स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री जी. जी. नरसिंहाचारियर को लिखित (11 जनवरी, 1895)
(स्वामी विवेकानंद का श्री जी. जी. नरसिंहाचारियर को लिखा गया पत्र)
शिकागो,
११ जनवरी, १८९५
प्रिय जी. जी.
तुम्हारा पत्र अभी मिला।… अन्य धर्मो की अपेक्षा ईसाई धर्म को महत्तर प्रदर्शित करने के लिए धर्म-महासभा का संगठन हुआ था, परन्तु तत्त्वज्ञान से पुष्ट हिन्दुओं का धर्म, फिर भी अपने पद का समर्थन करने में विजयी हुआ। डॉक्टर बरोज और उनकी तरह के लोग, जो कि बड़े कट्टर हैं, उनसे मैं सहायता की आशा नहीं रखता।… भगवान ने मुझे इस देश में बहुत से मित्र दिये हैं और उनकी संख्या सदा बढ़ती ही जाती है, जिन लोगों ने मुझे हानि पहुँचानी चाही है, ईश्वर उनका कल्याण करे!… मैं बराबर न्यूयार्क और बोस्टन के बीच यात्रा करता रहा। इस देश के ये ही दो बड़े केन्द्र हैं, जिनमें से बोस्टन को यहाँ का मस्तिष्क कहा जा सकता है और न्यूयार्क को उसका मनीबेग। दोनों ही स्थानों में मुझे आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। मैं समाचार-पत्रों के विवरणों के प्रति उदासीन हूँ, इसलिए तुम मुझसे यह आशा न करो कि उनमें से किसी के विवरण मैं तुम्हें भेजूँगा। काम आरम्भ करने के लिए थोड़े से शोर की आवश्यकता थी, वह जरूरत से ज्यादा हो चुका है।
मैं मणि अय्यर को लिख चुका हूँ, और तुम्हें भी निर्देश दे चुका हूँ। ‘अब तुम मुझे दिखाओ कि तुम क्या कर सकते हो।’ अब व्यर्थ की बकवास का नहीं, असली काम का समय है; हिन्दुओं को अपनी बातों का काम से समर्थन करना है, यदि वे ऐसा नहीं कर सकते, तो वे किसी वस्तु के योग्य नहीं हैं, बस, इतनी सी बात है। अमेरिकावाले तुम लोगों को तुम्हारी सनकों के लिए धन नहीं देंगे। और क्यों दें भला? जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं तो सत्य की शिक्षा देना चाहता हूँ, चाहे वह यहाँ हो या कहीं और।
लोग तुम्हारे या मेरे अनुकूल या विरुद्ध क्या करते हैं, भविष्य में इस पर ध्यान न दो। काम करो, सिंह बनो, प्रभु तुम्हारा कल्याण करे। मैं मृत्युपर्यन्त निरन्तर काम करता रहूँगा और मृत्यु के बाद भी संसार की भलाई के लिए काम करता रहूँगा। सत्य का प्रभाव असत्य की अपेक्षा अनन्त है; और उसी तरह अच्छाई का। यदि तुममें ये गुण हैं, तो उनकी आकर्षण-शक्ति से ही तुम्हारा मार्ग साफ हो जाएगा।
थियोसॉफिस्टों से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। और जज मेरी सहायता करेंगे। हुँह!… सहस्रों सज्जन मेरा सम्मान करते हैं और तुम यह जानते हो; इसलिए भगवान् पर भरोसा रखो। इस देश में धीरे-धीरे मैं ऐसा प्रभाव डाल रहा हूँ, जो समाचार-पत्रों के लाख ढिंढोरा पीटने से भी नहीं हो सकता था। यहाँ के कट्टरपंथी इसे महसूस करते हैं, पर कुछ कर नहीं सकते। यह है चरित्र का प्रभाव, पवित्रता का प्रभाव, सत्य का प्रभाव, सम्पूर्ण व्यक्तित्व का प्रभाव। जब तक ये गुण मुझमें हैं, तब तक तुम्हारे लिए चिन्ता का कोई कारण नहीं; कोई मेरा बाल भी बाँका न कर सकेगा। यदि वे यत्न करेंगे, तो भी असफल रहेंगे। ऐसा भगवान् ने कहा है।… सिद्धान्त और पुस्तकों की बातें बहुत हो चुकीं। ‘जीवन’ ही उच्चतम वस्तु है और जनता के हृदय स्पन्दित करने के लिए यही एक मार्ग है – इसमें व्यक्तिगत आकर्षण होता है।… दिन प्रतिदिन भगवान् मेरी अन्तर्दृष्टि को तीव्र से तीव्रतर करता जा रहा है। काम करो, काम करो, काम करो।… व्यर्थ की बकवास रहने दो; प्रभु-चर्चा करो। जीवन की अवधि अत्यन्त अल्प है और यह झक्की तथा कपटी मनुष्यों की बातों में बिताने के लिए नहीं है।
