स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री आलसिंगा पेरूमल को लिखित (अगस्त, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री आलासिंगा पेरुमल को लिखा गया पत्र)
अमेरिका,
अगस्त, १८९५
प्रिय आलासिंगा,
तुम्हारे पास इस पत्र के पहुँचने से पहले ही मैं पेरिस पहुँच जाऊँगा।… इसलिए कलकत्ता तथा खेतड़ी में यह लिख देना कि इस समय वे अमेरिका के पते पर मुझे कोई पत्र न डालें। अगले जाड़े में ही फिर मुझे न्यूयार्क वापस आना है। अतः कोई विशेष आवश्यक विषय हो, तो १९ पश्चिम ३८वाँ रास्ता, न्यूयार्क – इस पते पर मुझे सूचित करना। इस वर्ष मैंने बहुत कुछ कार्य किया है तथा आशा है कि अगले वर्ष और भी कार्य कर सकूँगा। मिशनरियों के विषय को लेकर माथापच्ची न करना। उनका चिल्लाना अत्यंत स्वाभाविक है। जब किसीकी रोटी छीन ली जाती है, तो कौन नहीं चिल्लाता? गत दो वर्षों में उनकी पूँजी में काफी अन्तर पड़ चुका है और क्रमशः बढ़ता ही जा रहा है। अस्तु, मैं मिशनरियों की पूर्ण सफलता चाहता हूँ। बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान् तथा गुरु में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। तुम्हारा यह कहना ठीक है कि भारत की अपेक्षा पाश्चात्य देशों में मेरे भाव अधिक मात्रा में कार्य में परिणत होते जा रहे हैं।… वास्तव में भारत ने मेरे लिए जो कुछ किया है, उससे कहीं अधिक मैंने भारत के लिए किया है। वहाँ तो मुझे रोटी के एक टुकड़े के साथ डलाभरी गालियाँ मिली हैं। सत्य में मेरा विश्वास हैं, चाहे मैं कहीं भी क्यों न जाऊँ, प्रभु मेरे लिए काम करनेवालों के दल के दल भेज देते हैं। वे लोग भारतीय शिष्यों की तरह नहीं है, अपने गुरु के लिए वे प्राणों तक की बाजी लगा देने को प्रस्तुत हैं। सत्य ही मेरा ईश्वर है तथा समग्र विश्व मेरा देश है। ‘कर्तव्य’ में मैं विश्वासी नहीं हूँ, कर्तव्य तो संसारियों के लिए एक अभिशाप है, संन्यासियों का कोई कर्तव्य नहीं है। कर्तव्य तो एक व्यर्थ की बकवास है। मैं मुक्त हूँ – मेरे सारे बन्धन कट चुके हैं। यह शरीर कहीं भी रहे या न रहे, इसकी मुझे क्या परवाह! तुम लोगों ने बराबर मेरी ठीक ठीक सहायता की है – प्रभु तुम्हें इसका पुरस्कार अवश्य देंगे। मैंने भारत या अमेरिका से कभी अपनी प्रशंसा नहीं चाही और न मैं ऐसी खोखली चीजों के लिए अब भी लालायित हूँ। मैं भगवान् की सन्तान हूँ और मुझे सत्य की शिक्षा देनी है। जिसने मुझे इस सत्य की प्राप्ति करायी है, वही मेरे लिए पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ तथा शक्तिशाली सहायक भेजेगा। पाश्चात्य देश में प्रभु क्या करना चाहते हैं, यह तुम हिन्दुओं को कुछ ही वर्षों में देखने को मिलेगा। तुम लोग प्राचीन काल के यहूदियों जैसे हो, और तुम्हारी स्थिति नाँद में लेटे हुए कुत्ते की तरह है, जो न खुद खाता है और न दूसरों को ही खाने देना चाहता है। तुम लोगों में किसी प्रकार की धार्मिक भावना नहीं है, रसोई ही तुम्हारा ईश्वर है तथा हँड़िया-बरतन हैं तुम्हारे शास्त्र। अपनी तरह असंख्य सन्तानोत्पादन में ही तुम्हारी शक्ति का परिचय मिलता है। तुममें से कुछ एक बालक साहसी अवश्य हों – किन्तु कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम भी अविश्वासी बनते जा रहे हो। बालकों, दृढ़ बने रहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है – सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न-बाधाओं के क्या कभी कोई महान् कार्य हो सकता है? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुवा करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पड़ते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं तो लोहे के सदृश दृढ़ इच्छा-शक्तिसम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो। दृढ़ता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ,
तुम्हारा,
विवेकानन्द