्ष स्पष्ट रूप से कहता हूँ। सदाचार सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते और भलाई करने वाले को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं – ऐसे मृत जड़पिण्डों के भीतर क्या तुम प्राण-संचार कर सकते हो? क्या तुम उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उद्दण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता हो?

– सम्पादक के सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य है कि हमारे गुरुदेव से उन्हें थोड़ी डाँट-फटकार मिली थी, इसलिए वे हमारी छाया से भी दूर भागते हैं। अमेरिकन और यूरोपियन विदेश में अपने देशवासी की हमेशा सहायता करता है।…

मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ, कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन – ‘तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं।’ चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्रीरामकृष्ण की सन्तान निष्कपट एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सब कुछ ठीक हो जाएगा। कदाचित् हम लोग उसका फल देखने के लिए जीवित न रहें ; परन्तु जैसे इस समय हम जीवित हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि देर या सबेर इसका फल अवश्य प्रकट होगा। भारत को नव विद्युत् शक्ति की आवश्यकता है, जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे-धीरे हुआ है और होगा। निःस्वार्थ भाव से काम करने में सन्तुष्ट रहो और अपने प्रति सदा सच्चे रहो। पूर्ण रूप से शुद्ध दृढ़ और निष्कपट रहो, शेष सब कुछ ठीक हो जाएगा! अगर तुमने श्रीरामकृष्ण के शिष्यों में कोई विशेषता देखी है, तो वह यह है कि वे सम्पूर्णतया निष्कपट हैं। यदि मैं ऐसे सौ आदमी भी भारत में छोड़ जा सकूँ, तो मेरा काम पूरा हो जाएगा और मैं शान्ति से मर सकूँगा। इसे केवल परमात्मा ही जानता है। मूर्ख लोगों को व्यर्थ बकने दो। हम न तो सहायता ढूँढ़ते हैं, न उसे अस्वीकार करते हैं – हम तो उस परम पुरुष के दास हैं। क्षुद्र मनुष्यों के तुच्छ यत्न हमारी दृष्टि में न आने चाहिए। आगे बढ़ो! सैकड़ों युगों के उद्यम से चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ। सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। वह दीर्घ काल तक कूड़े के नीचे भले ही दबा पड़ा रहे, परन्तु देर या सबेर वह प्रकट होगा ही। सत्य अनश्वर है, पुण्य अनश्वर है, पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है; मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहिए। मेरे बच्चे, दृढ़ रहो। कोई आकर तुम्हारी सहायता करेगा, इसका भरोसा न करो। सब प्रकार की मानव-सहायता की अपेक्षा ईश्वर क्या अनन्त गुना शक्तिमान नहीं है? पवित्र बनो, ईश्वर पर विश्वास रखो, हमेशा उस पर निर्भर रहो – फिर तुम्हारा सब ठीक हो जाएगा – कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ न कर सकेगा। अगले पत्र में और भी विस्तारपूर्वक लिखूँगा।

इस ग्रीष्म ऋतु में यूरोप जाने की सोच रहा हूँ। शीत ऋतु के प्रारम्भ में भारत वापस लौटूँगा। बम्बई में उतरकर शायद राजपूताना जाऊँगा, वहाँ से फिर कलकत्ता। कलकत्ते से फिर जहाज द्वारा मद्रास आऊॅँगा, आओ, हम सब प्रार्थना करें, ‘हे कृपामयी ज्योति, पथ-प्रदर्शन करो’ – और अन्धकार में से एक किरण दिखायी देगी, पथ-प्रदर्शक कोई हाथ आगे बढ़ आयेगा। मैं हमेशा तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हूँ, तुम मेरे लिए प्रार्थना करो। जो दारिद्र्य, पुरोहित-प्रपंच तथा प्रबलों के अत्याचारों से पीड़ित हैं, उन भारत के करोड़ों पददलितों के लिए प्रत्येक आदमी दिन-रात प्रार्थना करे। सर्वदा उनके लिए प्रार्थना करे। मैं धनवान् और उच्च श्रेणी की अपेक्षा इन पीड़ितों को ही धर्म का उपदेश देना पसन्द करता हूँ। मैं न कोई तत्त्व-जिज्ञासु हूँ, न दार्शनिक हूँ और न सिद्ध पुरुष हूँ। मैं निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। इस देश में जिन्हें गरीब कहा जाता है, उन्हें देखता हूँ – भारत के गरीबों की तुलना में इनकी अवस्था अच्छी होने पर भी यहाँ कितने लोग उनसे सहानुभूति रखते हैं! भारत में और यहाँ महान् अन्तर है। बीस करोड़ नर-नारी जो सदा गरीबी और मूर्खता के दलदल में फँसे हैं, उनके लिए किसका हृदय रोता है? उसके उद्धार का क्या उपाय है? कौन उनके दुःख में दुःखी है? वे अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, उन्हें शिक्षा नहीं प्राप्त होती – उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें द्वार-द्वार शिक्षा देने के लिए घूमेगा? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं, ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इन्हीं के लिए सोचो, इन्हींके लिए काम करो, इन्हीं के लिए निरन्तर प्रार्थना करो – प्रभु तुम्हें मार्ग दिखायेगा। उसीको मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका हृदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है। आओ, हम लोग अपनी इच्छा-शक्ति को ऐक्य भाव से उनकी भलाई के लिए निरन्तर प्रार्थना में लगाएँ। हम अनजान, बिना सहानुभूति के, बिना मातमपुर्सी के, बिना सफल हुए मर जाएँगे, परन्तु हमारा एक भी विचार नष्ट नहीं होगा। वह कभी-न-कभी फल लायेगा। मेरा हृदय इतना भाव-गद्गद् हो गया है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता; तुम्हें यह विदित है, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे, तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, परन्तु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाट-बाट से अकड़कर चलते हैं, यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं, कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र है। मेरे भाइयो, हम लोग गरीब हैं, नगण्य हैं, किन्तु हम जैसे गरीब लोग ही हमेशा उस परम पुरुष के यन्त्र बने हैं। परमात्मा तुम सभी का कल्याण करे।

सस्नेह
विवेकानन्द

सन्दीप शाह

सन्दीप शाह दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक हैं। वे तकनीक के माध्यम से हिंदी के प्रचार-प्रसार को लेकर कार्यरत हैं। बचपन से ही जिज्ञासु प्रकृति के रहे सन्दीप तकनीक के नए आयामों को समझने और उनके व्यावहारिक उपयोग को लेकर सदैव उत्सुक रहते हैं। हिंदीपथ के साथ जुड़कर वे तकनीक के माध्यम से हिंदी की उत्तम सामग्री को लोगों तक पहुँचाने के काम में लगे हुए हैं। संदीप का मानना है कि नए माध्यम ही हमें अपनी विरासत के प्रसार में सहायता पहुँचा सकते हैं।

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