स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री बलराम बसु को लिखित (15 मार्च, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री बलराम बसु को लिखा गया पत्र)
रामकृष्णो जयति
गाजीपुर,
१५ मार्च, १८९०
पूज्यपाद,
आपका कृपापत्र कल मिला। सुरेश बाबू की बीमारी अत्यन्त कठिन है, यह जानकर बहुत दुःख हुआ। यद्भावी तद्भवतु। आप भी बीमार हो गये हैं, यह जानकर बहुत दुःख हुआ। जब तक अहं-बुद्धि है, प्रयत्न में कोई भी त्रुटि होना आलस्य, दोष एवं अपराध कहा जायेगा।
जिसमें वह अहं-बुद्धि नहीं है, उसके लिए सर्वोत्तम उपाय तितिक्षा ही है। जीवात्मा की वासभूमि इस शरीर से ही कर्म की साधना होती है – जो इसे नरककुण्ड बना देते हैं, वे अपराधी हैं और जो इस शरीर की रक्षा में प्रयत्नशील नहीं होते, वे भी दोषी हैं। जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हों, उनके अनुसार निःसंकोच कार्य कीजिए।
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्।
कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं भृतको यथा॥
– ‘जो कुछ साध्य हो, वह कीजिए। जीवन-मरण की कामनाओं से रहित होकर सेवक की भाँति आज्ञा की प्रतीक्षा करते रहना ही श्रेष्ठ धर्म है।’
काशी में इन्फ्लुएंजा का भयानक प्रकोप है और प्रमदा बाबू प्रयाग चले गये हैं। बाबूराम सहसा यहाँ आ गया है। उसे ज्वर है। इस अवस्था में उसका बाहर आना ठीक नहीं था। काली को दस रुपये भेज दिये गये हैं। गाजीपुर होते हुए कलकत्ता जायेगा। मैं यहाँ से कल प्रस्थान कर रहा हूँ। और पत्र मत लिखिएगा, क्योंकि मैं प्रस्थान कर रहा हूँ। आशीर्वाद दीजिए कि बाबूराम चंगा हो जाय। माताजी को मेरे असंख्य प्रणाम। आप लोग आशीर्वाद दें, जिससे मैं समदर्शी बनूँ। जन्म-लाभ के कारण प्राणी को जो सहज बंधन उत्तराधिकार के रूप में मिलता है, उससे मुझे मुक्ति मिले और मैं इस निजकृत बंधन में फिर न फँसू। यदि कोई मंगलकर्ता है एवं उसके लिए साध्य तथा सुविधाजनक है, तो वह आप लोगों का परम मंगल करे – यही मेरी अहर्निश प्रार्थना है। किमधिकमिति।
आपका,
नरेन्द्र