स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (29 सितम्बर, 1894)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
२९ सितम्बर, १८९४
प्रिय आलासिंगा,
तुमने जो समाचार-पत्र भेजे थे, वे ठीक समय पर पहुँच गए और इस बीच तुमने भी अमेरिका के समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचारों का कुछ-कुछ हाल पाया होगा। अब सब ठीक हो गया है। कलकत्ते से हमेशा पत्र-व्यवहार करते रहना। मेरे बच्चे, अब तक तुमने साहस दिखाकर अपने को गौरवान्वित किया है। जी. जी. ने भी बहुत ही अदभुत और सुन्दर काम किया है। मेरे साहसी निःस्वार्थी बच्चो, तुम सभी ने बड़े सुन्दर काम किये। तुम्हारी याद करते हुए मुझे बड़े गौरव का अनुभव हो रहा है। भारतवर्ष तुम्हारे लिए गौरवान्वित हो रहा है। मासिक पत्रिका निकालने का तुम्हारा जो संकल्प था, उसे न छोड़ना। खेतड़ी के राजा तथा लिमड़ी काठियावाड़ के ठाकुर साहब को मेरे कार्य के बारे में सदा समाचार देते रहने का बन्दोबस्त करना। मैं मद्रास अभिनन्दन का संक्षिप्त उत्तर लिख रहा हूँ। यदि सस्ता हो, तो यहीं से छपवाकर भेज दूँगा, नहीं तो टाइप करवाकर भेजूँगा। भरोसा रखो, निराश मत हो। इस सुन्दर ढंग से काम होने पर भी यदि तुम निराश हो, तो तुम महामूर्ख हो। हमारे कार्य का प्रारम्भ जैसा सुन्दर हुआ, वैसा और किसी काम का होता दिखायी नहीं देता। हमारा कार्य जितना शीघ्र भारत में और भारत के बाहर विस्तृत हो गया है, वैसा भारत के और किसी आन्दोलन को नसीब नहीं हुआ।
भारत के बाहर कोई सुनियंत्रित कार्य चलाना या सभा-समिति बनाना मैं नहीं चाहता। वैसा करने की कुछ उपयोगिता मुझे दिखायी नहीं देती। भारत ही हमारा कार्यक्षेत्र है, और विदेशों में हमारे कार्य का महत्त्व केवल इतना है कि इससे भारत जाग्रत हो जाए। बस। अमेरिका वाली घटनाओं ने हमें भारत में काम करने का अधिकार और सुयोग दिया है। हमें अपने विस्तार के लिए एक दृढ़ आधार की आवश्यकता है। मद्रास और कलकत्ता – अब ये दो केन्द्र बने हैं। बहुत जल्दी भारत में और भी सैकड़ों केन्द्र बनेंगे।
यदि हो सके, तो समाचार-पत्र और मासिक पत्रिका, दोनों ही निकालो। मेरे जो भाई चारों तरफ घूम-फिर रहे हैं, वे ग्राहक बनाएँगे – मैं भी बहुत ग्राहक बनाऊँगा और बीच-बीच में कुछ रुपया भेजूँगा। पल भर के लिए भी विचलित न होना, सब कुछ ठीक हो जाएगा। इच्छा-शक्ति ही जगत् को चलाती है।
मेरे बच्चे, हमारे युवक ईसाई बन रहे हैं, इसलिए खेद न करना। यह हमारे ही दोष से हो रहा है। (अभी ढेरों अखबार और ‘श्रीरामकृष्ण की जीवनी’ आयी है – उन्हें पढ़कर मैं फिर कलम उठा रहा हूँ।) हमारे समाज में, विशेषकर मद्रास में आजकल जिस प्रकार के सामाजिक बन्धन हैं, उन्हें देखते हुए बेचारे बिना ईसाई हुए और कर ही क्या सकते हैं? विकास के लिए पहले स्वाधीनता चाहिए। तुम्हारे पूर्वजों ने आत्मा को स्वाधीनता दी थी, इसीलिए धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास