स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (28 मई, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
शिकागो,
२८ मई, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
मैं तुम्हारे पत्र का जवाब इसके पहले नहीं दे सका; क्योंकि मैं न्यूयार्क से बोस्टन तक विभिन्न स्थानों में लगातार घूमता रहा था और मैं नरसिंह के पत्र की प्रतीक्षा भी कर रहा था। मैं नहीं जानता कि मैं भारत कब लौटूँगा। उन्हीं के हाथों में सब कुछ छोड़ देना अच्छा है, मेरे पीछे रहकर जो मुझे चला रहे हैं। मेरे बिना ही कार्य करने का प्रयत्न करो, समझ लो, मैं कभी था ही नहीं। किसी व्यक्ति या किसी वस्तु की कभी अपेक्षा मत करो। जितना कुछ कर सकते हो, करो। किसी के ऊपर अपनी आशा का महल न खड़ा करो। अपने सम्बन्ध में कुछ लिखने के पूर्व मैं तुमसे नरसिंह के विषय में कुछ कहूँगा। उसने सभी को निराश कर दिया है। कुछ दुष्ट चरित्र स्री-पुरुष के साथ उठने-बैठने से अब उसे कोई अपने पास तक फटकने नहीं देता। खैर, अधोगति की अन्तिम सीमा तक पहुँचकर उसने मुझको सहायता के लिए लिख भेजा। मैं भी यथाशक्ति उसकी सहायता करूँगा। फिर भी तुम उसके रिश्तेदारों से कहना कि वे उसके देश लौटने के लिए जल्दी खर्च भेजें। वे ‘कुक’ कम्पनी के पते पर रुपया भेज सकते हैं। वे उसे नकद रुपये न देकर भारत के लिए एक टिकट दे देंगे। मेरा ख्याल है कि मार्ग में यात्रा स्थगित कर देने का कहीं कोई प्रलोभन न होने के कारण उसके लिए प्रशान्त महासागर होकर लौटना ही अच्छा रहेगा। बेचारा बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ है। अवश्य ही मैं इस बात का ख्याल रखूँगा कि वह भूखा न मरे। फोटोग्राफ के बारे में मुझे यही कहना है कि इस समय मेरे पास एक भी नहीं है – कई एक भेजने के लिए आर्डर दे दूँगा। महाराज खेतड़ी को मैंने कई एक भेजे थे और उन्होंने उनमें से कुछ छपवाये भी थे; इस बीच तुम उन्हें उनमें से कुछ को भेज देने के लिए लिख सकते हो।
मैंने यहाँ बहुत से व्याख्यान दिये हैं। धर्मपाल ने जो तुमसे कहा था कि मैं इस देश से चाहे जितना रुपया जमा कर सकता हूँ, यह बात ठीक नहीं है। इस वर्ष इस देश में बड़ा ही अकाल पड़ा हुआ है – ये अपने यहाँ के गरीबों के ही सब अभाव दूर नहीं कर सकते हैं। जो हो, मैं इसलिए उनको धन्यवाद देता हूँ कि मैं ऐसे समय में भी उनके अपने वक्ताओं की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ पा रहा हूँ। परन्तु यहाँ खर्च बहुत होता है। यद्यपि प्रायः सदा ही और सब कहीं श्रेष्ठ और सुन्दरतम गृहों में मेरा सत्कार किया गया है, तो भी रुपया मानो उड़ ही जाता है।
मैं कह नहीं सकता कि आगामी गर्मियों में यहाँ से चला जाऊँगा या नहीं – शायद नहीं। इस बीच तुम लोग संघबद्ध होने और हमारी योजनाओं को अग्रसर करने का प्रयत्न करो। विश्वास रखो कि तुम सब कुछ कर सकते हो। याद रखो कि प्रभु हमारे साथ हैं, और इसलिए ऐ बहादुरों! आगे बढ़ते रहो।
मेरे अपने देश ने मेरा बहुत आदर किया है। आदर हो या न हो, तुम लोग सो मत जाओ, प्रयत्न में शिथिलता न आने दो। याद रखो कि हमारी योजनाओं का अभी तिल भर भी कार्यरूप में परिणत नहीं हुआ है।
शिक्षित युवकों को प्रभावित करो, उन्हें एकत्रित करो और संघबद्ध करो। बड़े बड़े काम केवल बड़े-बड़े स्वार्थत्यागों से ही हो सकते हैं। स्वार्थपरता की आवश्यकता नहीं, नाम की भी नहीं, यश की भी नहीं – तुम्हारे नहीं, मेरे नहीं, मेरे प्रभु के भी नहीं। काम करो, भावनाओं को, योजनाओं को कार्यान्वित करो, मेरे बालकों, मेरे बीरों, सर्वोत्तम, साधुस्वभाव मेरे प्रियजनों, पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो। नाम, यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिए पीछे मत देखो। स्वार्थ को उखाड़ फेंको और काम करो। याद रखना – तृणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः – ‘बहुत से तिनकों को एकत्र करने से जो रस्सी बनती है, उससे मतवाला हाथी भी बँध सकता है।’ तुम सब पर प्रभु का आशीर्वाद बरसे। उनकी शक्ति तुम सबके भीतर आये। मुझे विश्वास है कि उनकी शक्ति तुममें वर्तमान ही है। वेद कहते हैं, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत – ‘उठो, जागो, लक्ष्यस्थल पर पहुँच जाने के पहले रुको नहीं।’ उठो, उठो, लम्बी रात बीत रही है, सूर्योदय का प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरंग ऊँची उठ चुकी है, उस प्रचण्ड जलोच्छ्वास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। यदि मुझे तुम्हारे पत्रों का उत्तर देने में देर हो जाय, तो दुःखी या निराश न होना। लिखना आदि सब इस संसार में निरर्थक हैं। उत्साह, मेरे बच्चों, उत्साह! प्रेम, मेरे बच्चों, प्रेम। विश्वास और श्रद्धा। और, डरो नहीं। भय ही सबसे बड़ा पाप है।