हमेशा याद रखो कि प्रत्येक राष्ट्र को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक मनुष्य को भी अपनी अपनी रक्षा करनी होगी। दूसरों से सहायता की आशा न रखो। कठिन परिश्रम करके यहाँ से मैं कभी कभी थोड़ा सा रुपया तुम्हारे काम के लिए भेज सकूँगा; परन्त इससे अधिक मैं कुछ नहीं कर सकता। यदि तुम्हें उसीके आसरे रहना है, तो काम बन्द कर दो। यह भी समझ लो कि मेरे विचारों के लिए यह एक विशाल क्षेत्र हैं और मुझे इसकी परवाह नहीं है कि यहाँ के लोग हिन्दू हैं या मुसलमान या ईसाई। जो ईश्वर से प्रेम करता है, मैं उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहूँगा। … मुझे चुपचाप शान्ति से काम करना अच्छा लगता है और प्रभु हमेशा मेरे साथ है। यदि तुम मेरे अनुगामी बनना चाहते हो, तो सम्पूर्ण निष्कपट होओ, पूर्ण रूप से स्वार्थ त्याग करो, और सबसे बड़ी बात हैं कि पूर्ण रूप से पवित्र बनो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। इस अल्पायु में परस्पर प्रशंसा का समय नहीं है। संघर्ष समाप्त हो जाने के बाद किसने क्या किया, इसकी हम तुलना और एक दूसरे की यथेष्ट प्रशंसा कर लेंगे। लेकिन अभी बातें न करो; काम करो, काम करो, काम करो! मैंने तुम्हारा भारत में किया हुआ कोई स्थायी काम नहीं देखा – मैं तुम्हारा स्थापित किया हुआ कोई केन्द्र नहीं देखता हूँ, न कोई मन्दिर या सभागृह ही देखता हूँ। मैं किसी को तुम्हें सहयोग देते भी नहीं देख रहा हूँ। बातें, बातें, बातें! यहाँ इसकी कमी नहीं हैं! ‘हम बड़े हैं’, ‘हम बड़े हैं!’ सब बकवास! हम लोग जड़बुद्धि हैं, और यही तो हैं हम! यह नाम और यश की प्रबल आकांक्षा, और अन्य सब पाखंड – ये सब मेरे लिए क्या मानी रखते हैं? मुझे उनकी क्या परवाह? मैं सैकड़ों को परमात्मा के निकट आते हुए देखना चाहता हूँ! वे कहाँ हैं? मुझे उन्हीं लोगों की आवश्यकता है, मैं उन्हें ही देखना चाहता हूँ। तुम उन्हें ढूँढ़ निकालो। तुम मुझे केवल नाम और यश देते हो। नाम और यश को छोड़ो, काम में लगो, मेरे वीरों, काम में लगो! मेरे भीतर जो आग जल रही है – उसके संस्पर्श से अभी तक तुम्हारा हृदय अग्निमय नहीं हो उठा – तुमने अभी तक मुझे नहीं पहचाना। तुम आलस्य और सुख-भोग की लकीर पीट रहे हो। आलस्य का त्याग करो, इहलोक और परलोक के सुख-भोग को दूर हटाओ। आग में कूद पड़ो और लोगों को परमात्मा की ओर ले आओ। मेरे भीतर जो आग जल रही है, वही तुम्हारे भीतर जल उठे, तुम अत्यन्त निष्कपट बनो, संसार के रणक्षेत्र में तुम्हें वीरगति प्राप्त हो – यही मेरी निरन्तर प्रार्थना है।
विवेकानन्द
पुनश्च – आलासिंगा, किडी, डॉक्टर, बालाजी, और अन्य सभी से यह कहो कि राम, श्याम, हरि कोई भी व्यक्ति हमारे पक्ष में या हमारे विरुद्ध जो कुछ भी कहे, उसको लेकर माथापच्ची न करें, वरन् अपनी समस्त शक्ति एकत्र कर कार्य में लगाएँ।
वि.