हुआ; पर देह को उन्होंने सैकड़ों बन्धनों के फेर में डाल दिया, बस, इसी से समाज का विकास रुक गया। पाश्चात्य देशों का हाल ठीक इसके विपरीत है। समाज में बहुत स्वाधीनता है, धर्म में कुछ नहीं। इसके फलस्वरूप वहाँ धर्म बड़ा ही अधूरा रह गया, परन्तु समाज ने भारी उन्नति कर ली है। अब प्राच्य समाज के पैरों से जंजीरें धीरे-धीरे खुल रही हैं, उधर पाश्चात्य धर्म के लिए भी वैसा ही हो रहा है।
प्राच्य और पाश्चात्य के आदर्श अलग-अलग हैं। भारतवर्ष धर्मप्रवण या अन्तर्मुख है, पाश्चात्य वैज्ञानिक या बहिर्मुख। पाश्चात्य देश जरा-सी भी धार्मिक उन्नति सामाजिक उन्नति के माध्यम से ही करना चाहते हैं, परन्तु प्राच्य देश थोड़ी-सी भी सामाजिक शक्ति का लाभ धर्म ही के द्वारा करना चाहते हैं। इसीलिए आधुनिक सुधारकों को पहले भारत के धर्म का नाश किये बिना सुधार का और कोई दूसरा उपाय ही नहीं सूझता। उन्होंने इस दिशा में प्रयत्न भी किया है, पर असफल हो गए। इसका क्या कारण है? कारण यह कि उनमें से बहुत ही कम लोगों ने अपने धर्म का अच्छी तरह अध्ययन और मनन किया, और उनमें से एक ने भी उस प्रशिक्षण का अभ्यास नहीं किया, जो सब धर्मों की जननी को समझने के लिए आवश्यक होता है! मेरा यही दावा है कि हिन्दू समाज की उन्नति के लिए हिन्दू धर्म के विनाश की कोई आवश्यकता नहीं और यह बात नहीं कि समाज की वर्तमान दशा हिन्दू धर्म की प्राचीन रीति-नीतियों को आचार-अनुष्ठानों के समर्थन के कारण हुई, वरन् ऐसा इसलिए हुआ कि धार्मिक तत्त्वों का सभी सामाजिक विषयों में अच्छी तरह उपयोग नहीं हुआ है। मैं इस कथन का प्रत्येक शब्द अपने प्राचीन शास्त्रों से प्रमाणित करने को तैयार हूँ। मैं यही शिक्षा दे रहा हूँ और हमें इसी को कार्यरूप में परिणत करने के लिए जीवन भर चेष्टा करनी होगी। पर इसमें समय लगेगा – बहुत समय, और इसमें बहुत मनन की आवश्यकता है। धीरज धरो और काम करते जाओ। उद्धरेदात्मनात्मानम् – ‘अपने ही द्वारा अपना उद्धार करना पड़ेगा।’
मैं तुम्हारे अभिनन्दन का उत्तर देने में लगा हुआ हूँ। इसे छपवाने की कोशिश करना। यदि वह सम्भव न हो सका, तो थोड़ा-थोड़ा करके ‘इण्डियन मिरर’ तथा अन्य पत्रों में छपवाना।
तुम्हारा,
विवेकानन्द
पु. – वर्तमान हिन्दू समाज केवल उन्नत आध्यात्मिक विचारवालों के लिए ही गठित है, बाकी सभी को वह निर्दयता से पीस डालता है। ऐसा क्यों? जो लोग सांसारिक तुच्छ वस्तुओं का थोड़ा-बहुत भोग करना चाहते हैं, आखिर उनका क्या हाल होगा? जैसे हमारा धर्म उत्तम, मध्यम और अधम, सभी प्रकार के अधिकारियों को अपने भीतर ग्रहण कर लेता है, वैसे ही हमारे समाज को भी उच्च-नीच भाववाले सभी को ले लेना चाहिए। इसका उपाय यह है कि पहले हमें अपने धर्म का यथार्थ तत्त्व समझना होगा और फिर उसे सामाजिक विषयों में लगाना पड़ेगा। यह बहुत ही धीरे-धीरे का, पर पक्का काम है, जिसे करते रहना होगा। वि.