सबको मेरा आशीर्वाद। मद्रास के उन सभी महाशय व्यक्तियों को जिन्होंने हमारे कार्य में सहायता की थी, कहना कि मैं उन्हें अपनी अनन्त कृतज्ञता और अनन्त प्रेम भेज रहा हूँ। परन्तु मेरी उनसे यही प्रार्थना है कि वे काम में शिथिलता न आने दें। चारों ओर विचारों को फैलाते रहो। घमण्डी न होना। किसी भी हठधर्मितावाली बात पर बल न दो। किसी का विरुद्धाचरण भी मत करना। हमारा काम केवल यही है कि हम अलग-अलग रासायनिक पदार्थों को एक साथ रख दें। प्रभु ही जानते हैं कि किस तरह और कब वे मिलकर दाने बन जायेंगे। सर्वोपरि, मेरी या अपनी सफलता से फूलकर कुप्पा न हो जाना, अभी हमें बड़े-बड़े काम करने बाकी हैं। भविष्य में आने वाली सिद्धि की तुलना में यह तुच्छ साफल्य क्या है? विश्वास रखो, विश्वास रखो – प्रभु की आज्ञा है कि भारत की उन्नति अवश्य ही होगी और साधारण तथा गरीब लोगों को सुखी करना होगा। अपने आप को धन्य मानों कि प्रभु के हाथों में तुम निर्वाचित यंत्र हो। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध, निःसीम, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर आवर्तित होता देख रहा हूँ। तुम सभी आगे बढ़ो, सबकी शुभेच्छाएँ उसकी शक्ति में सम्मिलित हों, सभी उसके मार्ग की बाधाएँ हटा दें। प्रभु की जय हो।
श्री सुब्रह्मण्य अय्यर, कृष्णस्वामी अय्यर, भट्टाचार्य और अन्य मित्रों को मेरा आन्तरिक प्रेम और श्रद्धा कहना। उनसे कहना कि यद्यपि अवकाश न मिलने से मैं उनको कुछ लिख नहीं सकता, फिर भी मेरा हृदय उनके प्रति बहुत ही आकृष्ट है। मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकूँगा। प्रभु उन सबको आशीर्वाद करें।
मुझे किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं है। तुम लोग कुछ धन इकट्ठा कर एक कोष बनाने का प्रयत्न करो। शहर में जहाँ गरीब लोग रहते हैं, वहाँ एक मिट्टी का घर और एक हॉल बनाओ। कुछ मैजिक लैन्टर्न, थोड़े से मानचित्र,भूगोलक और रासायनिक पदार्थ इकट्ठा करो। हर शाम को वहाँ गरीबों को – यहाँ तक कि चाण्डालों को भी – एकत्र करो। पहले उनको धर्म के उपदेश दो, फिर मैजिक लैन्टर्न और दूसरी वस्तुओं के सहारे ज्योतिष, भूगोल आदि बोलचाल की भाषा में सिखाओ। तेजस्वी युवकों का दल गठन करो और अपनी उत्साहाग्नि उनमें प्रज्वलित करो। और क्रमशः इसकी परिधि का विस्तार करते-करते इस संघ को बढ़ाते रहो। तुम लोगों से जितना हो सके, करो। जब नदी में कुछ पानी नहीं रहेगा, तभी पार होंगे, ऐसा सोचकर बैठे मत रहो! समाचार-पत्र और मासिक-पत्र आदि चलाना निस्संदेह ठीक है, पर अनन्त काल तक चिल्लाने और कलम घिसने की अपेक्षा कण मात्र भी सच्चा काम कहीं बढ़कर है। भट्टाचार्य के घर पर एक सभा बुलाओ और कुछ धन जमाकर ऊपर कहीं हुई चीजें खरीदो। एक कुटिया किराये पर लो और काम में लग जाओ! यही मुख्य काम है, पत्रिका आदि गौण हैं। जिस किसी भी तरह हो सके, सर्व साधारण में अवश्य ही हमें अपना प्रभाव डालना है। कार्य के अल्पारम्भ को देखकर डरो मत; बड़ी चीजें आगे आयेंगी। साहस रखो। अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो, बल्कि उनके सेवा करते रहो। नेता बनने की इस पाशविक प्रवृत्ति ने जीवनरूपी समुद्र में अनेक बड़े-बड़े जहाजों को डुबा दिया है। इस विषय में सावधान रहना, अर्थात् मृत्यु तक को तुच्छ समझकर निःस्वार्थ हो जाओ और काम करते रहो। मुझे जो कुछ कहना था, सब तुमको लिख नहीं सका। किन्तु मेरे तेजस्वी बालकों, प्रभु तुम्हें सब कुछ समझने की शक्ति देंगे। मेरे बच्चों, काम में लग जाओ। प्रभु की जय हो। किडी को मेरा प्रेम कहना। मुझे सेक्रेटरी साहब का पत्र मिल गया है।
सस्नेह,
विवेकानन्द