स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
अमेरिका,
१८९५ (शरत्काल)
प्रिय आलासिंगा,
हम लोगों का कोई संघ नही है और न हम कोई संघ बनाना ही चाहते हैं। पुरुष अथवा महिला जो कोई भी जो कुछ शिक्षा प्रदान तथा जो कुछ भी उपदेश करना चाहें, उन कार्यों को करने के लिए वे पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हैं।
यदि तुम्हारे अन्दर भावना है, तो कभी भी लोगों को आकृष्ट करने में तुम असफल न रहोगे। हम कभी ‘थियोसॉफिस्टों’ की कार्य-प्रणाली का अनुसरण नहीं कर सकते, इसका एकमात्र कारण यह है कि वे एक संघबद्ध सम्प्रदाय हैं और हम उस प्रकार के नहीं हैं।
मेरा मूलमन्त्र है–व्यक्तित्व का विकास। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उपयुक्त बनाने के सिवाय मेरी और कोई उच्चाकाँक्षा नहीं है। मेरा ज्ञान अत्यन्त सीमित है, मैं उस सीमित ज्ञान की शिक्षा बिना किसी संकोच के देता रहता हूँ। जिस विषय को मैं नहीं जानता हूँ उसके बारे में मैं यह स्पष्ट कह देता हूँ कि उक्त विषय में मेरा कोई ज्ञान नहीं है। थियोसॉफिस्ट, ईसाई, मुसलमान अथवा अन्य किसी व्यक्ति से संसार में लोगों को कुछ भी सहायता मिल रही है, यह सुनने से मुझे जो आनन्द मिलता है, उसे मैं व्यक्त नहीं कर सकता। मैं तो एक संन्यासी हूँ – मैं अपने को सबका सेवक समझता हूँ, न कि गुरू।… यदि लोग मुझसे प्यार करना चाहें, तो प्यार करें और यदि वे मुझे घृणा की दृष्टि से देखना चाहें, तो देख सकते हैं, यह उनकी खुशी है।
प्रत्येक व्यक्ति को अपना उद्धार स्वयं करना होगा – उसका कार्य उसीको करना होगा। मैं किसीसे सहायता की भीख नहीं माँगता, न मैं किसीकी दी हुई सहायता की उपेक्षा करता हूँ। न तो संसार में किसीसे सहायता लेने का कोई अधिकार मुझको है। जिस किसीने मेरी सहायता की है या जो कोई भविष्य में ऐसा करेगा, यह मुझ पर उसकी उदारता है, मेरा अधिकार नहीं, और इस प्रकार मैं उसका सतत आभारी हूँ।
जब मैने संन्यास ग्रहण किया, अपना यह कदम सोच-समझकर उठाया, यह जानते हुए कि यह शरीर भूख से पीड़ित होकर विनष्ट हो जायगा। ग़रीब मेरे मित्र हैं, मैं ग़रीबों से प्रीति करता हूँ। मैं दरिद्रता को आदरपूर्वक अपनाता हूँ। जब कभी मुझे भोजन के बिना उपवास रखना पड़ता है, तब मैं आनन्दित ही होता हूँ। मैं किसीसे सहायताप्राथीं नहीं हूँ – उससे लाभ ही क्या है? सत्य अपना प्रचार आप ही करेगा, मेरी सहायता के बिना वह विनष्ट नहीं हो सकता। सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व – ‘सुख-दुःख, लाभ-हानि जय-पराजय में समदृष्टि रखकर युद्ध में प्रवृत्त हो।’१
इस प्रकार के अनन्त प्रेम, सब अवस्थाओं में अविचलित साम्य भाव तथा ईर्ष्या-द्वेष से सर्वथा मुक्ति – ये ही वे चीजें हैं, जिनसे सब कार्य हो सकता है। एकमात्र इसीसे कार्य हो सकता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।…
तुम्हारा,
विवेकानन्द