स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखित (6 मार्च, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
संयुक्त राज्य अमेरिका,
६ मार्च, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
लम्बे समय तक मेरे चुप रहने के कारण सम्भवतः तुम बहुत कुछ सोचते होगे। किन्तु मेरे बच्चे, मेरे पास लिखने लायक कोई समाचार नहीं था, सिवाय उस पुरानी बात के कि निरन्तर कार्य करते रहो।
लैण्ड्सबर्ग तथा डॉ. डे को तुमने जो पत्र लिखे हैं, उन दोनों पत्रों को मैंने देखा है। बहुत अच्छा लिखा गया है। मैं अभी किसी तरह भारत लौट सकूँगा, ऐसी आशा नहीं है। क्षण भर के लिए भी यह न सोचना कि ‘यांकी’ (अमेरिका के लोग) धर्म को कार्यरूप में परिणत करने के लिए प्रयासशील हैं। इस विषय में तो एकमात्र हिन्दू लोग ही व्यावहारिक हैं, यांकी लोग तो केवल रुपया पैदा करना जानते हैं। इसलिए यहाँ से मेरे चले जाने पर, जो भी कुछ थोड़ा-सा धर्मभाव जाग्रत हुआ है, वह एकदम नष्ट हो जाएगा। अतः जाने से पहले मैं उस कार्य की नींव को मजबूत बना जाना चाहता हूँ। किसी भी कार्य को अधूरा न छोड़कर उसे पूरा करना चाहिए।
मैंने मणि अय्यर को एक पत्र लिखा था; उसमें मैंने जो कुछ लिखा था, तुम लोग उस बारे में क्या कर रहे हो?
जबरदस्ती लोगों में रामकृष्ण के नाम का प्रचार करने का प्रयास न करो। पहले उनके विचारों का प्रचार करते रहो, विचार ग्रहण करने के पश्चात् लोग अपने आप, जिनके ये विचार हैं, उन्हें मानने लगेंगे। हालाँकि
मैं यह जानता हूँ कि संसार पहले व्यक्ति को और उसके बाद उसके विचारों को जानना चाहता है। किडी अलग हो गया है? अच्छी बात है, एक बार उसे चारों ओर परख लेने दो, उसे अपनी इच्छानुसार जो चाहे, प्रचार करने दो। बात केवल इतनी ही है कि कहीं आवेश में आकर वह दूसरों के विचारों पर आक्रमण न करे। अपनी स्वल्प-शक्ति के अनुसार जहाँ तक हो सके, तुम वहाँ पर प्रयास करते रहो, मैं भी यहाँ पर थोड़ा बहुत कार्य करने की चेष्टा कर रहा हूँ। भलाई किसमें होगी, यह तो प्रभु ही जानते हैं। मैंने तुमको जिन पुस्तकों के बारे में लिखा था, क्या तुम उन्हें भेज सकते हो? पहले से ही बड़ी-बड़ी योजनाएँ न बनाओ, धीरे-धीरे कार्य प्रारम्भ करो – जिस ज़मीन पर खड़े हो, उसे अच्छी तरह से पकड़कर क्रमशः ऊँचे चढ़ने की चेष्टा करो।
मेरे साहसी बच्चो, कार्य करते चलो, एक-न-एक दिन हमें अवश्य रोशनी मिलेगी।
जी. जी., किडी, डॉक्टर तथा अन्य वीर मद्रासी युवकों से मेरा आन्तरिक प्यार कहना।
चिर आशीर्वादक,
विवेकानन्द
पु. – यदि सम्भव हो, तो कुछ कुशासन भेजना।
पु. – यदि लोगों को पसन्द न हो, तो ‘प्रबुद्ध भारत’ नाम बदलकर समिति का कोई दूसरा नाम क्यों नहीं रखते?
सबके साथ मिल-जुलकर शान्तिपूर्वक रहना होगा, लैण्ड्सबर्ग के साथ पत्र-व्यवहार करते रहना। धीरे-धीरे इस प्रकार से कार्य को अग्रसर होने दो। रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था। मैसूर नरेश का देहावसान हो चुका है – उनसे हमें बहुत कुछ आशाएँ थीं। अस्तु, प्रभु ही महान् है, वह और लोगों को हमारी सहायता के लिए भेजेगा।
विवेकानन्द