स्वामी विवेकानंद के पत्र – श्री प्रमदादास मित्र को लिखित (7 फरवरी, 1890)
(स्वामी विवेकानंद का श्री प्रमदादास मित्र को लिखा गया पत्र)
विश्वेश्वरो जयति
गाजीपुर,
७ फरवरी, १८९०
पूज्यपाद,
आपका पत्र अभी मिला। बड़ा हर्ष हुआ। बाबाजी आचारी वैष्णव प्रतीत होते हैं; उन्हें योग, भक्ति एवं विनय की प्रतिमा कहना चाहिए। उनकी कुटी के चारों ओर दीवारें हैं। उनमें दरवाजे बहुत थोड़े हैं। परकोटे के भीतर एक बड़ी गुफा है, जहाँ वे समाधिस्थ पड़े रहते हैं। गुफा से बाहर आने पर ही वे दूसरों से बातचीत करते हैं। किसी को यह मालूम नहीं कि वे क्या खाते-पीते हैं। इसीलिए लोग उन्हें पवहारी (केवल पवन का आहार करने वाले) बाबा कहते हैं।
एक बार जब वे पाँच साल तक गुफा से बाहर नहीं निकले, तो लोगों ने समझा कि उन्होंने शरीर त्याग दिया है। किन्तु वे फिर उठ आये। पर इस बार वे लोगों के सामने निकलते नहीं और बातचीत भी द्वार के भीतर से ही करते हैं। इतनी मीठी वाणी मैंने कहीं नहीं सुनी, वे प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं देते, बल्कि कहते हैं, “दास क्या जाने।” परन्तु बात करते करते मानो उनके मुख से अग्नि के समान तेजस्वी वाणी निकलती है। मेरे बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा, “कुछ दिन यहाँ ठहरकर मुझे कृतार्थ कीजिए।” परन्तु वे इस तरह कभी नहीं कहते। इसलिए मैंने यह समझा है कि वे मुझे आश्वासन देना चाहते हैं और जब कभी मैं हठ करता हूँ, तो वे मुझे ठहरने के लिए कहते हैं। आशा में अटका पड़ा हूँ। वे निःसन्देह बड़े विद्वान् हैं, पर कुछ प्रकट नहीं होता। वे शास्त्रोक्त कर्मकाण्ड करते हैं। पूर्णिमा से संक्राँति तक होम होता रहता है। अतएव यह निश्चय है कि वे इस अवधि में गुफा में प्रवेश न करेंगे। मैं उनसे अनुमति किस प्रकार माँगू? वे तो कभी सीधा उत्तर ही नहीं देते। ‘यह दास’, ‘मेरा भाग्य’ इत्यादि कहते रहते हैं। यदि आपकी भी इच्छा हो, तो पत्र पाते ही तुरन्तु चले आइए; अन्यथा उनके शरीर-त्याग के बाद पछताना पड़ेगा। दर्शन करके दो दिन में लौट जाइए। कहने का मतलब यह कि बाहर से बातचीत हो जायेगी। मेरे मित्र सतीश बाबू सहर्ष आपका स्वागत करेंगे। इस पत्र के पाते ही सीधे चले आइए। इस बीच मैं बाबाजी को आपके विषय में सूचना दे दूँगा।
आपका,
नरेन्द्रनाथ
पुनश्च – इनका सत्संग न होने पर भी, यह निश्चित है कि ऐसे महापुरुष के लिए कोई भी कष्ट उठाना निरर्थक न होगा।
नरेन्द्र